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त्याग,सेवा,समर्पण और रचनात्मकता का अनोखा संगम है:साक्षरता निकेतन

मंगलवार, 10 सितंबर 2019


संस्मरण

त्याग,सेवा,समर्पण और रचनात्मकता का
अनोखा संगम है साक्षरता निकेतन
                   
                  
          किसी प्रतिष्ठान से या संस्थान से जुड़ना और वहां के लिए लम्बे  समय तक काम करना अपने आप में एक अलग अनुभव होता है।इस प्रक्रिया में आपके खजाने में खट्टे मीठे दोनों तरह अनुभव आते हैं।मीठे अनुभव आपको जीवन भर खुशी से आह्लादित करते हैं तो खट्टे अनुभव कई तरह की सीख देते हैं।कहीं कहीं जाकर आपको ऐसा भी लगता है कि आप किसी संस्थान में नहीं बल्कि अपने घर परिवार में ही काम करने के लिये आ गये हों।ऐसे ही कुछ सुखद अनुभवों का खजाना मुझे मिला लखनऊ के प्रसिद्ध संस्थान लिट्रेसी हाउस या साक्षरता निकेतन से जुड़ कर।
                 लिट्रेसी हाउस का नाम मैं अपने पिता श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी से बराबर सुनता था।बचपन में भी और बड़े होने पर भी।वो अक्सर इस प्रतिष्ठान की तारीफ़ करते हुये मुझसे कहते भी थे कि कभी लखनऊ जाना तो वहां एक बार लिट्रेसी हाउस जरूर जाना।कारण था कि मेरे पिता श्री भी लिट्रेसी हाउस से बतौर लेखक काफ़ी समय तक जुड़े रहे थे।
                मार्च 1986 में जब मैंने लखनऊ में नौकरी ज्वाइन करने आया तो  मैंने यहां के क्रियेटीविटी और लेखन से जुड़े हर अड्डों पर जाना शुरू किया।इसी क्रम में आकाशवाणी,दूरदर्शन,उ0प्र0हिन्दी संस्थान,संगीत नाटक एकेडेमी,रवीन्द्रालय आदि मुख्य थे।इन सब जगहों पर जाने के दो ही मकसद थे मित्र मंडली का विस्तार और कुछ नये कामों की तलाश।लिट्रेसी हाउस भी जाने का मन बहुत होता पर अपने दफ़्तर(निशातगंज)से दूरी और नया शहर होने के कारण नहीं जा पा रहा था।
                     पर कहते हैं न जहां चाह वहां राह्।मैं आफ़िस में एक दिन बैठा कुछ काम कर ही रहा था कि तत्कालीन निदेशक महोदय ने मुझे बुलाया और कहा कि साक्षरता निकेतन में कठपुतलियों पर आधारित दो दिनों की एक स्क्रिप्ट राइटिंग वर्कशाप है और उसमें मुझे प्रतिभाग करने जाना है।मेरी खुशी का ठिकाना न रहा।और इस तरह से 1986 के आस-पास ही मेरा साक्षरता निकेतन में आना जाना शुरू हो गया।उसी दौरान साक्षरता निकेतन में श्री वीरेन्द्र मुलासी,डा0धरम सिंह,श्री लायक राम मानव,श्री दिनेश सिंह जी जैसे क्रिएटिव महानुभावों से परिचय हुआ।शुरुआती दौर में हुआ यह परिचय आगे चल कर प्रगाढ़ मित्रता में परिवर्तित हो गया।
    तो इस तरह लखनऊ आने के साथ ही साक्षरता निकेतन से हुआ जुड़ाव आज भी जारी है।इस दौरान मैं वहां कई क्रिएटिव राइटिंग वर्कशाप्स,सेमिनार्स,संगोष्ठियों में कई-कई दिन के लिये जाने लगा।वहां से जुड़ी मेरी ढेरों यादें हैं।कई तरह के अनुभव हैं।जिनको अगर कलमबद्ध करूं तो एक लम्बी संस्मरणात्मक किताब बन सकती है।
   उन्हीं में से कुछ घटनाओं को मैं यहां साझा करने की कोशिश कर रहा हूं।
