पुस्तक समीक्षा --संवाद जारी है
शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021
संवाद जारी है
लेखक:कौशल पाण्डेय
“संवाद जारी है”, रहना भी चाहिए l क्योंकि जब संवाद नहीं
होगा तो बात कैसे जारी रह सकेगी lमैं एक ऐसे रचनाकार कौशल पाण्डेय की बात कर रहा हूँ जो शिक्षा के दरम्यान मेरा मित्र बना,बातें आगे बढ़ी खासकर मिलना मिलाना भी हुआ।हो सकता है पुस्तक समीक्षा करते
हुये मैं पुस्तक से ज्यादा ही जुड़ाव महसूस करूं।बहरहाल बात करता हूँ एक ऐसे लेख "मेरा गांव-मेरा बचपन "से जिसमें खासकर भारत-चीन
के युद्ध से आये खाद्यान्न संकट का जिक्र बड़ी शिद्दत से किया गया है फिर संकट से
झूझते परिवार की तमाम-तमाम बातें भी।
“अचर्चित
व्यक्तित्व” लेख में उन दिनों का युवा
छात्र लेखक कितनी साफगोई से साधारण भाषा में बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव जैसे
कालजयी उपन्यासकार से मिलने व उनके सानिध्य को प्राप्त कर संवेदनाओं की देहलीज पर
खरा उतरता है क्योंकि मैं इसका गवाह भी रहा हूँ।कई बार सांसद रहते हुये भी जनता के
हकों की लड़ाई सड़क पर लड़ने वाले कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया पर लिखा आलेख ये बताने
के लिये काफी है कि जनता की लड़ाई सड़कों पर कैसे लड़ी जाती है।
रचनाकार,चाहे वो गद्य में लिखे या पद्य में,आलोचना समालोचना संस्मरण आदि पर कलम चलाये, होता साहित्यकार ही है परन्तु उसका आकलन तत्कालीन लेखन या समुदाय न करे ये दुःख की बात है।कौशल जी ने बालकृष्ण बलदुआ जैसे साहित्यकार पर लिखकर उन्हें जीवन दान सा दिया है ऐसा मुझे लगता है।“यादें झीनी झीनी रे” के जरिये ये पता चलता है कि आकाशवाणी का महानिदेशक एक प्रतिष्ठित कहानीकार और बाल साहित्यकार श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव से यह अनुरोध करे कि वह रेडियो के लिए नाटक लिखेंl
घर गृहस्थी के कार्य सुचारू रूप से चलते रहें प्रत्येक स्त्री का दायित्व होता है। परन्तु व्यस्त समय से समय निकाल कर बचे हुये समय का उपयोग कोई रचनात्मकता के हवाले कर दे तो ये काम कम महत्वपूर्ण नहीं।“संवाद जारी है” के आवरण का चित्रांकन इसी की परिणिति है, निःसन्देह किरण चोपड़ा जी धन्यवाद की पात्र हैं।
लघुपत्रिकाओं का
आकर्षण आज भले ही कम हो गया हो परन्तु एक समय था जब लघुपत्रिकाएँ आज के चर्चित
रचनाकारों का संबल हुआ करती थीं।ऐसी ही एक लघु पत्रिका “प्रश्नचिन्ह” अस्सी के दशक में चर्चा में रही। उसमें छपने वाले रचनाकार खास कर कौशल पाण्डेय,हरभजन सिंह मेहरोत्रा,राजकुमार सिंह,शिव चरण चौहान, रमाकांत पांडे आदि किसी
परिचय के मोहताज नहीं।बंद हुयीं या प्रकाशित हो रहीं लघु पत्रिकाओं का महत्व कम कर
नहीं आंका जा सकता।एक आलेख में लेखक ने इस पर प्रकाश डाला है।
“स्मृतियों में पिता” पुस्तक का एक
मार्मिक प्रसंग है,अपने स्वाभिमानी पिता और
माता के संघर्षों का जिक्र बड़ी संवेदनाओं के साथ किया है।एक संघर्षशील पिता किस
तरह से अपने पालकों को उचित दर्जा दिलाकर एक
जघन्य कांड का शिकार हो जाता है।सुप्रसिद्ध समीक्षक एवं रंगकर्मी अंबिकासिंह वर्मा
के साथ अपने साक्षात्कार के दौरान कौशल जी ने अपने बाल साहित्य के रुझान से अवगत कराया।
बाल साहित्यकार प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव का सान्निध्य मिलते ही वे बाल साहित्य का
जाना माना हस्ताक्षर बन गये।
साहित्य समाज का दर्पण है, मुंशी प्रेम चंद
के इस कथन को झुठलाया नहीं जा सकता।“शब्द संस्कृति और
पुस्तकें”,के माध्यम से सामाजिक दर्शन को समझाने का प्रयास बढ़िया है।शब्द
और बीज (संस्कृति)सदैव जिन्दा रहते हैं,कोई भी परिस्थितियां हों, मैंने पढ़ा भी है और समझने का प्रयास भी किया है,माध्यम कोई भी हो शब्दों की अमरता को झुठलाया नहीं जा सकता,हजारों हजार साल से बीज उर्वरक होकर अपना नया रूप
धारण कर ही लेते हैं।कौशल जी के अनुसार आदिम युग से आगे निकल कर जब हाव-भाव से काम
नहीं चला तब शब्दों ने अपना अंतरजाल फैलाया,आज इंटरनेट के माध्यम से
बहुत सारी बातें हम शेयर कर लेते हैं।ये सारी विधायें एक तरह से शब्दों का
पुनर्जन्म ही हैं, शब्द देव हैं संत तुकाराम
ने कहा है।शब्दों का प्रयोग शस्त्र रूप में न कर मानवता की रक्षा के लिये होना
चाहिए।
भाषा समन्वय की
कड़ी बनें हमारी सोच होनी चाहिए।“संवाद जारी है” के एक आलेख में आजादी से लेकर अब
तक हुये आन्दोलनों की सफलता का कारण भाषा की सफलता ही रही है।“सांस्कृतिक समन्वय
का सेतु”,“सदी का हिन्दी बाल साहित्य” जैसा आलेख बाल साहित्य पर पैनी
दृष्टि को उजागर करता हुआ सा लगता है।
ये पुस्तक पढ़ी
जाय,समझी जाय और कई आलेखों के
माध्यम से उजागर हुयीं लेखकीय भावनाओं का स्तंभ बने।
०००००
समीक्षक:
अरुणप्रिय
54,जागेश्वर मंदिर परिसर,
मैनावती मार्ग,आजादनगर,कानपुर-2
मोबाइल नम्बर:7565951426
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