सूरज सी हैं तेज बेटियां
बुधवार, 26 जुलाई 2017
(यह लेख मैंने आज
से लगभग 6 साल पहले लिखा था।इन 6 सालों में देश,समाज,अर्थव्यवस्था सभी कुछ में
भारी बदलाव आ चुका है।यहाँ तक की हमारी अर्थव्यवस्था का केंद्र नोट भी बदले जा
चुके हैं।---अगर कुछ नहीं बदला है तो वह है हमारे समाज में लड़कियों की हालत।आज
इतने बदलावों के बावजूद हमारा समाज
बेटियों को उनका हक़ देने को तैयार नहीं।बल्कि इन कुछ वर्षों में कोमल
बेटियों के प्रति समाज में जो दरिंदगी,पाशविकता और बर्बरता पूर्ण घटनाएँ बढ़ी हैं
वो पूरे देश,समाज के लिए शर्म के साथ ही भारी
चिंता का भी विषय हैं।)
सूरज सी हैं तेज
बेटियां ------- ।
डा0हेमन्त कुमार
31 अक्टूबर 2011 का दिन भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिये बहुत खास था।खास
इस लिये कि इसी दिन दुनिया के सात अरबवें शिशु का जन्म हुआ। और वह भी एक लड़की के
रूप में। हमारे अपने प्रदेश लखनऊ के माल कस्बे में पैदा हुयी नरगिस को दुनिया की
सात अरबवां शिशु बनने का गौरव मिला। पूरी
दुनिया से उसे बधाइयां मिली। वह अखबारों,न्यूज चैनल की सुर्खियों में आई। धरती पर
नरगिस का खूब जोरदार स्वागत हुआ।संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून से लेकर
मल्लिका सारा भाई,सुनीता नारायण जैसी हस्तियों और तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं ने
नरगिस के उज्ज्वल भविष्य की कामना की।कुल मिलाकर पूरी दुनिया में उसके पैदा होने
की चर्चा से एक जश्न का माहौल बन गया था।एक तरह से देखा जाय तो दुनिया भर की
बेटियों के लिये यह बहुत ही शुभ अवसर था।
लेकिन अगर हम सच्चाई की बात करें तो हमारे देश में परिदृश्य काफ़ी भयावह है।
हमारे देश और समाज में आज भी लड़कियों को वह दर्जा नहीं मिल सका जो उसे मिलना
चाहिये।दर्जा
मिलना तो दूर इन कुछ वर्षों में कोमल बेटियों के प्रति समाज में जो
दरिंदगी,पाशविकता और बर्बरता पूर्ण घटनाएँ बढ़ी हैं वो पूरे देश,समाज के लिए शर्म
के साथ ही भारी चिंता का भी विषय हैं।
आज भी हमारे देश में कन्या का जन्म एक अभिशाप माना जा रहा है। तमाम सरकारी
कानून और बन्दिशों के बावजूद आज भी लोग पैथालाजी सेन्टर्स पर जाकर भ्रूण लिंग
परीक्षण करवा रहे हैं।आज भी ऐसी बर्बर मानसिकता के लोग हैं जो आनर किलिंग जैसे
पाशविक कारनामे करते हैं। आज भी सड़क पर चलने वाली लड़कियां सुरक्षित नहीं। और इसी
का नतीजा है कि 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में शून्य से छह साल की उम्र
में एक हजार लड़कों के पीछे लड़कियों की संख्या महज 914 हो गयी है।यानि कि लड़के लड़कियों की संख्या में
भी अन्तर बढ़ रहा है।
यहां सवाल यह उठता है कि यह अन्तर कम
कैसे किया जाय?लोगों की मानसिकता कैसे बदली जाय?लड़कियों को उनका हक कैसे दिलवाया
जाय?समाज की सोच कैसे बदली जाय?
