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बाजू वाले प्लाट पर

रविवार, 11 दिसंबर 2011

कुछ बच्चे रहते हैं
मेरी बिल्डिंग के
बाजू वाले प्लाट पर
प्लाट पर बनी झोपड़ियों में
बन्द है उनका
अनोखा अद्भुत संसार।

झोपड़ी के एक कोने में है
उनका किचेन
दूसरा कोना बेडरूम
तीसरा ड्राइंग रूम
बाहर का मैदान है उनका
ओपेन टायलेट
जहां वे हगते मूतते
और नाक छिनकते हैं।

इसी झोपड़ी में खोलते हैं
वे आंखें
इसी में खेलते हैं
लड़ते हैं झगड़ते हैं
करते हैं धमाचौकड़ी
उठा पटक और लत्तम पैजार।

फ़िर निकल पड़ते हैं
कन्धे पर एक फ़टा बोरा
और हाथ में एक छड़ी लेकर
पूरे दिन भर के सफ़र पर
शहर की सड़कों की लम्बाई नापने
कूड़े के ढेर से पालीथिन बीनने
और जिन्दगी का गणित
समझने कए लिये।

लम्बी लम्बी सड़कों पर भागता ट्रैफ़िक
गली के नुक्कड़ पर कूड़े का ढेर
शहर की ऊंची बिल्डिंगों का हुजूम
सिनेमा के बड़े बड़े पोस्टर
मल्लिका की देह,ऐश्वर्या के उभार
चाय की चुस्की,बीड़ी का सुट्टा
यही सब है
इन बच्चों का ओपेन स्कूल।

ये बच्चे
देखते हैं बड़ी हसरत भरी निगाहों से
रोज सबेरे हमारे बच्चों को
स्कूल जाते हुये
शाम को घूमने जाते हुये
रात में बर्थ डे पार्टियों में
ठुमके लगाते हुये।

ये बच्चे झांकते हैं
कभी कभी
हमारी बिल्डिंग के भीतर भी
पर नहीं आते अंदर कभी
शायद नहीं पसन्द है उन्हें
अपनी झोपड़ी के
अनोखे अद्भुत संसार को
छोड़ना या उससे बिछुड़ना।
0000
हेमन्त कुमार

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वह सांवली लड़की

रविवार, 4 दिसंबर 2011

(चित्र साभार--युनिसेफ़)

याद आती है अक्सर मुझे
मेरे मोहल्ले की वह साँवली-सी लड़की।
तंग कोठरी में बंद
जिसकी उदास आँखों में
सारा आकाश होता था
मगर सपनों का कहीं कोई रेश नहीं...
न जाने क्यों अनकहे ही मुझे
उसकी चुप्पी सुनाई देती थी बहुत बार।

...जब वह गूंगी आँखों से,
संवाद करती थी हवा और धूप से
और अनायास ठिठक कर,
आकाश में उड़ती किसी पतंग को,
निर्निमेष ताकने लगती थी...
तब पर तोलती-सी लगती थीं उसकी पलकें...
ऐसे में मुझे प्रतीत होता था
उसके सारे रूमानी शब्द भीग गए हैं
उसी के अंदर बहती किसी नमकीन नदी में...।

इच्छा के किसी तरल-से क्षण में
मेरा मन करता था
आकाश के नील में हथेली डुबोकर
उसका फीका-सा जीवन रंग दूँ और-छोर
और मुस्कान की एक सुनहरी तितली
उसके उदास होंठों पर रख दूँ
न जाने कितनी बार उसके लिए
इन्द्रधनुष तोड़ लाया था
आषाढ की नीली संध्या से
मगर कभी उसे दे न सका।

जेब में लिए फिरता रहा
उस क्षण की प्रतीक्षा में
जब वह मेरी तरफ देखेगी
तब मैं थमाऊँगा उसे
वे मुस्कराहट, गीत और स्वप्न
जो अपने हिस्से से उसके लिए,
अब तक बचा रक्खे थे।

मगर ऐसा हो न सका
वह अपने अँधेरे से निकलकर
जिंदगी पर अपना हक़ जताने कभी आ न सकी
और एक दिन ना मालूम खो गयी
अपने सूनेपन में
आहों और आंसुओं की विरासत लिए
ठीक जैसे हमारी लड़कियां
खो जाती है अक्सर
बचपन के आँगन से
ससुराल की जलती अंगीठी में
या फिर अपनी माँ की कोख से...
याद आती है अक्सर मुझे...।
000
कवियत्रीजयश्री राय
                                                        जयश्री राय हिन्दी की चर्चित कहानीकार हैं।गोवा युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएशन।हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां,कविताएं प्रकाशित।एक कहानी संग्रह एवम एक कविता संग्रह प्रकाशित एवम तीन पुस्तकें प्रकाशनाधीन।कुछ समय तक अध्यापन कार्य।सम्प्रति स्वतन्त्र लेखन।

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