    0 सेवा और समर्पण का अद्भुत भाव : सबसे पहली बात तो ये कि वहां के हर अधिकारी और कर्मचारी में आगन्तुक रचनाकारों के प्रति सम्मान,सेवा और समर्पण का जो भाव मौजूद है वैसा कम ही संस्थानों में देखने को मिलता है।कोई भी वर्कशाप हो,किसी भी स्तर का प्रतिभागी वहां आया हो उसको जितना सम्मान इस संस्थान में मिलता है उसे देख कर ही आश्चर्य होता है क्या यहां के अधिकारी कर्मचारी इसी दुनिया के मनुष्य हैं या देव लोक के प्राणी।चाहे प्रतिभागियों का स्वागत सत्कार हो,उनके जलपान,भोजन की बात हो या उन्हें ठहराने की व्यवस्था---किसी भी प्रतिभागी को कभी कोई तकलीफ़ होती मैंने आज तक नहीं देखी।कम से कम मैं तो ये बात दावे के साथ कह सकता हूं कि बतौर रचनाकार मुझे जो सम्मान,जो सहृदयता वहां मिली कम ही जगह मिली है।प्रतिभागी के आने से लेकर वापस जाने तक संस्थान के कर्मचारी,अधिकारी बराबर प्रतिभागी की सेवा में लगे रहते हैं।
              शुरुआती दौर की एक वर्कशाप की एक घटना मैं बताऊं।शायद पांच दिन की वर्कशाप थी।पहले दिन वर्कशाप समाप्त होने के बाद मैं अपने मित्र श्री मधुकर जी के साथ जब निकलने को हुआ तो देखा श्री वीरेन्द्र मुलासी,डा0धरम सिंह,श्री लायक राम मानव,श्री दिनेश सिंह कमरों से निकलकर हमें स्कूटर स्टैण्ड तक छोड़ने आये हैं।मुझे बड़ा अश्चर्य हुआ।अगले दिन फ़िर जब हम निकले तो फ़िर चारों लोग वहां मौजूद–और बाकायदा हाथ जोड़ कर।मुझसे रहा नहीं गया।मैंने मुलासी जी से पूछ ही लिया कि भाई साहब ये रोज हम लोगों को स्टैण्ड तक छोड़ने आप अपने काम छोड़ कर क्यूं आते हैं---क्या हम कोई मेहमान हैं?तो मुलासी जी ने जो जवाब दिया उसे सुनकर मेरे भीतर  साक्षरता निकेतन और वहां के लोगों के प्रति एक अजीब सा श्रद्धा भाव जागृत हो गया जो आज भी बरकरार है---कि क्या आज भी धरती पर ऐसी सज्जनता और सेवा भाव मौजूद है?उन्होंने कहा कि—“हेमन्त जी आप लोग हमारे लिये सिर्फ़ मेहमान रचनाकार ही नहीं बल्कि देवतातुल्य हैं—और ये बात मैं नहीं कह रहा – ये बात इस निकेतन की भूमि कहला रही मुझसे।इस भूमि ने ही हमें ऐसे संस्कार दिये हैं।“मैं अवाक हो कर मुलासी जी का चेहरा देखता रह गया।
                                 

0रचनात्मक ऊर्जा निकेतन के कण कण में विद्यमान :एक जो सबसे बड़ी बात साक्षरता निकेतन की मुझे आकर्षित करती रही है वो है संस्थान की लोकेशन,परिसर और वहां का मनोरम और प्राकृतिक वातावरण।शिक्षा से जुड़े अन्य कई संस्थानों में गया हूं लेकिन इस संस्थान में प्रवेश करते ही दिल के अन्दर जो पवित्रता का भाव प्रवेश करता रहा है वो अनुभूति मुझे किसी अन्य संस्थान परिसर में जाने पर आज तक नहीं हुयी।संस्थान के प्रवेश द्वार की ग्रामीण परिवेश जैसी फ़ूस से की गयी सजावट,सामने दिखता प्रार्थना भवन,दाहिनी तरफ़ बना कठपुतली विभाग,बायीं ओर बना जलपान गृह,और आगे बढ़ने पर जनशिक्षण संस्थान भवन,स्टेट रिसोर्स सेण्टर का भवन---और इन सबके चारों ओर पेड़ों की कतारें और फ़ूलों की क्यारियां सब कुछ आपको अभीभूत करता है।-----ऐसा लगता है अदरणीया मैडम वेल्दी फ़िशर जी ने रचनाकारों के लिये असली भारत का गांवों का परिवेश यहां उठा कर रख दिया हो।---और इन सबसे भी बढ़कर इस संस्थान की मेरी सबसे प्रिय जगह “टैगोर हाल”---जहां बैठकर वर्कशाप की सामग्री तैयार करने के साथ ही मैंने अपनी “ओ मां”,
