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सफ़लता का रहस्य

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

आचार्य द्रोण द्वारा गुरु दक्षिणा के रूप में एकलव्य से अंगूठा मांग लिये जाने के बाद से अर्जुन के मन में एकलव्य के प्रति काफ़ी सहानुभूति एवं मैत्री का भाव जागृत हो गया था।आचार्य द्रोण के मन में भी एकलव्य के प्रति काफ़ी सहानुभूति का भाव आ चुका था।स्वर्ग आए हुअ भी उन लोगों को काफ़ी समय बीत चुका था।
    एक दिन अर्जुन के मन में अचानक यह बात आई कि क्यों न वह भी पृथ्वी पर चल कर किसी विश्वविद्यालय में युद्ध विद्या में शोध कार्य करें और वहां से पी0एच0डी0 की उपाधि प्राप्त करके वापस स्वर्ग में आकर अपना एक विश्वविद्यालय स्थापित कर लें।
     यह विचार मन में आते ही अर्जुन एकलव्य को साथ लेकर आचार्य द्रोण के पास उनकी आज्ञा लेने जा पहुंचे। अर्जुन का प्रस्ताव सुनकर आचार्य कुछ देर तक विचारमग्न रहे,पर शीघ्र हि उन्होंने दोनों को पृथ्वी पर जाने की आज्ञा दे दी।
     अंत में पूरी तैयारी के साथ अर्जुन और एकलव्य पृथ्वी पर आ गये।लेकिन यह संयोग ही था कि एकलव्य और अर्जुन को स्थानाभाव के कारण एक ही विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल सका।फ़िर भी प्रवेश मिल जाने पर दोनों ने अपने-अपने शोध निर्देशकों के साथ शोध प्रारंभ कर दिया। अर्जुन का अधिकांश समय पुस्तकालय में अध्ययन करने में बितता।प्रतिदिन शाम को वह अपने दिन भर किये गये कार्य को आचार्य के पास ले जाकर दिखलाते एवं उनसे परामर्श करते।
                     उधर एकलव्य अपने शोध कार्य के प्रति पूर्णतः उदासीन था।उसका अधिकांश समय विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच गपबाजी और अपने आचार्य की सेवा काने में बीतता था।
      एक वर्ष के बाद अचानक ही एक दिन एकलव्य घूमता  हुआ अर्जुन के पास पुस्तकालय में जा पहुंचा।वहां अर्जुन पुस्तकों के अम्बार के बीच बैठे थे।एकलव्य को अचानक वहां पाकर अर्जुन को काफ़ी आश्चर्य हुआ। अभिवादन के पश्चात एकलव्य ने प्रश्न किया, बन्धु,यह क्या हाल बना रखा है तुमने अपना?ऐसा लगता है तुम्हारा शोध कार्य शीघ्र पूरा होने वाला है।
          “कहां बन्धु---?अभी तो मेरा प्रथम अध्याय ही मेरे आचार्य जी ने स्वीकृत नहीं किया----अभी उसे ही चौथी बार लिख रहा हूं।एकलव्य के स्वस्थ और मोटे होते जा रहे शरीर को देख एक ठण्ढी सांस खींच कर अर्जुन बोले।
        “क्या----?अभी तुम्हारा प्रथम अध्याय ही नहीं पूरा हुआ?मेरे तो तीन अध्याय समाप्त हो चुके हैं और मेरे आचार्य ने उन्हें स्वीकृति भी दे दी है।एकलव्य आश्चर्य से अर्जुन को देख कर बोला।
   यह कैसे सम्भव हुआ बन्धु ?मैं तो प्रवेश लेने के बाद से ही अपना अधिकांश समय अध्ययन में ही व्यतीत कर रहा हूं फ़िर भी मेरे आचार्य महोदय मुझसे तथा मेरे कार्य से असन्तुष्ट हैं---और तुम्हारे तीन अध्याय समाप्त भी हो चुके?आखिर इसका रहस्य क्या है?अर्जुन व्यग्रता से बोले।
           हा---हा---हा---इस सफ़लता का रहस्य?कभी मेरे विश्वविद्यालय आओ तो तुम स्वयं देख लेना अर्जुन।एकलव्य एक जोरदार ठहाका लगा कर बोला। अर्जुन के साथ पूरा दिन उस शहर में भ्रमण करने  के बाद एकलव्य उसी दिन शाम को अपने शहर वापस चला गया।एकलव्य की प्रगति जानने के बादसे अर्जुन और अधिक परिश्रम के साथ शोध कार्य में जुट गये।इसी प्रकार छह माह कब बीत गये अर्जुन को पता ही नहीं चला।
   एक दिन प्रातःकाल ही अर्जुन एकलव्य के शहर में जा पहुंचे।वहां वो सीधे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में गये।परन्तु वहां एकलव्य उन्हें नहीं मिला।वे एकलव्य का पता लगाते हुये उसके आचार्य के निवास पर जा पहुंचे।उनका परिचय जानकर आचार्य ने उनका स्वागत किया और
बताया कि एकलव्य अभी बाजार गया है आता ही होगाऽर्जुन वहीं बैठ कर कुछ पौस्तकें देखने लगे।
   कुछ ही देर में एकलव्य अपने सिर पर सब्जियों की टोकरी लादे हुये और दोनों हाथों से एक गैस का सिलिण्डर लुढ़काता पसीने से लथपथ हाजिर हुआ।वह अर्जुन को वहां अचानक देख कर थोड़ा सकपका गया। अर्जुन भी आश्चर्यचकित होकर उसे देखते रह गये।खैर---। एकलव्य जल्दी से भीतर जाकर सारा सामान अपनी गुरुमाता को दे आया। और अर्जुन के पास बैठकर उसका समाचार पूछने लगा।परन्तु आचार्य की मौजूदगी में दोनों खुल कर बातें नहीं कर पा रहे थे।कुछ ही देर बाद अचानक एकलव्य घड़ी देख कर बोला,अच्छा बन्धु ,आओ अब चलें।जरा आचार्य जी के छोटे पुत्र को विद्यालय से लाने का समय हो चुका है,और उसे घर पहुंचाकर आचार्य जी की गायों को अस्पताल तक दिखाने भी जाना है। और अर्जुन को साथ लेकर एकलव्य विद्यालय के मार्ग पर चल पड़ा।अर्जुन यह सब देख कर एकदम स्तब्ध हो गये थे।
   लेकिन एकलव्य की प्रगति देख कर---उसके कार्यों और उसकी स्थिति देखकर अर्जुन के सामने एकलव्य का वह ठाका लगाता चेहरा घूम गया जब उसने उनसे पुस्तकालय में कहा था कि मेरी सफ़लता का रहस्य मेरे विश्वविद्यालय में आकर तुम स्वयं देख लेना।और अब अर्जुन के सामने धीरे-धीरे स्थिति काफ़ी स्पष्ट होती गयी।उन्हें अब काफ़ी हद तक एकलव्य की सफ़लता का रहस्य मालूम हो गया था।एकलव्य के साथ दिन भर शहर में भ्रमण करके अर्जुन सायंकाल अपने शहर वापस लौट गये।
        अगले दिन छात्रावास के छात्रों को यह देख कर काफ़ी आश्चर्य हुआ कि सबेरे उठते ही पुस्तकालय में जाकर जम जाने वाले अर्जुन आज अपने आचार्य महोदय के बगीचे में फ़ावड़ा लेकर उनकी क्यारियों की मिट्टी समतल कर रहे थे और उनके चेहरे पर एक परम सन्तुष्टि का भाव झलक रहा था।
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डा0हेमन्त कुमार

