लेख-- पहले खुद करें–फ़िर कहें बच्चों से
बुधवार, 4 अक्टूबर 2017
“पिंकी--सुबह
जल्दी उठना है जाकर सो जाओ।”“राजू इतने नजदीक
से टी वी मत देखो--आंखें खराब होती हैं।”“मीना सीधे बैठ कर पढ़ो---झुक कर बैठने से कूबड़ निकल आएगा।”“तनु बेटा नल खुला रख कर
ब्रश मत करो पानी बर्बाद हो रहा है।” ये या ऐसे ही
ढेरों वाक्य हैं जो हर घर में,परिवार में सुबह शाम हर समय आपको सुनाई पड़ते
होंगे।ये वाक्य या उपदेश दिये जाते हैं बच्चों को।और उपदेश देता कौन है? हम आप—हम सभी यानि कि हर अभिभावक या घर का बड़ा सदस्य।
इन नसीहतों को सुन
कर ऐसा लगता है कि बच्चे सिर्फ़ नसीहतें सुनने के लिये ही इस धरती पर आयें हैं।मतलब
यह कि सारी नैतिकता,सारी नसीहतें सिर्फ़ छोटे मासूम बच्चों के लिये। और हमारे आपके
लिये ?क्या जो नसीहतें जो हम उठते,बैठते ,खेलते-खाते,सोते-जागते,बच्चों को देते
हैं।ये क्या सिर्फ़ उनके ऊपर ही लागू होती हैं?हमारे ऊपर नहीं?क्या टी वी नजदीक से
देखने पर हमारी आंखें नहीं खराब होंगी।क्या झुक कर बैठने या पढ़ने पर हमारी रीढ़ की
हड्डी नहीं मुड़ेगी?या उसमें कोई विकार नहीं आयेगा?फ़िर क्या कारण है कि हम हर समय
बच्चों पर ही नसीहतें थोपते रहते हैं?हर समय टोकने,नसीहत देने का असर बच्चों पर
क्या पड़ेगा?क्या अपने इस बात पर भी कभी गौर किया है?क्या हर समय की टोका टाकी
बच्चों को विद्रोही नहीं बनायेगी?इन सब बातों पर भी हमें विचार करना होगा।खासकर आज
के युग में जब कि हर मां-बाप अपने बच्चों के भविष्य को लेकर बेहद सतर्क और चिन्तित
रहता है।
यह सही है कि नसीहत या उपदेश हम
बच्चों की बेहतरी के लिये ही देते हैं।लेकिन उसका तरीका क्या हो?यह भी हो सकता है
कि हम ये नसीहतें या उपदेश बच्चों को सीधे न देकर किसी और तरीके से दें।वह तरीका
कौन सा होगा उस पर विचार करने के पहले मैं आपको एक कहानी संक्षेप में सुनाना
चाहूंगा।यह कहानी शायद आपमें बहुतों ने पढ़ी या सुनी भी होगी।
कहानी है एक फ़कीर की।फ़कीर के पास एक
दिन एक महिला अपने बेटे को लेकर आई।बच्चे के दांतों में बहुत तकलीफ़ थी। महिला ने
शिकायत करते हुए कहा कि मेरा बेटा गुड़ बहुत खाता है।इसके दांतों में कीड़े लग गए
हैं। अगर आप इसकी यह गुड़ खाने की आदत छुड़ा दें तो मैं आपका उपकार जीवन भर नहीं
भूलूंगी।फ़कीर ने उसकी बात ध्यान से सुनी।कुछ देर सोचते रहे फ़िर उसको यह कह कर वापस
भेज दिया कि इसे लेकर दस दिनों के बाद आना। और उन्होंने बच्चे के दांतों का दर्द
कम करने के लिये कुछ दवाएं भी उसे दीं।दस दिनों के बाद महिला फ़िर आई।फ़कीर ने दोनों
को बैठाया और बच्चे को समझाते हुए कहा कि बेटा तुम हर समय गुड़ खाना बंद कर दो।
तुम्हारे दांत बिल्कुल ठीक हो जाएंगे। और हां कभी भी कुछ खाओ तो उसके बाद दांत
जरूर साफ़ कर लिया करो। महिला ने उनसे पूछा कि ये बात तो आप उस दिन भी बता सकते
थे।फ़कीर मुस्कराया और बोला “मैंने उस दिन इसे
इसलिये नहीं समझाया क्योंकि मैं खुद भी बहुत गुड़ खाता था। सो मैं कैसे इसे समझाता।
इन दस दिनों में मैंने गुड़ खाना बंद कर दिया। इस लिये अब मैं इसे समझाने का हकदार
हो गया हूं।” फ़कीर और बच्चे की
यह कहानी आज हम सब पर लागू होती है। यानि कि हमें भी इस कहानी से सीख लेनी चाहिये।
हमें बच्चों को कोई नसीहत देने से पहले खुद भी उस पर अमल करना चाहिये। तभी हम
बच्चों को सही दिशा दे सकेंगे।
एक बात और है।हमें ऐसे मौकों पर कभी
कभी अपने बचपन को भी याद कर लेना चाहिये। आप याद करिये अपने बचपन को। आप अच्छे
खासे अधलेटे होकर अपना कोई कहानी की किताब पढ़ रहे होते थे और अचानक आपके पिताजी
कहते थे “बेटा सीधे बैठ कर पढ़ो। ऐसे भी कहीं पढ़ाई होती है?”आपको कितनी झुंझलाहट होती थी। ठीक यही स्थिति हमारे उपदेश
देने पर हमारे भी बच्चों की होती है।
इसकी जगह अगर हम खुद टी वी दूर बैठ कर देखें,खुद सीधे बैठ कर पढ़ें,खुद ब्रश
करते समय नल को बंद रखा करें तो शायद बच्चों को उपदेश देने की जरूरत ही न
पड़े।क्योंकि बच्चों में अनुकरण करके सीखने की एक स्वाभाविक विशेषता होती है।वह जब
आपको सुबह जल्दी उठते,रात में जल्दी सोते,समय पर नहाते-खाते,तैयार होते,सही मुद्रा
में बैठ कर पढ़ते लिखते देखेगा तो वह स्वतः ही वैसा करेगा। आपको कहने की जरूरत ही
नहीं पड़ेगी।
यहां एक उदाहरण
मैं और देना चाहूंगा।अपने स्कूली दिनों का।मेरे स्कूल के प्राचार्य जब भी किसी कक्षा
में जाते और वहां बच्चों द्वारा फ़ाड़े गये कागज की पुड़िया या कोई दूसरा कचरा देखते
तो उसे स्वयं ही उठा कर कक्षा के बाहर फ़ेंक आते। कभी वो किसी बच्चे को इसके लिये
आदेश नहीं देते थे। नतीजा यह हुआ कि अगले दिन
से उस कक्षा के बच्चे थोड़ा जल्दी आने लगते। और खूद ही अपने कमरे की सफ़ाई कर
लेते।
तो यह भी एक अच्छा तरीका है बच्चों से कार्य लेने और उन्हें समझाने
का।हमारे अध्यापक और अभिभावक अगर दोनों ही बच्चों को समझाने,दिशा निर्देश देने और
उन्हें आगे बढ़ाने के संदर्भ में यह तरीका अपना लें तो मुझे लगता है कि बच्चों के
ऊपर उपदेशों का अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा और उनके विकास को एक सही दिशा मिल सकेगी।
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डा0 हेमन्त कुमार