“कहां खो गया बचपन”, “कटघरे के भीतर” जैसी अच्छी कविताएं और “अकेला चल चला चल” जैसी कहानी लिखी है।इस “टैगोर हाल” के बारे में तो मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि आप रचनाकार नहीं भी हैं और वहां जा कर एक दो घण्टे बैठ जायें तो निश्चित ही आपकी कलम से भी एकाध छोटी-मोटी कहानी,कविता या गीत सादे पन्नों पर उतर ही आयेगी।
     एक वर्कशाप में तो कमाल ही हो गया।सुबह से ही हम लोग कुछ लिखने का मूड और माहौल बना नहीं पा रहे थे।डा0धरम सिंह जी मुझे और श्री मधुकर जी को दो बार पान भी खिला चुके थे।और पूछ भी रहे थे कि, “भैया तुम पचे कुछ लिखिहौ कि खाली हियां घूमै आये हो?” मैंने कहा कि “आप तो कहते थे कि यहां मोर आते हैं—मोर को बुलाइए और हमारी कलम चालू।” “ल्यो अबहीं बुलाय देत हैं---“ अभी डा0धरम सिंह जी कह ही रहे थे कि एक मोर टैगोर हाल के दरवाजे पर हाजिर।---थोड़ी देर वो सबको देखता रहा फ़िर कूद कर मेज पर।और बड़े आराम से दस पन्द्रह मिनट वहां बैठा रहा।और सचमुच उसके आते ही हम लोगों का जबर्दस्त मूड बना लिखने का।हमने शाम तक एक-एक साक्षरता गीत लिख दिया।
             तो ऐसा सृजनात्मक ऊर्जा से भरपूर है पूरे साक्षरता निकेतन का और खासकर टैगोर हाल का माहौल।ऐसे में भला कौन नहीं जाना चाहेगा वहां।बल्कि मैं तो कई बार श्री वीरेन्द्र मुलासी जी से कहता भी था कि मुझे यहां के हास्टल में एकाध कमरा दिलवा दीजिये मैं कुछ दिनों के लिये छुट्टी लेकर यहीं आ जाऊं और ढेर सारी रचनायें लिख कर साथ ले जाऊं।
0मैडम वेल्दी फ़िशर का कमरा : इस संस्थान की जनक मैडम वेल्दी फ़िशर जी इसी परिसर में रहती भी थीं।संस्थान के पीछे की तरफ़ उनका आवास बना है।मुझे इस बात का पता नहीं था।एक वर्कशाप के बीच में किसी दिन श्री मुलासी जी ने सभी प्रतिभागियों से कहा कि आइये चलिये आप लोगों को इस पूरे संस्थान की जनक वेल्दी फ़िशर जी का निवास दिखा दें।हम लोग चल पड़ेउनके निवास पर पहुंचने पर तो मैं दंग रह गया कि—इतनी दूर से भारत आकर यहां साक्षरता की अलख जगाने के लिये अपना वतन छोड़ देने वाली ये महिला—इतने साधारण ढंग से रहती थीं।–उनका बहुत छोटा सा निवास,उनका छोटा सा अध्ययन कक्ष,कमरे सामान सभी कुछ उनकी सादगी,त्याग और समर्पण की भावना की गवाही देते हैं।शायद मैडम वेल्दी फ़िशर जी का ही पूरा असर आज भी साक्षरता निकेतन के कण-कण में बसा है तभी तो यहां के लोगों में भी आज वही मानवीय गुण विद्यमान हैं।
0कर्मठता,ईमानदारी और श्रद्धा की भूमि: साक्षरता निकेतन के परिसर में जब आप प्रवेश करते हैं तो सबसे सामने ही आपको प्रार्थना भवन दिखाई देता है।जब मैं पहली बार वहां गया था तो मैंने डा0धरम सिंह जी से पूछा था कि क्या यहां कोई प्रार्थना या सत्संग भी होता है ?तो डा0धरम सिंह ने मुझसे कहा कि कल सुबह आठ बजे तक आ जाओ तो देखो यहां क्या क्या होता है।मैंने भी मजाक में ही कहा कि जब वर्कशाप दस बजे कि है तो क्या मैं यहां आठ बजे घास छीलने आऊंगा?तो धरम सिंह जी ने उसी टोन में मुझसे कहा कि हां हम लोग घास छीलते हैं तुम्हें भी छीलनी है घास तो आ ही जाओ कल जल्दी उठ के