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छोटे बच्चे ---जिम्मेदारियां बड़ी बड़ी

बुधवार, 19 नवंबर 2014

                         
                           हर युवा दम्पत्ति का यह सपना होता है कि उसके घर के आंगन में
 भी एक नन्हें कोमल प्यारे शिशु की किलकारियां गूंजें। शिशु अपनी अनोखी बाल लीलाओं से उनके सूने घर को गुंजारित करे। उनका यह स्वप्न पूरा भी होता है।उनके घर जब नन्हें मेहमान का आगमन होता है तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता।युवा दम्पत्ति जी जान से उसकी देखभाल में तो जुट ही जाते हैं। साथ ही उसकी बाल लीलाओं का भी आनन्द उठाते हैं।
       इस शिशु के बढ़ने के साथ ही उनकी खुशियां बढ़ने के साथ ही जिम्मेदारियां भी बढ़ने लगती हैं। खासकर शिशु के बकैयां चलने से लेकर उसके स्कूल जाने तक की अवधि हर अभिभावक के लिये बहुत ही ज्यादा जिम्मेदारी वाला समय होता है। इस दौरान बच्चा घुटनों के बल चलना शुरू करता है,पहले वह थोड़ी ही दूर जाता है। फ़िर घर भर में इधर उधर भागता है। हर चीज को देखकर, छू कर महसूस करने की कोशिश करता है। घर में रखे सामानों को बिखराता है। चीजों को फ़ेंकता है। उलट पलट करता है। ऐसी अवस्था में मां बाप दोनों को शिशु के ऊपर कुछ ज्यादा ध्यान देने और थोड़ा अतिरिक्त सावधानी रखने की जरूरत पड़ती है। अन्यथा शिशु को हल्के फ़ुल्के नुक्सान से लेकर बड़े हादसे तक घटित हो सकते हैं।
          मैं यहां पहले उन हादसों का जिक्र करूंगा जिन्होंने बच्चों के मां बाप के साथ ही मुझे भी बहुत गहराई तक झकझोर दिया था। और जिनकी वजह से ही आज मैं यह लेख लिख रहा हूं। आप खुद भी इन घटनाओं को पढ़कर समझ सकते हैं कि यदि उस समय थोड़ी सी सावधानी बरती गयी होती तो कुछ अबोध शिशु असमय मौत के शिकार न हुये होते। ऐसे हादसे जिनकी जिम्मेदारी उनके अभिभावकों की ही थी। ऐसा नहीं कि उन अभिभावकों ने जानबूझ कर ऐसा किया था बल्कि उनकी थोड़ी सी असावधानी ने उनके जीवन की तमाम खुशियां छीन लीं।
            पहली घटना। आज से बीस साल पहले की है। इलाहाबाद में मेरे एक पड़ोसी ठेकेदार थे। बहुत खुशहाल परिवार । घटना उनके एक साल के बहुत सुन्दर सलोने बेटे के साथ हुई। उनकी पत्नी ने कपड़े धोये। उन्हें निचोड़ा और आंगन में ही गन्दे पानी से भरी बाल्टी छोड़कर छत पर कपड़े फ़ैलाने चली गईं। पन्द्रह बीस मिनट बाद वो कपड़े फ़ैलाकर वापस नीचे आईं तो आंगन का दृश्य देखकर चीख पड़ीं। आंगन में उनका एक साल का बेटा बाल्टी में उल्टा पड़ा था। यानि उसका पैर बाल्टी के बाहर और सिर बाल्टी के अन्दर पानी में। चीख सुनकर घर के लिग इकट्ठे हुये। बच्चे को तुरन्त अस्पताल लेकर भागे । पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। चिकित्सक बच्चे को नहीं बचा सके। हुआ यह था कि उनके छत पर जाते ही बच्चा वहां आया। उत्सुकतवश उसने भरी बाल्टी के अन्दर झांकने की कोशिश की। और उसी दौरान वह उसमें उलट गया। काश कि उनके छत पर जाते समय कोई उनके बच्चे को सम्हाल रहा होता। य वो बाल्टी का पानी गिराकर गयी होतीं…।
        दूसरी घटना।मेरे अपने ही घर में।मेरी छोटी बहन सपरिवार आई थी।उनका डेढ़ साल का बेटा साथ में था।बैठक में सभी लोग बातचीत में मशगूल थे।दूसरे कमरे में बच्चे खेल रहे थे।इसी बीच कोई बच्चा चीखा।हम सभी भाग कर अन्दर के कमरे में पहुंचे।वहां मेरी बहन के सुपुत्र पाउडर से पूरे नहाये  हुये चीख रहे थे। उसने ट्रन्सपरेण्ट डिब्बे में रखे विम पाउडर को कोई खाने की चीज समझ कर अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की।शायद डिब्बे का ढक्कन ढीला होने के कारण पूरा
विम पाउडर  उसके ऊपर।कुछ मुंह और आंख में भी गया।हम लोगों ने जल्दी से पहले उसे नल के नीचे अच्छी तरह नहलाया फ़िर लेकर भागे डाक्टर के घर।संयोग से विम पाउडर उसके पेट में नहीं गया था। बस थोड़ा आंखों और दांतों में लगा था ड़ाक्टर ने दवायें दीं।शाम तक उसे आराम मिल गया।
