पुस्तक समीक्षा --दृष्टिबाधितों के अंधेरों पर रोशनी डालता उपन्यास----ब्लाइंड स्ट्रीट
शुक्रवार, 11 जून 2021
प्रकाशक-नई किताब प्रकाशन
1/11829,ग्राउंड फ्लोर,
पंचशील गार्डेन,नवीन शाहदरा,
दिल्ली-110032
हमारी यह दुनिया बहुत खूबसूरत है।रंग बिरंगी है।चारों ओर
प्रकृति के अद्भुत नज़ारे बिखरे हैं।खूबसूरत पहाड़ हैं,फूलों की रंगीन सुन्दर
वादियाँ हैं।सूर्योदय सूर्यास्त के अद्भुत नज़ारे हैं---और भी बहुत कुछ है जिन्हें
हम अपनी आँखों से देखते और सराहते हैं।लेकिन इस दुनिया में ऐसे भी लाखों लोग हैं
जो इस खूबसूरत दुनिया को कभी नहीं देख सकते।जिनकी दुनिया में लाल,पीला, नीला,हरा
कोई रंग नहीं है।उनकी दुनिया में सिर्फ एक रंग है---काला स्याह रंग।रोशनी की जगह सिर्फ और सिर्फ स्याह अँधेरा है।वरिष्ठ
पत्रकार,स्तंभकार,छायाकार और उपन्यासकार प्रदीप सौरभ का नया उपन्यास “ब्लाइंड
स्ट्रीट” हमारे समाज के ऐसे ही हजारों लाखों दृष्टि बाधित व्यक्तियों के जीवन की
गाथा है।
यद्यपि इस विषय
पर पहले बालीवुड में फ़िल्में भी बनी हैं
लेकिन उन फिल्मों में सिर्फ किसी एक नायक नायिका के माध्यम से दृष्टि बाधितों के
जीवन के किसी एक पहलू को देखने या दिखाने की कोशिश की गयी है।दूसरी बात फिल्म की
अपनी सीमाएं भी होती हैं।फ़िल्में दर्शकों को किसी विषय की तह तक नहीं पहुंचा
सकती।जबकि किसी उपन्यासकार के लिए किसी विषय पर काम करने के लिए एक बहुत बड़ा फलक मौजूद रहता है।बस उसे
जरूरत होती है उस विषय की गहराई में डूब कर चीजों को निकालने की।इस दृष्टि से यह
संभवतः हिंदी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में भी दृष्टि बाधित लोगों पर लिखा गया
पहला उपन्यास है।
इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत है कि इसमें
अन्य उपन्यासों की तरह नायक-नायिका,कुछ प्रमुख पात्र,कुछ गौण चरित्र,कुछ सपोर्टिंग
पात्र जैसी कोई चीज नहीं है।उपन्यास में कई किरदार हैं।और हर किरदार की अपनी कहानी
है,उसके जीवन की घटनाएं हैं,उसके मन के अन्तर्द्वन्द हैं,उसके संघर्ष हैं और सबसे
बड़ी बात कि उपन्यास का हर पात्र कहीं न कहीं आपको नायक या नायिका की भूमिका में खड़ा
दिखेगा।वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक सुधीश पचौरी के शब्दों में—“ब्लाइंड स्ट्रीट
हिन्दी का शायद पहला उपन्यास है,जो बहुत सारे ‘डिफरेंटली एबिल्ड’की अंधी दुनिया के
उन अँधेरे-उजालों को परत-दर-परत उघाड़ता चला जाता है,जिनकी हिन्दी के कथा साहित्य
में प्रायः उपेक्षा ही की जाती रही है।यह एक नायक-नायिका वाला उपन्यास नहीं
है,बल्कि बहुत से नायक-नायिकाओं वाला उपन्यास है।हर नायक-नायिका की कहानी अलग होते
हुए भी एक दूसरे से मिक्स होते हुए चलती
है।यह उपन्यास बहुत सारी कहानियों
का धारा प्रवाह ‘मेडले’ और ‘फ्यूजन’ है।”(“ब्लाइंड स्ट्रीट” के फ्लैप से)।
प्रदीप
सौरभ एक खोजी पत्रकार हैं।इसीलिए वो अपने लेखन के विषय की पूरी तह तक शोध करते हैं
तभी उस विषय पर कलम चलाते हैं।और उनकी यह खोज और अनुसंधान की छाप उनके पूर्व में
प्रकाशित सभी उपन्यासों(मुन्नी मोबाइल,तीसरी ताली,देश भीतर देश,और सिर्फ तितली) की
ही तरह इस उपन्यास में पूरी शिद्दत के साथ मौजूद है।प्रदीप सौरभ ने अपने इस
उपन्यास के भी सभी किरदारों से मुलाक़ात कर उनसे बातचीत करके उनकी पूरी गाथा को
निकाला है।उनके पात्रों का सृजन कहीं सुनी सुनाई या पढ़ी गयी बातों के आधार पर नहीं
हुआ है।यही कारण है की इस उपन्यास को पढ़ते हुए दृष्टि विहीनों की दुनिया से गुजरते
हुए हमें महसूस होता है कि क्या हमारे
