गजल
मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
धूप के छौने भी अब तो ठंढ से शर्मा रहे
आग से दहके थे उपवन राख बनते जा रहे।
स्याह चादर में लिपटते शब्द ढलते जा रहे
गीत के मुखड़े निकल कर धुंध बनते जा रहे।
बंद मुट्ठी से फ़िसल कर छंद निकले जा रहे
शीत के पहरे में बैठे हम तो बस बल खा रहे।
मौन पसरा गांव में जो सुर सभी शरमा रहे
सर्द कुहरे को चिढ़ाते फ़ूल सब इठला रहे।
धुंध का कैदी है सूरज सोच सब घबरा रहे
गोठियों की आग से ही मन को सब बहला रहे।
०००
आग से दहके थे उपवन राख बनते जा रहे।
स्याह चादर में लिपटते शब्द ढलते जा रहे
गीत के मुखड़े निकल कर धुंध बनते जा रहे।
बंद मुट्ठी से फ़िसल कर छंद निकले जा रहे
शीत के पहरे में बैठे हम तो बस बल खा रहे।
मौन पसरा गांव में जो सुर सभी शरमा रहे
सर्द कुहरे को चिढ़ाते फ़ूल सब इठला रहे।
धुंध का कैदी है सूरज सोच सब घबरा रहे
गोठियों की आग से ही मन को सब बहला रहे।
०००
हेमन्त कुमार