पहले कभी-----
शुक्रवार, 4 नवंबर 2011
पहले तो कभी
नहीं हुआ था
ऐसा हादसा
कि सारी गौरैया
हो गयी हों अचानक फ़ुर्र
आंगन से
और गंगा बाबू
बैठे रहे हों मुट्ठी में चावल लिये
आंगन में अकेले
सारा सारा दिन।
पहली बार हुआ
ऐसा कि
इन्कार कर दिया
कौवों ने
श्राद्ध पक्ष में
पितरों को दिया
दूध भात खाने से ।
कि रमुआ कलुआ
और गांव के सारे बच्चे
सारे सारे दिन भटकते रहें
खेतों की मेंड़ पर
वीर बहूटी की तलाश में
और वीर बहूटी उन्हें न मिल पाये
ख्वाबों की भरी बरसात में भी।
ऐसा अजूबा हुआ पहली बार
मेरी जिन्दगी में
कि जाड़ा पूरा का पूरा बीत गया
और काका काकी
सारा सारा दिन दुबके रहे
रजाई के भीतर
एक टुकड़ा धूप
के इन्तजार में।
पहले तो कभी
नहीं हुआ ऐसा हादसा।
करवाचौथ पर
गांव की सारी औरतें
हाथों में पूजा की थालियां लिये
करती रहीं चांद का इन्तजार
और धूल धुयें के गुबार से
ढके चांद ने
टूटने ही नहीं दिया व्रत।
पहले तो कभी
नहीं हुये ऐसे हादसे
कि गांव के सारे पुरुष
हलों की फ़ाल पर साम धराये
करते रहे इन्तजार बादल का
और प्रचण्ड धूप लू के थपेड़ों ने
सावन में भी
नहीं पहुंचने दिया
उन्हें खेतों की मेड़ तक।
पहले तो कभी
नहीं हुये ऐसे हादसे
हमारी धरती पर
फ़िर आज ही क्यों—
जब कि हम
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति
को जानने के लिये
धरती के गर्भ को
मथ रहे हैं
टनों इस्पात से बनी मथानी से
और कर रहे हैं कोशिश
हर उस अज्ञात को
जानने की
जो जड़ देगा एक तमगा और
हमारे सीने पर
एक नई ईजाद का।
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हेमन्त कुमार