        खैर अगले दिन मैं सुबह घर से जल्दी निकल कर आठ बजे तक साक्षरता निकेतन पहुंच गया।और वहां हो रहे काम को देख कर तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा।वहां प्रार्थना भवन के सामने श्री मुलासी जी,डा0धरम सिंह,श्री दिनेश जी,श्री लायक राम मानव और कई अन्य कर्मचारी अधिकारी इधर-उधर पड़े तिनकों,कागज के कुछ टुकड़ों को इकट्ठा कर रहे थे।कुछ लोग खुरपियों से घास साफ़ कर रहे थे।धरम सिंह के इशारे पर मैंने भी कुछ देर घास छीली।---फ़िर थोड़ी देर बाद सभी लोग हाथ धोकर प्रार्थना सभा में पहुंचे और वहां बाकायदा प्रार्थना हुयी।---फ़िर सभी लोग अपने अपने काम पर।
      ये पूरा घटनाक्रम देखकर मुझे लगा कि मैं किसी संस्थान में नहीं बल्कि किसी आश्रम में आया हूं।और यहां का हर कर्मचारी अधिकारी एक सरल साधु है।सचमुच उसके बाद से मैं जितनी बार भी वहां गया मेरी श्रद्धा साक्षरता निकेतन के लिये एक आश्रम जैसी ही बढ़ती गयी।और आज भी बरकरार है।
              मुझे आज भी लगता है कि मुझे यदि साक्षरता निकेतन परिसर में एक दो माह लगातार रहने का अवसर मिल जाये तो निश्चित रूप से मैं दो महीनों में कुछ नया,अनोखा और अभूतपूर्व सृजन तो कर ही दूंगा।
            मुझे यह भी लगता है कि इतने मनोरम प्राकृतिक वाता्वरण में जिस परिकल्पना को साकार करने के लिये मैडम वेल्दी फ़िशर ने आश्रम जैसे माहौल वाले इस संस्थान को जन्म दिया था-----उसे मेट्रो कल्चर की भेंट नहीं चढ़ने देना चाहिये और इसे पूर्ण शासकीय संरक्षण देकर वेल्दी फ़िशर जी के सपनों को साकार करना चाहिये।
                           0000
डा0हेमन्त कुमार
मोबाइल-09451250698

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संस्मरण---जिन्होंने मुझे रोशनी दिखाई----।

गुरुवार, 5 सितंबर 2019


जिन्होंने मुझे रोशनी दिखाई----।
                                        
डा0रघुवंश जी 
              
 
 हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी कोई न कोई ऐसा शख्स जरूर आता है जो उसकी पूरी जीवन धारा या पूरा जीवन दर्शन ही बदल देता है।वैसे तो इस बदलाव का प्रेरक कोई भी हो सकता है।मां-पिता,भाई-बहन,मित्र,शिक्षक यहां तक कि कोई अनजान व्यक्ति भी।लेकिन अक्सर बदलाव की इस प्रेरणा में शिक्षकों का बहुत बड़ा योगदान रहता है।क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने जीवन का सबसे सुनहरा यानि बचपन का समय दो ही लोगों के साथ सबसे ज्यादा बिताता है।वो हैं मां-पिता या फ़िर शिक्षक।स्कूल के समय के पहले और बाद का सारा समय अपने मां-पिता के साथ और स्कूल का समय शिक्षक के साथ।इन्हीं लोगों के द्वारा सिखाई गयी बातें बच्चे के पूरे जीवन को प्रभावित करती हैं।
         अगर मैं खुद अपने शिक्षकों की बात करूं तो मेरे जीवन को बदलने वाले दो शिक्षक हैं।पहले स्व0डा0अश्विनी कुमार चतुर्वेदीराकेशऔर दूसरे स्व0डा0रघुवंश।
मेरा सौभाग्य कि मैं इलाहाबाद युनिवर्सिटी में दोनों ही शिक्षकों का छात्र रहा हूं।डा0 राकेश चतुर्वेदी जी ने मुझे साहित्य लेखन की ओर प्रेरित किया और डा0रघुवंश जी ने मुझे जीवन में साहस,मेहनत और ईमानदारी का पाठ पढ़ाया।