हमें इन प्रश्नों का उत्तर सीधे अपने परिवार से ही ढूंढ़ना पड़ेगा।क्योंकि
परिवार हमारे समाज की इकाई है।परिवार से ही लड़की और लड़के के बीच अन्तर की शुरुआत
होती है। और इस अन्तर को खतम करने की
शुरुआत और रास्ते भी हमें अपने परिवार में ही बनाने होंगे। सबसे पहले हमें यह
देखना होगा कि परिवार में हम किस तरह से अपने ही बच्चों में यह भेद पैदा कर रहे
हैं।
- शिशु के जन्म का उत्सव:
आज इतने
शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत हो जाने के बावजूद बहुत से परिवार आपको ऐसे मिलेंगे
जहां बेटे के पैदा होने पर तो अच्छा खासा जश्न मनाया जाता है। लेकिन अगर कहीं गलती
से पैदा होने वाला शिशु बेटी है तो उसके पैदा होने पर जश्न की मात्र औपचारिकता
निभा दी जाती है। घर वालों में वह उत्साह नहीं दिखता जो एक नवागत के आने पर होना
चाहिये।
- खानपान में अन्तर:
मेरे समझ में यह बात आज तक नहीं आई कि परिवार
में खाना खाते समय घर के पुरुषों,लड़कों को खाना पहले क्यों परोसा जाता है और
महिलाओं और लड़कियों को बाद में? अगर लड़कियों को पहले खाना खिला दिया जायेगा तो
क्या खाना खतम हो जायेगा या उसकी महत्ता कम हो जायेगी? घरों की बात छोड़िये अगर आप
शादी विवाह या किसी अन्य समारोह में जायेंगे तो वहां भी यही रीति अपनायी जाती है।जबकि
हम हमेशा नारा देते हैं “लेडीज फ़र्स्ट” का।
इतना ही नहीं अक्सर हम यह मानकर कि लड़कों
को ज्यादा मेहनत करनी है—उन्हें अधिक पोषक खाना
देते हैं और लड़कियों को कम।क्या लड़कियों को पोषण की जरूरत नहीं है?(जबकि सच्चाई यह
है कि लड़कियां ज्यादा शारीरिक श्रम करती हैं,उन्हें भविष्य में मां भी बनना है इस
दृष्टि से भी उन्हें ज्यादा पोषक खाने की जरूरत रहती है।)
- घरेलू काम काज: आज भी हमरे परिवारों की मनसिकता यही बनी है कि घरेलू कामकाज लड़कियों की जिम्मेदारी है। अगर आपका बेटा बेटी दोनों सामने हैं तो हमेशा आप कहते हैं कि “बिटिया जरा एक गिलास पानी पिलाना—न कि बेटा जरा एक गिलास पानी लाओ।” ऐसा हम क्यों करते हैं? यदि पति पत्नी दोनों ही सर्विस करने वाले हैं तो घर लौटने पर पति पत्नी से उम्मीद करता है कि वो एक प्याली चाय बना कर उसे दे। कभी खुद इस दिशा में पहल नहीं करता। घर की सब्जी काटना,बर्तन,चूल्हा चौका,कपड़े धोना इन सबके लिये हमपरिवार की लड़कियों को ही क्यों आदेश देते हैं। लड़कों को क्यों नहीं? हमे अपनी इस सोच और मानसिकता को बदलना ही होगा।
- शिक्षा दीक्षा:
अपने ही बच्चों को शिक्षा देने के
मामले में भी हम हमेशा लड़कों को ही स्कूल भेजने की दिशा में पहल करते हैं। लड़कियों
को बाद में यह अवसर देते हैं।जबकि लड़कियों
को शिक्षित करना ज्यादा जरूरी है। इस दृष्टि से कि उसे तो दो घरों की(आपके और
ससुराल के) की जिम्मेदारियां सम्हालनी हैं। लड़का तो बस आपके ही परिवार को चलायेगा।
यद्यपि इस दिशा में हमारे समाज की सोच थोड़ा तो बदली है लेकिन उतनी नहीं जितनी
बदलनी चाहिये।हमें इस बिन्दु पर खास तौर से अधिक ध्यान देने की जरूरत है। कहीं कहा
भी गया है कि मां ही पहली शिक्षक होती है। यानि कि आपकी लड़की का पढ़ना लिखना इस
लिये भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि वह भविष्य में मां बनेगी। अगर वह
पढ़ी लिखी रहेगी तो आपके ,ससुराल के घर को स्सुव्यव्स्थित रूप से संचालित करने के