        तीसरी घटना।अभी 2साल पहले मेरे पड़ोस में घटी थी।बच्ची के पिता सरकारी नौकरी में और पत्नी शिक्षिका।एक बच्ची 4साल की दूसरी बड़ी।उस दिन पिता आफ़िस और बड़ी बेटी स्कूल में थे।घर पर छुटकी और मां।मां रसोईं में।तभी छुटकी चीखी।मां कमरे में पहुंची तो एक तरफ़ प्रेस लगा था और छुटकी पड़ी चीख रही थी।हुआ यूं कि छुटकी ने मां को किचेन में मशगूल पाया, उसने सोचा कि मैं भी अपनी बड़ी बहन की तरह फ़्राक पर प्रेस कर लूं।वह प्रेस लायी,उसे लगा कर आन किया और पहनी हुई फ़्राक पर प्रेस करने की कोशिश में अपना पैर जला बैठी।
उसे भी इन्जेक्शन,डाक्टर और अस्पताल की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा।
              अब आप बताइये इन तीनों घटनाओं में उन अबोध शिशुओं की क्या गलती थी? अगर उनकी गतिविधियों पर मां बाप या किसी बड़े का ध्यान रहा होता तो शायद ये हादसे न होते। इसीलिये इस उम्र के बच्चों की देखभाल में,लालन पालन में बहुत अधिक सावधानी रखने की जरूरत है। ऐसा नहीं कि कोई मां बाप अपने बच्चे के लिये जानबूझकर ऐसी स्थितियां पैदा करता है। वह क्यों करेगा ऐसा? ये तो अनजाने में हुयी थोड़ी सी असावधानी ऐसी परिस्थितियों को जन्म देती है।
 थोड़ी सी सावधानी बच्चे कि सुरक्षा के लिये----
        आइये अब देखते हैं कि इन छोटी उम्र के बच्चों के लालन पालन के दौरान हम किस तरह की सावधानियां अपनाकर उनका जीवन सुरक्षित रख सकते हैं। मैंने पहले ही कहा है कि जब तक बच्चा गोद में ,पालने या बिस्तर पर रहता है तब तक वह आपके सहारे ही घर में इधर उधर जा सकता है। लेकिन जैसे ही वह घुटनों के बल या बकैयां  चलना शुरू करता है वह पूरे घर में घूमने लगता है। और उसकी इस क्रिया से उसके साथ आप भी आनन्दित होते हैं। इस समय बराबर  उसके ऊपर ध्यान देने की जरूरत रहती है।
0 क्या करें?
* सबसे पहले अपने घर में नीचे की तरफ़ लगे हुये सभी इलेक्ट्रिक प्लग प्वाइण्ट बन्द करवा दें। या उन्हें थोड़ा ऊंचाई पर शिफ़्ट करवा दें। क्योंकि इनके खुले रहने पर उत्सुकतावश बच्चा उनके छेदों में उंगलियां डालने की गलती कर सकता है।
*घर की आल्मारियों में नीचे के खानों में कोई भी जहरीला, खतरनाकपदार्थ(फ़िनायल,तेजाब,मिट्टी का तेल,हार्पिक्स,विम एवम डिटर्जेण्ट पाउडर इत्यादि) न रखें।इन वस्तुओं को ऐसी जगह रखें जो आपके शिशु की पहुंच से दूर हो।
*अपने घर के इलेक्ट्रानिक्स और इलेक्ट्रिकल उपकरणों को शिशु की पहुंच से दूर थोड़ा ऊंचाई पर रखें।
*घर में मौजूद दवायें हमेशा बच्चों की पहुंच से दूरऽअल्मारी के ऊपरी खानों में रखें।ताकि बच्चे उन्हें  छू न सकें।
*बाथरूम का दरवाजा हमेशा बन्द रखें।क्योंकि वहां प्रायः ही किसी न किसी बर्तन में पानी भर कर रखा ही जाता है।वहां अकेले जाना बच्चे के लिये घातक हो सकता है।
*जब भी बच्चे को फ़र्श पर छोड़ें,ध्यान रखें उसके आस पास कोई ऐसी वस्तु न हो जिसे वह मुंह में डालने की कोशिश करे। अच्छा होगा कि ऐसे समय मां बाप या कोई बुजुर्ग शिशु के साथ रहें।
*यदि आपका शिशु आंगन में खेल रहा है तो ध्यान रखें कि वह गमलों तक न पहुंचने पाये।वह  गमलों की मिट्टी या किसी जहरीले पौधे की पत्ती तोड़कर मुंह में डाल सकता है जो कि उसके  लिये हानिकर होगी।
*यदि ऊंचे बेड पर शिशु बैठा हो तो उस प्पर नजर रखें कि वह बिस्तर से गिर कर चोटिल न हो  जाय।
*शहरों में परिवार एक या दो कमरों के छोटे मकानों में रहते हैं।उन्हीं दो कमरों में पूरी गृहस्थी का सारा सामान।ऐसी स्थिति में घर का सामान शिशु के रहने के हिसाब से व्यवस्थित करें।
*शिशु को कभी रसोई के अन्दर न जाने दें।वहां वह गैस,फ़्रिज़ आदि छूने की कोशिश करके नुक्सान  उठा सकता है।
*अक्सर मां शिशु को बुरे सपनों से बचाने के लिये उसके बिस्तर के नीचे चाकू,कैंची रखती हैं।इन्हें  ऐसी जगह रखें कि बच्चा उन्हें न छू सके।
*और सबसे अन्तिम बात बकैयां चलना शुरू करने से लेकर स्कूल जाने की अवस्था आने तक मां  बाप में से कोई एक हमेशा शिशु का ध्यान रखे।ताकि कभी भी वह गलती से कोई ऐसी क्रिया न  कर बैठे जो उसके लिये घातक हो।
                ये कुछ ऐसी छोटी छोटी बातें हैं जिनपर ध्यान देकर आप अपने नन्हें,सुकोमल शिशु का जीवन सुरक्षित रखने के साथ ही अपने परिवार को खुशहाल
रख सकते हैं।
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 डा0हेमन्त कुमार