   पहले मैं बात करूंगा डा0राकेश चतुर्वेदी जी की।बात लगभग 1976 की है।मैंने बस इलाहाबाद युनिवर्सिटी में बी0ए0 में दाखिला लिया ही था।और दूसरे छात्रों की ही तरह मेरा भी मकसद बी0ए0 करके प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना था।ड़ा0राकेश चतुर्वेदी जी मुझे हिन्दी में भाषा विज्ञान पढ़ाते थे।क्लास शुरू होने पर पहले दिन सबसे उन्होंने औपचारिक परिचय लेना शुरू किया।मेरा भी नम्बर आया तो मैंने अपना नाम बता दिया।उन्होंने पूछा कि हिन्दी पढ़ने के अलावा कभी कुछ लिखा भी है?(ये प्रश्न वो सबसे पूछ रहे थे पर सभी का जवाब नकारात्मक था।)मैंने यूं ही कह दिया कि हां कहानियां लिखने की कोशिश करता  हूं।डा0 राकेश जी काफ़ी खुश हुये।उन्होंने कहा चलो कोई तो निकला लिखने पढ़ने वाला।उन्होंने मुझे अगले दिन शाम को चाय पीने के लिये अपने घर बुलाया और यह भी हिदायत दी कि जो कुछ भी लिखा है साथ में लेते आना।अब मेरी हालत खराब।अभी तक मैंने कोई कहानी तो क्या छोटी सी कविता नहीं लिखी थी।खैर---रात में जाग कर काफ़ी सोच विचार कर मैंने अपनी डायरी में एक कहानी लिख मारी।आखिर सिर ओखली में तो मैंने ही डाला था।कहानी उस समय के अनुकूल थी।संक्षेप में कथानक ये था कि एक बेरोजगार बी0ए0पास युवक नौकरी की खोज में भाग कर बम्बई जाता है और काफ़ी असफ़लताएं झेलने के बाद एक दिन हत्या करके जेल पहुंच जाता है।
       युनिवर्सिटी के पास ही डा0राकेश जी का आवास था।अगले दिन मैं अपनी डायरी लेकर डा0राकेश जी के घर पहुंच गया।उन्होंने मेरे स्वागत का पूरा इन्तजाम किया था।चाय,पकौड़ी,मिठाई।मैंने जम कर नाश्ता किया और चाय पी।फ़िर बारी आई कहानियों की।मैंने डरते-डरते डायरी उन्हें पकड़ा दी।और चुपचाप बैठ गया।मन ही मन डर रहा था कि अब डांट पड़ेगी।पर राकेश जी ने तन्मयता के साथ दस-पन्द्रह मिनट में कहानी खतम कर दी।और मुझसे मुखातिब हुये।
           हां तो बाबू हेमन्त कुमार जीआगे क्या इरादा है?डा0राकेश जी ने मुस्कुराकर पूछा।
  सर---आगे कम्पटीशन---और ये कहानी तो बस ऐसे ही----।मेरी हालत खराब।
कल ही लिखी है न?
सर---क्या बताऊंमैंने तो बस क्लास में वाह वाही पाने के लिये कह दिया था---कभी कहानी लिखी नहीं थी---इसी लिये कल रात जाग कर लिखी।मैं लगभग हकलाते हुये बोला।
    बर्खुरदारये बताओ इतनी शानदार कहानी लिखी है तुमने ---और वो भी पहली कहानी।और ऊपर से घबरा रहे।क्यों तुम कम्पटीशन देने के चक्कर में हो?कहानियां क्यों नहीं लिखते भाई?डा राकेश की बातों पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।मैं अपलक उनकी ओर देख रहा था।
        देखो मैं ये नहीं कह रहा कि तुम कम्पटीटिव एक्जाम्स मत दो तैयारी करो--पढ़ो लिखो--लेकिन तुम एक अच्छे कहानीकार भी बन सकते हो।तुम्हारे पास शब्द,भाषा,विचार,भावनाएं सभी गुण हैं एक कहानीकार के।---और इसे ले जाओ थोड़ा और संशोधन करके युनिवर्सिटी की मैगज़ीन में दे देना।कहकर उठते हुये उन्होंने मुझे डायरी पकड़ा दी।
   मेरी वो कहानी जंजीरें युनिवर्सिटी पत्रिका में तो छपी ही उसे युनिवर्सिटी की ही एक कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कार भी मिला।फ़िर तो मेरे पंख से लग गये।रोज एक नयी कहानी।और डा0राकेश जी का साथ।एम0ए0 फ़ाइनल में आने के पहले मेरा एक बाल कहानी संग्रह आ चुका था।और मैंने इसी दिशा में आगे बढ़ना अपना लक्ष्य बना लिया।
