कुछ लघु कविताएं
सोमवार, 20 फ़रवरी 2012
औरत
हाथ के फफोले
सूख गए सब
आंसुओं के तेजाब में
अब तो ऑंखें
उगलती हैं आग
और हाथ सहलाते हैं
दरांती की पैनी धार को
किसी बलात्कारी को देख कर ।
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कमरे का सन्नाटा
टूटता है कबूतरों की गुटरगूं
और चमगादड़ों की
फ़ड़फ़ड़ाहट से
कमरे में तरतीब से
रखा हर सामान
बयां करता है
कमरे के कभी आबाद
रहने की कहानियां।
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समय
रेत बन कर के समय
मुट्ठियों से गिर रहा
हम घड़ी की सूइयों की
नोक में उलझे रहे।
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स्वतंत्रता
कुछ शब्द
नहीं बंधना चाहते
पंक्तियों में
क्योंकि
वे स्वयं में
एक ग्रन्थ हैं।
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हेमन्त कुमार