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पेड़ों में आकृतियां--(2)

रविवार, 9 नवंबर 2014

प्रकृति ने हमारे लिये तरहतरह की वनस्पतियां और पेड़ पौधे बनाए हैं।अगर आप इन पेड़ों को ध्यान से देखें तो इनमें आपको कई तरह की आकृतियां दिखायी पड़ती हैं।मैंने अपने मोबाइल की आंखों से कुछ ऐसी ही आकृतियों को देखने की कोशिश की है।

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पुस्तक समीक्षा--बच्चों का विकास और बड़ों की जिम्मेदारियां

रविवार, 2 नवंबर 2014

पुस्तक -बच्चों का सम्पूर्ण विकास
लेखिका-अर्पणा पाण्डेय
प्रकाशक-किताबघर,
24 /4855,अंसारी रोड,दरियागंज,
नई दिल्ली-110002

मूल्य-140रूपये।

        दो-ढाई दशक पूर्व तक हिंदी में साहित्य से अलग हटकर ज्ञान-विज्ञानं और जीवन चर्या के विविध आयामों पर मौलिक एवं सरल भाषा में लिखी पुस्तकें प्राय: कम ही दिखती थीं।इस तरह की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी से अनूदित होकर आतीं थीं,जिनकी सामग्री न तो हमारी जीवन शैली से मेल खाती थी और न ही उनकी भाषा में कोई खास आकर्षण या प्रवाह होता था।यह सुखद संकेत है कि विगत कुछ वर्षों में इस तरह के विषयों पर लिखने वाले न केवल नए-नए लेखक प्रकाश में आये,वरन अच्छे प्रकाशकों ने ऐसी किताबों को महत्व देकर अच्छी साज-सज्जा के साथ प्रकाशित करने की पहल भी की है।
            हाल ही में प्रकाशित अर्पणा पाण्डेय की पुस्तक बच्चों का सम्पूर्ण विकासएक ऐसी ही पुस्तक है जिसमे छोटे बच्चों के शारीरिक,मानसिक एवं व्यक्तित्व विकास सम्बन्धी विभिन्न पक्षों पर अत्यंत सरल एवं संतुलित भाषा में प्रकाश डाला गया है।                                                                   प्राय: हम बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारियों को अत्यंत ही सामान्य ढंग से लेते है,जब कि यह इतना आसान और सहज नहीं है,अर्पणा पाण्डेय की यह किताब छोटे बच्चों की माताओं (और पिताओं के लिए भी )एक मार्गदर्शक का तो काम करती ही है,साथ ही उनकी जिम्मेदारियों के प्रति आगाह भी करती है्। लेखिका ने बाइस छोटे -छोटे आलेखों के माध्यम से बच्चों की स्वाभाविक आदतो,उनके स्वास्थ्य,आहार,खेल क्रियाए,पठन-पाठन, सामाजिक आचरण,प्रारंभिक शिक्षा,भाषा विकास,योगाभ्यास, संगीत और नाटक के साथ-साथ किस हद तक सेक्स शिक्षा   दिए जाने की आवश्यकता है, जैसे विषयों से जुडी समस्याओं  को बहुत ही व्यावहारिक एवं तार्किक ढंग से,समाधान की सीमाओं तक चर्चा की है।इस पुस्तक के माध्यम से उठाई गई बातों का केंद्र बिंदु हमारा मध्यवर्ग है,भाषा सरल,स्वाभाविक तथा आम बोल-चाल की है।यही दो ऐसे कारण हैं जिससे यह पुस्तक एक व्यापक पाठक वर्ग की जरूरतों को पूरा करती है।
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कौशल पाण्डेय                                  

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“बखेड़ापुर” के बहाने वास्तविक भारत की तस्वीर।

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

पुस्तक -- बखेड़ापुर
लेखक - हरे प्रकाश उपाध्याय
प्रकाशकभारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन वर्ष2014