         मेरे दूसरे प्रेरक थे मेरे रिसर्च गाइड डा0 रघुवंश।मैंने 1979 में रघुवंश जी के निर्देशन में रिसर्च ज्वाइन किया था।रघुवंश जी हाथों की दिक्कत(उनके हाथ बचपन से ही बहुत पतले और अंदर की ओर मुड़े हुए थे।)के कारण अक्सर अपनी यात्राओं के दौरान मुझे सहायक के रूप में साथ ले जाते थे।
       मैं अक्सर यात्राओं के दौरान अपना भारी  सामान खुद उठाने के बजाए कुलियों के भरोसे रहता था।क्योंकि मुझे लगता था कि जब यू0जी0सी0वाले पैसा दे रहे तो अपने सामान मैं क्यों उठाऊं।पर रघुवंश जी के साथ की गयी एक यात्रा ने इस मामले में मेरी विचारधारा ही बदल दी।
       मुझे रघुवंश जी के साथ इलाहाबाद से गोरखपुर किसी सेमिनार में जाना था।उन दिनों भटनी से आगे की यात्रा छोटी लाइन(नैरो गेज)की ट्रेन से होती थी।ट्रेन बदलने हमें दूसरे प्लेटफ़ार्म पर जाना था।सिर्फ़ दो मिनट थे ट्रेन छूटने में।कुली दिख नहीं रहे थे।मैंने कहा सर ट्रेन छूट जायेगी क्या?रघुवंश जी ने कहा ---अरे ऐसे कैसे छूटेगी ट्रेन।अभी देखो ---।और अपने मुड़े हुये हाथों में ही एक में बैग और एक में छोटी अटैची उठा कर रघुवंश जी दौड़ पड़े दूसरे प्लेटफ़ार्म की ओर---उनकी इस हिम्मत और जज्बे को देख मुझे खुद पर बड़ी शर्म आयी।एक वृद्ध और हाथों से अशक्त व्यक्ति मेरे सामने सामान उठा कर दौड़ रहा और मैं कुली का इन्तजार कर रहा हूं।मैंने खुद को धिक्कारा और जल्दी से मैं भी पीछे पीछे दो भारी वाली अटैचियां लेकर दौड़ा---और अन्ततः हमें गाड़ी मिल गयी।उसी दिन से मैंने निर्णय किया कि अपने सारे काम खुद करूंगा।किसी के भरोसे नहीं रहूंगा।
     वो दिन था और आज का दिन मैं यथा संभव अपने सारे काम खुद ही करने की कोशिश करता हूं।यहां तक कि अपने घर का फ़्लश बेसिन तक खुद साफ़ करता हूं।और इससे मुझे जो आत्म सन्तोष मिलता है उसे मैं शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता।
          मैं आज जो कुछ भी हूं उसके प्रेरक आदरणीय डा0राकेश चतुर्वेदी और डा0रघुवंश जी दोनों ही लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा दी गयी सीखें आज भी मुझे प्रेरणा देती हैं।दोनों ही गुरुओं को मेरा हार्दिक नमन और अभिनन्दन।
     00000
डा0हेमन्त कुमार

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. ‘देख लूं तो चलूं’ "आदिज्ञान" का जुलाई-सितम्बर “देश भीतर देश”--के बहाने नार्थ ईस्ट की पड़ताल “बखेड़ापुर” के बहाने “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक। “मेरे आंगन में आओ” ११मर्च २०१९ ११मार्च 1mai 2011 2019 अंक 48 घण्टों का सफ़र----- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अण्डमान का लड़का अनुरोध अनुवाद अभिनव पाण्डेय अभिभावक अम्मा अरुणpriya अर्पणा पाण्डेय। अशोक वाटिका प्रसंग अस्तित्व आज के संदर्भ में कल आतंक। आतंकवाद आत्मकथा आनन्द नगर” आने वाली किताब आबिद सुरती आभासी दुनिया आश्वासन इंतजार इण्टरनेट ईमान उत्तराधिकारी उनकी दुनिया उन्मेष उपन्यास उपन्यास। उम्मीद के रंग उलझन ऊँचाई ॠतु गुप्ता। एक टिपण्णी एक ठहरा दिन एक तमाशा ऐसा भी एक बच्चे की चिट्ठी सभी प्रत्याशियों के नाम एक भूख -- तीन प्रतिक्रियायें एक महत्वपूर्ण समीक्षा एक महान व्यक्तित्व। एक संवाद अपनी अम्मा से एल0ए0शेरमन एहसास ओ मां ओडिया कविता ओड़िया कविता औरत औरत की बोली कंचन पाठक। कटघरे के भीतर कटघरे के भीतर्। कठपुतलियाँ कथा साहित्य कथावाचन कर्मभूमि कला समीक्षा कविता कविता। कविताएँ कवितायेँ कहां खो गया बचपन कहां पर बिखरे सपने--।