बाल नाटकों क एक अच्छा संकलन: “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक
रविवार, 13 दिसंबर 2015

ऐसे में या तो उन्हें बहुत बड़े
और मोटे साथ ही महंगे बाल नाटकों के संग्रह खरीदने पड़ते हैं या कोई सामान्य नाटक
लेकर ही काम करना पड़ता है।।ऐसी स्थिति में “उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान”(लखनऊ) द्वारा संस्थान द्वारा प्रकाशित की जा रही बाल
पत्रिका “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक निकालना
एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य है।
“बालवाणी”-नवम्बर-दिसम्बर-2015 के इस बाल नाटक विशेषांक में पुराने
और नये मिलाकर कुल बारह रचनाकारों के बाल नाटक शामिल किये गये हैं।“पानी आ गया”(विष्णु प्रभाकर),“भों भों-खों खों”(सर्वेश्वर दयाल सक्सेना),“बाल दिवस की रेल”(अमृत लाल नागर),“अपने अपने छक्के”(के0पी0 सक्सेना),“नन्हा सिपाही”(मनोहर वर्मा),“परिवर्तन”(डा0श्री प्रसाद),“ताबीज”(देवेन्द्र मेवाड़ी),“देश की खातिर”(भगवती प्रसाद द्विवेदी),“वीर बालक भीमा”(प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव),“चिड़ियों का अनशन”(डा0हेमन्त कुमार),“प्रकृति का बदला”(रमाशंकर),“कहां गये रूपये”(ज़ाकिर अली ‘रजनीश’।
“बालवाणी” का यह विशेषांक कई दृष्टियों से
महत्वपूर्ण है।पहली बात तो आज की महंगाई के जमाने में बाल पाठकों,बाल
रंगकर्मियों,नाट्य निर्देशकों को मात्र 15रूपयों(पत्रिका का मूल्य) में एक साथ 12
अच्छे बाल नाटकों का आलेख प्रदान करना।जिसका आनन्द पढ़ने और मंचन दोनों में ही
मिलेगा। दूसरी बात इन नाटकों में विषय की विविधता है।पाठकों रंगकर्मियों को हर तरह
के नाटक मिलेंगे-- मनोरंजक,ऐतिहासिक,वैज्ञानिक सोच पैदा करने वाले,पर्यावरण की
चेतना जगाने वाले आदि।इन नाटकों के चयन में इस बात का पूरी तरह ध्यान रखा गया है
कि नाटक आसानी से मंचित किये जा सकें।उनके मंचन में कोई बहुत बड़ा सेट न लगाना
पड़े,बहुत ज्यादा प्रापर्टीज न इकट्ठी करनी हो।यह इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता
कही जा सकती है।नाटकों में छोटे छोटे संवाद और दृश्य हैं जो कि बच्चों को आसनी से
याद हो सकेंगे।ज्यादातर नाटकों की भाषा सरल और सहज है जिसे समझने में बच्चों को
दिक्कत नहीं आयेगी।
दूसरी बात यह कि इस विशेषांक में
ही आदरणीय अमृत लाल नागर जी का एक बहुत महत्वपूर्ण लेख है—“आओ बच्चो नाटक लिखें।”नागर जी का यह लेख बच्चों को तो
नाटक लिखने की जानकारी देगा ही साथ ही नये बाल नाटक लेखकों का भी मार्ग दर्शन
करेगा।इस लेख में बच्चों के नाटक लिखते समय किन किन बातों पर विशेष ध्यान देना
चाहिये इसका बहुत अच्छा और सम्यक विश्लेषण किया गया है।
“बालवाणी” के इस विशेषांक में एक और भी महत्वपूर्ण और उपयोगी लेख है—“लोरियों की विशिष्ट
रचनाकार शकुन्तला सिरोठिया”—जिसे बन्धु कुशावर्ती ने लिखा है।यह लेख भी इसलिये
महत्वपूर्ण है क्योंकि बच्चों को बाल साहित्य तो हम पठन सामग्री के रूप में देते
हैं।लेकिन बाल पाठक प्रायः उन रचनाकारों से अन्जान रहता है जो उसके मनोरंजन,शिक्षा
और मार्गदर्शन के लिये दिन रात मेहनत करते रहते हैं। अगर बाल साहित्यकारों का
सम्यक परिचय देने वाली एक शृंखला पत्रिका द्वारा शुरू की जाय तो यह एक और सार्थक
प्रयास होगा बाल साहित्य को आगे बढ़ाने की दिशा में।
“बालवाणी” के इस अंक में इन नाटकों लेखों के साथ ही बाल पाठकों के
लिये दिविक रमेश जी और राजेन्द्र निशेश जी के मनोरंजक और प्यारे बालगीत भी
हैं।जिन्हें पढ़ कर हर बच्चे का मन इन्हें एक बार जरूर गुनगुनाएगा।उषा यादव के बाल
नाटक संग्रह “ममता
का मोल” की योगीन्द्र द्विवेदी
द्वारा की गयी समीक्षा बच्चों को कुछ और नाटकों से परिचित कराएगी और उन्हें पढ़ने
के लिये प्रेरित भी करेगी।
एक बात मैं यह भी कहना चाहूंगा कि यदि “बालवाणी” का यह बाल नाटक विशेषांक किसी तरह से हमारे प्रदेश के
समस्त सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पहुंच सके तो इस विशेषांक की सार्थकता और बढ़
जाएगी।
कुल मिलाकर “बालवाणी” का यह बाल नाटक विशेषांक बाल
पाठकों के साथ ही बाल रंग कर्म से जुड़े हर व्यक्ति के लिये काफ़ी उपयोगी साबित
होगा।इस अच्छे और सराहनीय कार्य के लिये उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान को ढेरों बधाई।
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डा0हेमन्त कुमार