                  हिन्दी कथा साहित्य में ग्रामीण परिवेश को लेकर लिखने वाले बड़े लेखकों के नामों की जब बात की जाती है तो प्रेमचंद की परम्परा का निर्वहन करने वाले कुछ चुनिंदा नाम ही हमारे सामने आते हैं।उन्हीं की चर्चाएं होती हैं उन्हीं पर विमर्श भी होते हैं।इधर हिन्दी के उपन्यासों में भारतीय गांवों पर अच्छे उपन्यास कम ही लिखे जा रहे हैं।जब की आज भी हमारे देश की आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में ही बसता है।आज भी हमारे गांवों में शोषण का स्वरूप वही है जो प्रेमचन्द के जमाने में था।आज भी निचले वर्ग,पिछड़े वर्ग,दलितों की समस्याएं वही हैं जो प्रेमचन्द के उपन्यासों में वर्णित है।हां शोषकों का चेहरा जरूर बदल गया है।उनकी पोशाकें और मुखौटे बदल गये हैं।और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इधर हिन्दी साहित्य को ग्रामीण परिवेश पर आधारित ऐसे उपन्यास भी नहीं लिखे जा रहे जिन्हें हम प्रेमचन्द या रेणु की परम्परा से जोड़ सकें।
                           अभी हाल में ही प्रकाशित हरे प्रकाश उपाध्याय का उपन्यास बखेड़ापुर प्रेमचन्द और रेणु की ही परम्परा वाली एक सशक्त कृति है।जो हमारे सामने आज के गांवों की उन नंगी और भयावह सच्चाइयों की एक एक परतें इतने सहज ढंग से उघारती है,जिसे पढ़ कर पाठक को महसूस होगा कि क्या स्थितियां सचमुच इतनी भयावह भी हो सकती हैं? 
    बखेड़ापुर नाम तो गांव के प्रतीक के रूप में ही लिया गया है।लेकिन उपन्यास पढ़ते समय हमें उसमें घटने वाली हर घटना,हर कहानी यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या आज़ादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी हमारा देश सामन्ती ताकतों और मानसिकता का इस कदर गुलाम है जिसमें एक सामान्य ग्रामीण को अपनी जिन्दगी स्वेच्छा से जीने या मरने का हक भी नहीं है?उसके हर चरित्र की कहानी हमें आज के ग्रामीण परिवेश की वास्तविकता से परिचित कराती है।
    उपन्यास की कथावस्तु बखेड़ापुर गांव से ही शुरू होती है उसी गांव में खतम हो जाती है।लेकिन इस पूरी कथावस्तु के अन्दर कई और कहानियां भी चलती हैं।इन अन्तर्निहित कहानियों के एक एक चरित्र को लेकर हरे प्रकाश ने जिस तरह से बड़ी सहजता के साथ हमारे गांवों की दलगत राजनीति,निम्न वर्ग के शोषण के विविध रूपों,प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था,निम्नवर्ग की आर्थिक बदहाली,दलितों के अंदर पनप रहे विद्रोह,उनके दमन की सामन्ती कोशिशों जैसी ढेरों समस्याओं को उकेरा है वह देखते ही बनता है।   
                   उपन्यास के पात्र सुदामा,धीरू,संगीता मैडम,पचमा मास्साब,भैरव,हेड सर,रूप चौधरी,ज्वाला सिंह,लोटीराम,बुधन तेली,भूअर,लछमिनिया,परबतिया---और भी कईजिनके बारे में पढ़ते हुये या जिनके विचार पढ़ते हुये आपको बराबर महसूस होगा कि हम सच में भारतवर्ष की असली आबादी या असली आम जन के बारे में पढ़ रहे उन्हीं के बीच उठ बैठ रहे।साहित्यिक भाषा में कहा जाये तो एक तरह का तादात्म्य स्थापित हो जाता है हमारा इन पात्रों के साथ।मतलब हमें भी लगने लगता है कि हम खुद भी इन्हीं के बीच से हैं---या कि अरे यह तो हमारी ही कहानी है।और पाठकों का  पात्रों के साथ यह तादात्म्य स्थापित होते जाना ही उपन्यास की सबसे बड़ी सफ़लता है।