बाल श्रमिक कहानी कहानी कहना कहानी कहना भाग -५ कहानी सुनाना कहानी। काफिला नाट्य संस्थान काल चक्र काव्य काव्य संग्रह किताबें किताबों में चित्रांकन किशोर किशोर शिक्षक किश्प्र किस्सागोई कीमत कुछ अलग करने की चाहत कुछ लघु कविताएं कुपोषण कैंसर-दर-कैंसर कैमरे. कैसे कैसे बढ़ता बच्चा कौशल पाण्डेय कौशल पाण्डेय. कौशल पाण्डेय। क्षणिकाएं क्षणिकाएँ खतरा खेत आज उदास है खोजें और जानें गजल ग़ज़ल गर्मी गाँव गीत गीतांजलि गिरवाल गीतांजलि गिरवाल की कविताएं गीताश्री गुलमोहर गौरैया गौरैया दिवस घर में बनाएं माहौल कुछ पढ़ने और पढ़ाने का घोसले की ओर चिक्कामुनियप्पा चिडिया चिड़िया चित्रकार चुनाव चुनाव और बच्चे। चौपाल छिपकली छोटे बच्चे ---जिम्मेदारियां बड़ी बड़ी जज्बा जज्बा। जन्मदिन जन्मदिवस जयश्री राय। जयश्री रॉय। जागो लड़कियों जाडा जात। जाने क्यों ? जेठ की दुपहरी टिक्कू का फैसला टोपी ठहराव ठेंगे से डा० शिवभूषण त्रिपाठी डा0 हेमन्त कुमार डा०दिविक रमेश डा0दिविक रमेश। डा0रघुवंश डा०रूप चन्द्र शास्त्री डा0सुरेन्द्र विक्रम के बहाने डा0हेमन्त कुमार डा0हेमन्त कुमार। डा0हेमन्त कुमार्। डॉ.ममता धवन डोमनिक लापियर तकनीकी विकास और बच्चे। तपस्या तलाश एक द्रोण की तितलियां तीसरी ताली तुम आए तो थियेटर दरख्त दरवाजा दशरथ प्रकरण दस्तक दिशा ग्रोवर दुनिया का मेला दुनियादार दूरदर्शी देश दोहे द्वीप लहरी नई किताब नदी किनारे नया अंक नया तमाशा नयी कहानी नववर्ष नवोदित रचनाकार। नागफ़नियों के बीच नारी अधिकार नारी विमर्श निकट नियति निवेदिता मिश्र झा निषाद प्रकरण। नेता जी नेता जी के नाम एक बच्चे का पत्र(भाग-2) नेहा शेफाली नेहा शेफ़ाली। पढ़ना पतवार पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप पत्रिका पत्रिका समीक्षा परम्परा परिवार पर्यावरण पहली बारिश में पहले कभी पहले खुद करें–फ़िर कहें बच्चों से पहाड़ पाठ्यक्रम में रंगमंच पार रूप के पिघला हुआ विद्रोह पिता पिता हो गये मां पिताजी. पितृ दिवस पुण्य तिथि पुण्यतिथि पुनर्पाठ पुरस्कार पुस्तक चर्चा पुस्तक समीक्षा पुस्तक समीक्षा। पुस्तकसमीक्षा पूनम श्रीवास्तव पेड़ पेड़ बनाम आदमी पेड़ों में आकृतियां पेण्टिंग प्यारा कुनबा प्यारी टिप्पणियां प्यारी लड़की प्यारे कुनबे की प्यारी कहानी प्रकृति प्रताप सहगल प्रतिनिधि बाल कविता -संचयन प्रथामिका शिक्षा प्रदीप सौरभ प्रदीप सौरभ। प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक शिक्षा। प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव। प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव. प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव। प्रेरक कहानी फ़ादर्स डे।