गीतांजलि गिरवाल की दो कविताएँ
रविवार, 23 जुलाई 2017
(युवा रंगकर्मी और कवयित्री गीतांजलि
गिरवाल की कविताएँ लीक से एकदम अलग हट कर हैं।आज की नारी के प्रति वो हमेशा चिंतित रहती हैं।नारी
के ऊपर सदियों से पुरुष प्रधान समाज द्वारा जो अत्याचार हो रहे हैं वो उनके अन्तः
को उद्वेलित करते हैं और तीक्ष्ण धारदार शब्दों का आकार लेकर एक कविता का रूप लेते
हैं।गीतांजलि की दो कविताएं आप सभी के लिए
।)
(1) चालीस पार
सुनो प्रिये
क्या संभव है
फिर से तुमसे प्यार करना।
वो रात औ दिन को जीना
माना, अब वो खिंचाव ना
होगा मेरे अंदर, जो तुम्हे
बांधे रखता था पल पल
प्यार की गलियों से निकल, अब भटक रही हूँ
गृहस्थी की गलियों में।
याद आता है, तुम्हारा वो शरारत से देखना
देख कर मुस्काना, कनखियों से इशारा कर
बात बात पर छेड़ना
सिहर जाती थी मैं अंदर तक...
फिर से करना चाहती हूँ तुम से प्यार
क्या हुआ जो हम तुम हो गये चालीस पार।
मेरे प्यार का मतलब नहीं है मात्र सहवास
तुम्हे सामने बैठा कर निहारना चाहती हूँ
घंटो बाते करते रहना चाहती हूं
रूठते मनाते हुये
फिर से देखना चाहती हूँ
तुमको हँसते हुए
जीना चाहती हूँ तुम में
तुम को जीते हुए।
ये आवाज़ की तल्ख़ी
जिम्मेदारियों से है
उलझे बाल सब की तिमारदारियो से है
इससे तुम ना यूं नजरे चुराओ
है आकर्षण आज भी जो जागा था
देख कर तुमको पहली बार
घर में राशन पानी भरती हूं
पर आत्मा से रोज भूखी सोती हूँ।
साथ व स्पर्श के लिए बैचेन रहती हूँ
जानती हूँ तुम हो अपने काम में मशगूल
व्यस्तता का मतलब नहीं है
लापरवाही ये भी जानती हूँ
मुझे तो मात्र चाहिए तुम्हारा साथ
नोकझोंक औ पहले सी मनुहार
रूठने पर मनाना न मानने पर
तुम्हारा प्रणय निवेदन करना।
बहुत याद आता है
दे दो मुझे एक प्लेट नमकीन प्यार
रोज़ शाम की प्याली के साथ
औ मीठा सा नित्य चुम्बन
सुबह की लाली के साथ
लौटा दो मुझे फिर से मेरा संसार
आओ ना.... प्रिये...
फिर से कर लें हम पहला प्यार
क्या हो गया जो हो गए हम चालीस पार।
फिर से तुमसे प्यार करना।
वो रात औ दिन को जीना
माना, अब वो खिंचाव ना
होगा मेरे अंदर, जो तुम्हे
बांधे रखता था पल पल
प्यार की गलियों से निकल, अब भटक रही हूँ
गृहस्थी की गलियों में।
याद आता है, तुम्हारा वो शरारत से देखना
देख कर मुस्काना, कनखियों से इशारा कर
बात बात पर छेड़ना
सिहर जाती थी मैं अंदर तक...
फिर से करना चाहती हूँ तुम से प्यार
क्या हुआ जो हम तुम हो गये चालीस पार।
मेरे प्यार का मतलब नहीं है मात्र सहवास
तुम्हे सामने बैठा कर निहारना चाहती हूँ
घंटो बाते करते रहना चाहती हूं
रूठते मनाते हुये
फिर से देखना चाहती हूँ
तुमको हँसते हुए
जीना चाहती हूँ तुम में
तुम को जीते हुए।
ये आवाज़ की तल्ख़ी
जिम्मेदारियों से है
उलझे बाल सब की तिमारदारियो से है
इससे तुम ना यूं नजरे चुराओ
है आकर्षण आज भी जो जागा था
देख कर तुमको पहली बार
घर में राशन पानी भरती हूं
पर आत्मा से रोज भूखी सोती हूँ।
साथ व स्पर्श के लिए बैचेन रहती हूँ
जानती हूँ तुम हो अपने काम में मशगूल
व्यस्तता का मतलब नहीं है
लापरवाही ये भी जानती हूँ
मुझे तो मात्र चाहिए तुम्हारा साथ
नोकझोंक औ पहले सी मनुहार
रूठने पर मनाना न मानने पर
तुम्हारा प्रणय निवेदन करना।
बहुत याद आता है
दे दो मुझे एक प्लेट नमकीन प्यार
रोज़ शाम की प्याली के साथ
औ मीठा सा नित्य चुम्बन
सुबह की लाली के साथ
लौटा दो मुझे फिर से मेरा संसार
आओ ना.... प्रिये...
फिर से कर लें हम पहला प्यार
क्या हो गया जो हो गए हम चालीस पार।
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(2) पतंग
मोह के धागे मर्यादा के बंधन
सदियों से लिपटे हुए
मुझ में और लिपटते गए
कुछ देहरी पर घिसट गए
कुछ मेरे मन में धंसते गये
और कुछ लटकते रहे मेरी
आत्मा की छाती पर अनचाहे।
दीवार से जब भी टिकना चाहा
वो फाँसी बन मुझे झुलाते रहे
खुली हवा की चाह में अक्सर
मन की पतंग बन उड़ते रहे
बिस्तर की सलवटों में वो
अक्सर मेरे साथ उलझते गए।
कभी मज़बूरी बन कभी लाचारी बन
वो मेरे खून में गहरे रंगते गए
बंधन तोड़ कर जाने की सज़ा में
पाँव को लहूलुहान करते गए
झूठी हंसी में अक्सर वो
चेहरे की लकीर बनते गए
वो मेरी मर्यादा की बेड़ी बन
मेरे वजूद को डसते गये।
सदियों से लिपटे हुए
मुझ में और लिपटते गए
कुछ देहरी पर घिसट गए
कुछ मेरे मन में धंसते गये
और कुछ लटकते रहे मेरी
आत्मा की छाती पर अनचाहे।
दीवार से जब भी टिकना चाहा
वो फाँसी बन मुझे झुलाते रहे
खुली हवा की चाह में अक्सर
मन की पतंग बन उड़ते रहे
बिस्तर की सलवटों में वो
अक्सर मेरे साथ उलझते गए।
कभी मज़बूरी बन कभी लाचारी बन
वो मेरे खून में गहरे रंगते गए
बंधन तोड़ कर जाने की सज़ा में
पाँव को लहूलुहान करते गए
झूठी हंसी में अक्सर वो
चेहरे की लकीर बनते गए
वो मेरी मर्यादा की बेड़ी बन
मेरे वजूद को डसते गये।
०००
कवयित्री –गीतांजलि
गिरवाल
युवा कवयित्री गीतांजलि पिछले 15
सालों से रंगमंच में अभिनय और निर्देशन में सक्रिय हैं।कालेज में पढाई के समय से
ही साहित्य के प्रति रुझान था तभी से लेखन में सक्रिय।ये हमेशा नारी की समस्याओं
उनके जीवन उनके हालातों की चिंता करती हैं।और नारी मन के हर भाव,अंतर्द्वंद्व और पीड़ा
को शब्द देने का प्रयास भी हमेशा करती हैं।