     हरे प्रकाश खुद भी गांव की उसी जमीन के व्यक्ति हैं इसी लिये वहां की एक एक पीड़ा,व्यथा को उनसे बेहतर भला कौन रेखांकित कर सकता है।भूअर की मौत के बाद गांवों की बदहाली और एक आम आदमी की अशक्तता और निरीहता का दुख पचमा मास्साब के अन्दर से फ़ूट पड़ता है।---क्या होगा,जमाना कहां से कहां चला,मगर हमार गांव-जवार को दवाई बीरो का सुविधा नहीं है।आदमी जैसे जंगल में रह रहा है। कीचड़ में जांगर खटाते खटाते कीचड़ में ही समा जाना जीवन है। कहीं किसी को कोई सुख आराम नहीं।शहर में सब लोग मौज मार रहा है।------अदम गोंडवी सहीए लिखे हैं---काजू प्लेट में,भिसकी गिलास में,उतरा है राम राज विधायक निवास में।---गरीबअमीरबड़नान्हहम लोगवे लोगबेचारा भुअरा---। अब आम जन की इस जीवन्त पीडा को वही उकेर पायेगा जो खुद भी उसी माटी की गहरायी से निकल कर आया हो।
   ऐसे ही शोषण के बदलते हुये स्वरूप की एक झलक हम वहां भी देख सकते हैं जब गरीबों के झण्डाबरदारों की बात आती है।वो संगठन जो आपके हितों की बात करते हैं वही किस कदर आपके शोषण का माध्यम बन जाते हैं----संगठनों के लोग चन्दा वसूलने में ही निर्ममता से पेश नहीं आते बल्कि उनके दस्ते जिन गांवों में जाते,वहां अपने समर्थकों के घर रुकने पर खाने-पीने और रहने के नाम पर भी काफ़ी तंग करते हैं।दोनों ही संगठनों में लगभग एक ही तरह के लोग थे।अब जब आपके पक्ष में पार्टी बन्दी करने वाले लोग ही आपका शोषण करने लगेंगे तो आपका कौन खेवनहार बनेगा?
    हमारे आज के प्रजातन्त्र के महा उत्सव यानि चुनाव का इससे बेहतरीन उदाहरण भला कहां मिलेगा। चुनाव प्रचार में सभी पार्टियां दारू,नोट और नारे के बल पर वोट की सौदेबाजी में एक दूसरे को पछाड़ देना चाहती थीं। प्रत्याशियों को उनकी पार्टियों की ओर से धन के अलावा हथियार और गुण्डों की भी बजाप्ता सहायता दी जा रही थी।जैसा कंडीडेट,उसको उतने ही गुंडे--हर कीमत पर वोट चाहियें नोट की नदी बहा दो और गड़ही में दारू बहा दो,हर नुक्कड़ पर नाच करा दो,-------के सी यादव तो मजाक में यहां तक कह दे रहे हैं लोगों से कि हमारा चाहो तो पिछवाड़ा ले लो,मगर वोट दे दो।जनता को मजा आ रहा है----धन-धन हो गान्ही जी कि सुराज दिलाए कि नेता अपना पिछवाड़ा देने तक को राजी है।---जै बोलो जवाहर लाल की,बाबा साहेब अम्बेडकर जी की जै हो---।----अब इसे हम अपने सबसे बड़े लोकतन्त्र के महोत्सव यानि चुनावों का यथार्थ कहें या कि भारत वर्ष की जनता का माखौल। लेकिन जो कुछ भी लिखा गया है वो हमारे देश की भयावह तस्वीरों का एक पहलू है।
                बखेड़ापुर उपन्यास बहुत भारी भरकम नहीं है लेकिन अपने आप में एक मुकम्मल कथावस्तु को हमारे सामने प्रस्तुत करता है।इसमें हर कहानी कुछ पात्रों को साथ लेकर हमारे समक्ष ग्रामीण परिवेश के एक नये स्वरूप,उसकी एक नयी घटना,एक अलग विसंगति को प्रस्तुत करती है।और गांवों की इन्हीं घटनाओं,कहानियों विद्रूपताओं,संघर्षों का एक ऐसा ताना बाना हमारे सामने लेखक द्वारा अनायास ही बुना जाता है जो हमे उपन्यास की सम्पूर्णता तक ले जाता है।
         हममें से अगर कोई पाठक गांवों से सम्बन्ध नहीं रखता है तो भी उसके समक्ष उपन्यास की भाषा या शैली के स्तर पर कोई भी कठिनाई नहीं आ सकती है। उपन्यास की शैली इतनी रोचक और भाषा इतनी सरल और प्रवाहमय है कि हर वर्ग का पाठक इसे समझ सकेगा। पात्रों की आम बोल चाल में कुछ असंवैधानिक शब्दों का प्रयोग भी बहुत अधिक नहीं खटकता क्यों कि आज आम आदमी उतनी गालियों का प्रयोग करना अपना हक मान चुका है।
            अपनी भाषा,बोली की इसी रवानी,शैली की रोचकता और कथ्य की यथार्थता के साथ बखेड़ापुर उपन्यास भी प्रेमचन्द,रेणु,राही मासूम रजा और मिथिलेश्वर के उपन्यासों की पंक्ति में खड़ा होने में सक्षम है।
                                 000
समीक्षक- डा0हेमन्त कुमार