बदलते चेहरे के समय आज का पिता। फिल्म फिल्म ‘दंगल’ के गीत : भाव और अनुभूति फ़ेसबुक बंधु कुशावर्ती बखेड़ापुर बचपन बचपन के दिन बच्चे बच्चे और कला बच्चे का नाम बच्चे का स्वास्थ्य। बच्चे पढ़ें-मम्मी पापा को भी पढ़ाएं बच्चे। बच्चों का विकास और बड़ों की जिम्मेदारियां बच्चों का आहार बच्चों का विकास बच्चों को गुदगुदाने वाले नाटक बदलाव बया बहनें बाघू के किस्से बाजू वाले प्लाट पर बादल बारिश बारिश का मतलब बारिश। बाल अधिकार बाल अपराधी बाल दिवस बाल नाटक बाल पत्रिका बाल मजदूरी बाल मन बाल रंगमंच बाल विकास बाल साहित्य बाल साहित्य प्रेमियों के लिये बेहतरीन पुस्तक बाल साहित्य समीक्षा। बाल साहित्यकार बालवाटिका बालवाणी बालश्रम बालिका दिवस बालिका दिवस-24 सितम्बर। बीसवीं सदी का जीता-जागता मेघदूत बूढ़ी नानी बेंगाली गर्ल्स डोण्ट बेटियां बैग में क्या है ब्लाइंड स्ट्रीट ब्लाग चर्चा भजन भजन-(7) भजन-(8) भजन(4) भजन(5) भजनः (2) भद्र पुरुष भयाक्रांत भारतीय रेल मंथन मजदूर दिवस्। मदर्स डे मनीषियों से संवाद--एक अनवरत सिलसिला कौशल पाण्डेय मनोविज्ञान महुअरिया की गंध मां माँ मां का दूध मां का दूध अमृत समान माझी माझी गीत मातृ दिवस मानस मानस रंजन महापात्र की कविताएँ मानस रंजन महापात्र की कवितायेँ मानसी। मानोशी मासूम पेंडुकी मासूम लड़की मुंशी जी मुद्दा मुन्नी मोबाइल मूल्यांकन मेरा नाम है मेराज आलम मेरी अम्मा। मेरी कविता मेरी रचनाएँ मेरे मन में मोइन और राक्षस मोनिका अग्रवाल मौत के चंगुल में मौत। मौसम यात्रा यादें झीनी झीनी रे युवा रंगबाजी करते राजीव जी रस्म मे दफन इंसानियत राजीव मिश्र राजेश्वर मधुकर राजेश्वर मधुकर। राधू मिश्र रामकली रामकिशोर रिपोर्ट रिमझिम पड़ी फ़ुहार रूचि लगन लघुकथा लघुकथा। लड़कियां लड़कियां। लड़की लालटेन चौका। लिट्रेसी हाउस लू लू की सनक लेख लेख। लेखसमय की आवश्यकता लोक चेतना और टूटते सपनों की कवितायें लोक संस्कृति लोकार्पण लौटना वनभोज वनवास या़त्रा प्रकरण वरदान वर्कशाप वर्ष २००९ वह दालमोट की चोरी और बेंत की पिटाई वह सांवली लड़की वाल्मीकि आश्रम प्रकरण विकास विचार विमर्श। विश्व पुतुल दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस. विश्व रंगमंच दिवस व्यंग्य व्यक्तित्व व्यन्ग्य शक्ति बाण प्रकरण शब्दों की शरारत शाम शायद चाँद से मिली है शिक्षक शिक्षक दिवस शिक्षक। शिक्षा शिक्षालय शैलजा पाठक। शैलेन्द्र श्र प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव स्मृति साहित्य प्रतियोगिता श्रीमती सरोजनी देवी संजा पर्व–मालवा संस्कृति का अनोखा त्योहार संदेश संध्या आर्या। संवाद जारी है संसद संस्मरण संस्मरण। सड़क दुर्घटनाएं सन्ध्या आर्य सन्नाटा सपने दर सपने सफ़लता का रहस्य सबरी प्रसंग सभ्यता समय समर कैम्प समाज समीक्षा। समीर लाल। सर्दियाँ सांता क्लाज़ साक्षरता निकेतन साधना। सामायिक सारी रात साहित्य अमृत सीता का त्याग.राजेश्वर मधुकर। सुनीता कोमल सुरक्षा सूनापन सूरज सी हैं तेज बेटियां सोन मछरिया गहरा पानी सोशल साइट्स स्तनपान स्त्री विमर्श। स्मरण स्मृति स्वतन्त्रता। हंस रे निर्मोही हक़ हादसा। हाशिये पर हिन्दी का बाल साहित्य हिंदी कविता हिंदी बाल साहित्य हिन्दी ब्लाग हिन्दी ब्लाग के स्तंभ हिम्मत हिरिया होलीनामा हौसला accidents. 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