48 घण्टों का सफ़र-----
शनिवार, 4 अगस्त 2012
(काफ़ी पहले लिखी गयी कविता,जब मैं किसी सरकारी यात्रा पर था और पहली बार अपनी
एक साल की बेटी से दो दिन अलग रहा था।)
नहीं आ रही कोई दस्तक
बाथरूम के दरवाजे पर
न बर्तनों की उठा पटक का शोर
न नन्हें कदमों के भागने की ध्वनि
न भू-भू की आवाजें।
सब कुछ शान्त होकर
सिमट गया है
मेरे व्यवस्थित सुसज्जित
अभेद्य सन्नाटे का कवच पहने हुये
कमरे के कोने में
पड़ी हुई गेंद के भीतर
पिछले 48 घण्टों से।
गली में गुब्बारे वाला
आवाज लगा कर
वापस लौट गया
सामने बालकनी में
छोटा पामेरियन उदास बैठा है
थम गयी है चीं चीं की आवाजें
बाहर टेरेस पर।
नहीं हुआ कोई प्रयास
आल्मारी में करीने से सजी
किताबों को फ़ाड़ने का
पिछले 48 घण्टों से।
ऐसा महसूस हो रहा है
अचानक होगा अभी कोई धमाका
फ़ूट जाएगी गेंद
टूट जाएगा सन्नाटे का
अभेद्य कवच
कमरा हो जाएगा
फ़िर पहले की तरह गुंजायमान।
अचानक दो नन्हें कोमल हाथ
खींचेंगे मेरे बाल
और सुनाई पड़ेगी
एक मीठी कोमल आवाज
पापा सू सू आई----।
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हेमन्त कुमार