हरे प्रकाश उपाध्याय
बैसाडीह,भोजपुर(बिहार) में 5 फ़रवरी 1981 को पैदा हुये हरे प्रकाश उपाध्याय का यह प्रथम उपन्यास और एक कविता संग्रहखिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएंप्रकाशित।साहित्य के कई प्रसिद्ध सम्मान एवम पुरस्कार। अपने मिलनसार स्वभाव और कुशल सम्पादकीय गुणों से हरे ने साहित्यिक जगत में मित्रों,परिचितों,आत्मीयों का एक वृहत साम्राज्य भी खड़ा किया है। सम्प्रति मन्तव्य त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन।
      


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तकनीकी के विकास में अपराधी बनते बच्चे------।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

         
(फ़ोटो-गूगल से साभार)
 
इधर अखबारों में लगातार प्रकाशित होने वाली किशोर या बाल अपराधों की खबरें बेहद चौंकाने वाली हैं।रोज ही किसी न किसी शहर,स्कूल,कालेज या गांव के कोने में कोई न कोई बालक या किशोर अपराधी बन जा रहा है।और वह भी चेन स्नैचिंग,जेबकतरी जैसे छोटे मोटे अपराधों का नहीं बल्कि समाज के सबसे संवेदनशील हिस्से यानि लड़कियों के प्रति यौन हिंसा का अपराधी।कभी किसी बच्ची के साथ उसके सहपाठियों द्वारा ही छेड़-छाड़ या अश्लील टिप्पणी,कभी मोबाइल पर अश्लील मैसेज भेजने की घटना तो कभी किसी छात्र द्वारा किसी लड़की का वीडियो बना कर उसे सोशल साइट्स पर डालना या ब्लैक मेल करना।
                 पिछली 8 मई 2014 को हिन्दुस्तान दैनिक अखबार में प्रकाशित आगरा शहर की एक खबर ने तो बड़े बड़ों के होश उड़ा दिये थे।बहुतों ने उस खबर को पढ़ा भी होगा।फ़िर भी संदर्भ के तौर पर यहां मैं उस घटना का उल्लेख करना जरूरी समझता हूं।
          घटना आगरा के ताजगंज क्षेत्र में श्याम लाल मार्ग के पास की एक छोटी सी बस्ती की है।बस्ती की एक सड़क पर पांच बच्चे कंचे खेल रहे थे।कोई कक्षा एक छत्र तो कोई कक्षा तीन का।पड़ोस की एक बच्ची ने उनके पास आ कर छत पर आए बंदरों को भगाने के लिये कहा।क्योंकि उसके मां बाप मजदूरी करने गये थे और वह बंदरों से डर रही थी।पांचों उसकी छत पर गये और बंदरों को भगा दिया।इसके बाद उन्होंने जो किया वो हतप्रभ करने वाला था। पांचों लड़कों ने मिलकर उस लड़की को दबोच लिया और उसके कपड़े फ़ाड़ने लगे।बच्ची के चीखने पर पड़ोसियों ने आकर उस बच्ची को लड़कों के चंगुल से मुक्त कराया।
    पुलिस चौकी पर जब पुलिस वालों ने उन बच्चों से पूछा कि,उन्हें मालूम है कि वो सभी गैंगरेप की कोशिश कर रहे थे?तो उन लड़कों का जवाब सुन कर पुलिस वालों के होश फ़ाख्ता हो गये।उन्होंने कहा कि वो क्या कर रहे थे ये उन्हें नहीं मालूम लेकिन उनके पड़ोस में रहने वाले कुछ बड़ी उमर के लड़के उन्हें मोबाइल पर फ़िल्में दिखाते हैं। और उन फ़िल्मों में ऐसा करते दिखाया गया था।वही फ़िल्में देख कर उन बच्चों के मन में वैसा ही करने की बात आई।
       यह खबर सिर्फ़ पुलिस वालों को ही नहीं बल्कि हमें,आपको सभी को स्तब्ध करने वाली है।साथ ही आज के हाईटेक होते जा रहे पूरे समाज को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करने वाली है।
    आज जब कि हर हाथ में मोबाइल है।घर घर में इण्टरनेट की सुविधा उपलब्ध है। हम घर स्कूल से लेकर दफ़्तर और बाजार तक हर जगह हाईटेक होते जा रहे हैं।इन नयी बदलती परिस्थितियों के साथ चलने के लिये क्या हम अपने बच्चों को तैयार करने और सही दिशा निर्देश देने का भी काम कर रहे हैं।वाणिज्य एवं उद्योग मंडल एसोचैम के एक ताजा सर्वेक्षण से जानकारी मिली है कि हमारे देश के महानगरों और छोटे शहरों तक के 8 से 13 साल उम्र वाले लगभग 73 प्रतिशत बच्चे आज फ़ेसबुक,व्हाट्स ऐप जैसे सोशल नेटवर्क साइट्स पर मौजूद हैं।
    यदि इन आंकड़ों को पूरी तरह सही माना जाय तो हमारे लिये चिन्ता की बात यह है कि बच्चे इतनी कम उम्र में इन सोशल साइट्स पर क्या कर रहे हैं?जाहिर सी बात है कि वो इन साइट्स का उपयोग अपनी शैक्षिक दक्षता या कोई हुनर बढ़ाने के लिये तो नहीं कर रहे होंगे। अगर वो इस दिशा में कोई प्रयास कर रहे होते तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होती हमारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की।लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि ये बच्चे वहां मौजूद हैं तो सिर्फ़ नये दोस्त बनाने,रोज अपनी फ़ोटो अपलोड करने,अपने दोस्तों की फ़ोटो देखने या फ़िर चैटिंग करने के लिये।
   प्रश्न यह भी है कि पढ़ने लिखने की उम्र में अविकसित बौद्धिक स्तर वाले इन बच्चों का अपने कीमती समय का ज्यादा हिस्सा इन सोशल साइट्स पर बिताना क्या देश,समाज या उनके परिवार  और खुद उनके हित में है?क्या वे इन सोशल साइट्स पर जाकर उन पर अपलोड किये गये तमाम पोर्न वीडियोज,पोर्न फ़ोटोग्रैफ़्स से बचे रह सकेंगे?क्या उनके अभिभावकों और अध्यापकों की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि उनके हाथ में मोबाइल देते समय या उनकी मांग पर घर में इन्टरनेट लगवाते समय अपने बच्चों पर इस बात का प्रतिबंध लगा सकें कि अभी तुम्हारी उमर पढ़ने लिखने,खेलने कूदने की और अपनी स्किल्स को बढ़ाने की है।सोशल नेटवर्क पर सबय बिताने,सर्फ़िंग या चैटिंग करने की नहीं।
    अगर किसी अभिभावक ने अपने बच्चे को सोशल नेटवर्क पर जाने की अनुमति दी है तो भी उसे चाहिये कि वह बीच बीच में उसकी फ़्रेण्ड लिस्ट चेक करें।कभी उसकी वाल पोस्ट चेक करें।इससे उस बच्चे को वह बहुत सारे ऐसे खतरों से बचा सकते हैं जिनका शिकार हो जाने पर बच्चे का सारा विकास बाधित हो सकता है।
     अभी भी वक्त ज्यादा नहीं हुआ है।यदि समाज,देश के साथ ही हमें इन बच्चों का भविष्य बचाना है तो अभिभावकों,अध्यापकों को अपने बच्चों छात्रों को इस दिशा में जागरूक करना होगा।उन्हें समझाना होगा। जिससे भविष्य में किसी अन्य शहर,कस्बे में आगरा में घटित हुयी घटना की पुनरावृत्ति न हो सके।
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डा0हेमन्त कुमार

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रीना पीटर की फ़ोटो की दुनिया

बुधवार, 10 सितंबर 2014

फ़ोटोग्रैफी एक कला भी है और दुनिया को देखने की एक तीसरी आंख भी।आज मैं यहां अपनी मित्र रीना पीटर के द्वारा मोबाइल कैमरे में कैद किये गये कुछ दृश्य यहां पोस्ट कर रहा हूं।

                        
                               

                      

                        

                        

                            

                     

                              






एम0बी0ए0 कर चुकी रीना पीटर दिल्ली की एक फ़र्नीचर डिजाइन कम्पनी में इन्टीरियर डिजाइनिंग से जुड़ी हैं।रचनात्मकता और कला इनके हर कार्य में झलकती है।फ़ोटोग्रैफ़ी इनका प्रिय शौक है।

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पत्रिका ---"निकट” का नौवां अंक ---।