साथ ही अपने शिशु को शिक्षित,संस्कारित करके देश को एक अच्छा जिम्मेदार नागरिक भी
प्रदान करेगी।
- खेलकूद एवम अन्य गतिविधियों के अवसर:
आम भारतीय परिवारों में अक्सर यह दृश्य
देखने को मिलता है कि लड़के लड़की दोनों स्कूल से आये।और लड़का तो आते ही बस्ता एक
तरफ़ फ़ेंक कर भागा सीधे मैदान की ओर। दोस्तों के साथ खेलने के लिये। और लड़की बेचारी
बस्ता रखते ही जुट गई मां के साथ घरेलू कामों में हाथ बटाने के लिये। और परिवार का
मुखिया यानि पिता बड़े गर्व से अपने दोस्तों,रिश्तेदारों से यह कहता है कि देखो
मेरी बिटिया कितनी समझदार है जो स्कूल से आते ही घर के काम में जुट गई।बात उनकी
सही है---लड़की तो समझदार है ही। लेकिन क्या उसको खेलने कूदने मनोरंजन का अवसर नहीं
मिलने चाहिये?वो खुद कभी अपनी बिटिया से यह कहते कि बिटिया जाओ तुम भी थोड़ी देर
अपनी सहेलियों के साथ खेल कूद आओ। लाओ घर के काम मैं करवा देता हूं। हमें अपने
परिवारों की यह मानसिकता भी बदलने की जरूरत है।
- कपड़े पहनावे के स्तर पर अन्तर:
कभी भी कोई
त्योहार या उत्सव होगा नये कपड़े बनवाने का अवसर हम परिवार में सबसे पहले लड़के को
देते हैं।लड़कियों का नम्बर बाद में आता है?क्यों भाई?क्या लड़की
को नये कपड़े पहनने का हक नहीं?या उसके कपड़े बनवाने पर आपका खजाना खतम हो जायेगा।आप
पहले लड़कियों के कपड़े बनवाने की बात क्यों नहीं करते?हमें इस सोच को भी बदलने की
आवश्यकता है।
- शादी विवाह का निर्णय:
लड़के लड़की
के अन्तर का सबसे अहम प्रश्न और महत्वपूर्ण बिन्दु है यह हमारे भारतीय समाज का। हम
अपने बेटे की शादी तय करते समय तो लड़की देखने,पसन्द नापसन्द,पढ़ाई लिखाई हर मुद्दे
पर अपने बेटे को अपने साथ रखते हैं।उसकी सलाह लेते हैं।उसके कहने पर कई कई लड़कियों
को देख कर रिजेक्ट कर देते हैं।लेकिन लड़की के लिये?क्या कभी हम शादी विवाह के समय
उसकी पसन्द नापसन्द के बारे में सोचते हैं।या उससे पूछते हैं कि बेटी तुम्हें किस
नौकरी वाले लड़के को अपना जीवन साथी बनाना है?या कि अभी तुम विवाह करने के लिये
मानसिक रूप से तैयार हो?क्या लड़कियों को अपने जीवन साथी के बारे
में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है? क्या वह मात्र एक हाड़ मास की पुतली है
जिसे हम किसी भी व्यक्ति के साथ बांध कर अपने उत्तरदायित्व से छुटकारा पा जाना
चाहते हैं?भारतीय समाज और परिवार की इस सोच को भी बदलना ही होगा। तभी हम लड़कियों
की बराबरी का दर्जा देने के स्वप्न को पूरा कर सकेंगे।
ये कुछ ऐसे महत्वपूर्ण बिन्दु हैं हमारे समाज और परिवार के
जिन पर चिन्तन करके,जिनमें बदलाव लाकर ही हम दुनिया की सात अरबवीं शिशु बनने का
गौरव पाने वाली प्यारी बिटिया नरगिस और उसके जैसी दुनिया भर की सभी बेटियों को उनका
हक़,सम्मान,और समाज में उनकी प्रतिष्ठा को बढ़ा सकेंगे।और कवयित्री पूनम
श्रीवास्तव के गीत बेटियां की इन पंक्तियों को साकार कर सकेंगे।
सूरज से हैं तेज बेटियाँ
चाँद की शीतल
छाँव बेटियाँ
झिलमिल तारों
सी होती हैं
दुनिया को
सौगात बेटियाँ
कोयल की
संगीत बेटियाँ
पायल की
झंकार बेटियाँ
सात सुरों की
सरगम जैसी
वीणा की
वरदान बेटियाँ
घर की हैं
मुस्कान बेटियाँ
लक्ष्मी का
हैं मान बेटियाँ
माँ बापू और
कुनबे भर की
सचमुच होती
जान बेटियाँ।
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डा0हेमन्त कुमार