रविवार, 7 सितंबर 2014

           
 हिंदी साहित्य को प्रतिष्ठित कराने और पहचान दिलाने में लघु पत्रिकाओं की एक बहु-आयामी भूमिका रही है।बहुत सी पत्रिकाएं निकलीं और कुछ अंक प्रकाशित करने के बाद बंद भी हुईं,पर इनकी परंपरा और निरंतरता पर कभी विराम नहीं लगा।इन पत्रिकाओं में प्रकाशित तमाम रचनाएं वास्तव में हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और कई मायनों में इतिहास भी।व्यक्तिगत साधनों से निकलने वाली इन पत्रिकाओं ने हज़ारों की संख्या में नए लेखकों को मंच ही नहीं दिया,ल्कि उन्हें प्रसद्धि भी दी"निकट"एक ऐसी ही साहित्यिक पत्रिका है,जिसके ले ही वर्ष में केवल दो अंक निकलते है,पर इसमें प्रकाशित रचनाओं का सन्देश बहुत दूर तक जाता है।लघु पत्रिका निकालना निश्चित ही एक चुनौती भरा काम है।यह चुनौती तब और भी बढ़ जाती है,जब इस तरह की पत्रिका देश के बाहर रह कर निकालनी हो।  
          कथाकार कृष्ण बिहारी के सम्पादन में संयुंक्त अरब अमीरात की राजधानी आबूधाबी से प्रकाशित होने वाली पत्रिका"निकट"का अंक-9 (जुलाई,14 दिसम्बर,14)हाल ही में प्रकाशित होकर आया है।इस अंक में वह सब कुछ सामग्री है जो किसी भी साहित्यिक पत्रिका को सम्पूर्णता प्रदान करती है।स्व0अमरकांत पर लिखे रवीन्द्र कालिया के संस्मरण को पढ़ना एक ऐसे लेखक को निकट से जानने के अहसास से होकर गुजरना है,जिसने अपना पूरा जीवन अभावों में बिता दिया पर लेखन को अपने से दूर नहीं जाने दिया।लेखक बने रहने यह जिद प्राय:कम ही रचनाकारों में देखने को मिलती है।        
स्व0कवि मान बहादुर सिंह की कुछ अप्रकाशित कविताएं इस अंक की खास उपलब्धि है।मान बहादुर सिंह ने अपनी कविताओं में जिस तरह से लोक जीवन को सम्पूर्णता के साथ उकेरा है,वह उन्हें अपने समकालीन कविओं में एक अलग पहचान देता है।इसके लिए उन्हें लम्बे समय तक याद किया जाएगा।कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं।
उजरा बैल उलांच रहा है,
पगहे भर में नाच रहा है,
खूंटा सूंघ चाटकर नथ को
अपने मूत लिखी जो भाषा,
मुँह बिचकाए बांच रहा है
उजरा बैल कुलांच रहा है--।
        रवींद्र कालिया,प्रेम भारद्धाज,विभारानी और प्रताप दीक्षित की कहानियां तो कथारस से भरपूर है ही,बिमल चन्द्र पाण्डेय के उपन्यास का अंश भी कम पठनीय नहीं है।हिंदी में अभी भी सिनेमा पर गंभीर आलेख प्राय:कम ही पढ़ने को मिलते है,पर सुचित्रा सेन पर दयानंद पाण्डेय और समकालीन फिल्मों पर सुदीप्ति के आलेख इस अति प्रभवशाली माध्यम के प्रति पत्रिका के सकारात्मक दृष्टिकोण को रेखांकित करते है।आज सिनेमा और रंगमंच का साहित्य से जो रिश्ता जुड़ रहा है उसमे इस तरह के आलेख निश्चित ही उस रिश्ते को मजबूती देने और   समझने में एक सार्थक भूमिका का निर्वाह करेंगे।"निकट" के अगले अंकों से और भी अपेक्षाएं है।
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कौशल पाण्डेय                                  
1310ए,वसंत विहार,
कानपुर208021
मो0-09389462070                                                                                                 
                                   

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लेबल

. ‘देख लूं तो चलूं’ "आदिज्ञान" का जुलाई-सितम्बर “देश भीतर देश”--के बहाने नार्थ ईस्ट की पड़ताल “बखेड़ापुर” के बहाने “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक। “मेरे आंगन में आओ” ११मर्च २०१९ ११मार्च 1mai 2011 2019 अंक 48 घण्टों का सफ़र----- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अण्डमान का लड़का अनुरोध अनुवाद अभिनव पाण्डेय अभिभावक अम्मा अरुणpriya अर्पणा पाण्डेय। अशोक वाटिका प्रसंग अस्तित्व आज के संदर्भ में कल आतंक। आतंकवाद आत्मकथा आनन्द नगर” आने वाली किताब आबिद सुरती आभासी दुनिया आश्वासन इंतजार इण्टरनेट ईमान उत्तराधिकारी उनकी दुनिया उन्मेष उपन्यास उपन्यास। उम्मीद के रंग उलझन ऊँचाई ॠतु गुप्ता। एक टिपण्णी एक ठहरा दिन एक तमाशा ऐसा भी एक बच्चे की चिट्ठी सभी प्रत्याशियों के नाम एक भूख -- तीन प्रतिक्रियायें एक महत्वपूर्ण समीक्षा एक महान व्यक्तित्व। एक संवाद अपनी अम्मा से एल0ए0शेरमन एहसास ओ मां ओडिया कविता ओड़िया कविता औरत औरत की बोली कंचन पाठक। कटघरे के भीतर कटघरे के भीतर्। कठपुतलियाँ कथा साहित्य कथावाचन कर्मभूमि कला समीक्षा कविता कविता। कविताएँ कवितायेँ कहां खो गया बचपन कहां पर बिखरे सपने--।बाल श्रमिक कहानी कहानी कहना कहानी कहना भाग -५ कहानी सुनाना कहानी। काफिला नाट्य संस्थान काल चक्र काव्य काव्य संग्रह किताबें किताबों में चित्रांकन किशोर किशोर शिक्षक किश्प्र किस्सागोई कीमत कुछ अलग करने की चाहत कुछ लघु कविताएं कुपोषण कैंसर-दर-कैंसर कैमरे. कैसे कैसे बढ़ता बच्चा कौशल पाण्डेय कौशल पाण्डेय. कौशल पाण्डेय। क्षणिकाएं क्षणिकाएँ खतरा खेत आज उदास है खोजें और जानें गजल ग़ज़ल गर्मी गाँव गीत गीतांजलि गिरवाल गीतांजलि गिरवाल की कविताएं गीताश्री गुलमोहर गौरैया गौरैया दिवस घर में बनाएं माहौल कुछ पढ़ने और पढ़ाने का घोसले की ओर चिक्कामुनियप्पा चिडिया चिड़िया चित्रकार चुनाव चुनाव और बच्चे। चौपाल छिपकली छोटे बच्चे ---जिम्मेदारियां बड़ी बड़ी जज्बा जज्बा। जन्मदिन जन्मदिवस जयश्री राय। जयश्री रॉय। जागो लड़कियों जाडा जात। जाने क्यों ? 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