समाज में ऐसा भी हो रहा है।क्योंकि हमने या कह सकते हैं कि हमारे समाज के सामान्य
व्यक्ति ने कभी अंधों की उस दुनिया में झांकने या पहुँचने की कोशिश ही नहीं की
है।हमारे लिए तो अंधे व्यक्ति का मतलब बस सूरदास---गा बजा कर कमाने वाला व्यक्ति
या फिर सड़क पर भीख माँगने वाला एक भिखारी है।इससे अधिक हमारे समाज का आदमी उनके
बारे में कुछ सोचता ही नहीं है।वह कभी नहीं जानना चाहता कि हमारी दुनिया के बारे
में दृष्टि विहीनों की क्या सोच है?उनके अपने अंधेरों में वो किन रंगों को देखते
और महसूस करते हैं।समाज से उपेक्षित ये दृष्टि विहीन या अंधे लोग अपनी अंधेरी
दुनिया को कैसे किस शक्ति से रोशनी में बदलने की कोशिश करते हैं।उनके अन्दर क्या
भावनाएं कुलबुलाती रहती हैं?वो समाज से हर पल मिलने वाली उपेक्षाओं तिरस्कारों से
किस तरह दिन-रात संघर्ष करते हैं।समाज की इस उपेक्षा को हम इसी उपन्यास की एक
प्रमुख पात्र पार्वती के साथ घटी एक छोटी सी घटना में देख सकते हैं।“पार्वती में
गेट के बाहर आकर जमीन पर अपनी स्टिक(अंधों की लाइफ लाइन)पटक रही थी,ताकि कोई सड़क
पार करने में उसकी मदद के लिए आ जाय।ब्लाइंड इस तरह लोगों का अपनी तरफ ध्यान
आकर्षित करते हैं।तभी उसे अहसास हुआ कि कोई उसके पास खड़ा है।पार्वती ने उससे
पूछा,“सर क्या रोड पार करा देंगे?”
“करा तो सकते हैं लेकिन कराऊँगा नहीं।”उस व्यक्ति ने हिकारत
के भाव से जवाब दिया।‘ईश्वर ने तुम्हारे पाप के कारण तुम्हें अंधा बनाया है।रोड
पार कराकर तेरा पाप तो मैं अपने सर पर लूंगा नहीं।”( पृष्ठ-21)
इतना ही नहीं हमारे समाज में इस तिरस्कार और
उपेक्षा की शुरुआत बच्चे के पैदा होने पर उसके अंधे होने की बात पता लगते ही हो
जाती है।अक्सर मां-बाप उसे या तो किसी मंदिर के बाहर छोड़ आते हैं,या किसी अंधेरी
रात में सोते भिखारियों के बीच छोड़ आते
हैं।जिससे कि वह मासूम बाक़ी का पूरा जीवन उन्हीं भिखारियों की तरह भीख मांग कर
गुजार दे।क्योंकि उस अंधे बच्चे को जीवन भर सम्हालेगा कौन?बचपन की इसी हिकारत का
शिकार इसी उपन्यास का पात्र महेश भी हुआ।-----“आँखों के डाक्टर ने बताया की उसका
कार्निया जन्म से ही डैमेज है।उसे अब ठीक भी नहीं किया जा सकता है।बच्चे के अंधे
होने की बात सुनकर पूरे परिवार को जैसे सांप सूँघ गया।इस जानकारी के बाद उसका लाड़-प्यार
सब कम होने लगा।बात जब उसका नाम रखने की आई थी तो उसके पिता ने बेरुखी से कहा था
कि इसका नाम सूरदास रख दो।इस बात का उसकी मौसी ने बहुत विरोध किया था।उनके इस
विरोध का नतीजा ही था कि अंततः उसका नाम महेश तय कर दिया गया।महेश तनेजा।”(पृष्ठ-9-10)
पच्चीस अध्यायों में विभक्त इस उपन्यास की
कहानी---महेश,पार्वती,गुंजन,मनीष,प्रताप, नितिन,राजेश ठाकुर,शिवतेज,सोनी गिल,मुकेश
सक्सेना,पल्लवी,महेश तनेजा,सुरेश सरीन, बाबुल,कोयल,विवेक आदि पात्रों के इर्द
गिर्द बुनी गयी है।जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि इन सभी पात्रों की अपनी अलग-अलग
कहानियां हैं ।और सभी की कहानी आपस में एक दूसरे से लिंक्ड भी हैं।महेश जन्मांध है
और अपने परिवार की घोर उपेक्षा का शिकार होकर अपनी मौसी के घर रहने को मजबूर
था।महेश की मौसी ने ही उसका ब्लाइंड स्कूल में एडमिशन करवा कर उसकी पढाई लिखाई की
व्यवस्था की।पार्वती जन्मांध नहीं थी।उसकी आंख बचपन में करेंट लगाने की एक
दुर्घटना में चली गयी थी।लेकिन वो अपनी मेहनत और लगन की बदौलत दिल्ली में जे एन यू
से एम् फिल करने पहुँच गयी थी।इसी तरह
बहुत बड़े घर की बेटी सोनी गिल अपने साईटेड पति पंकज से अलग होकर ब्लाइंड तलाकशुदा
औरतों का हास्टल चलाती है।लेकिन उसका दुर्भाग्य ---उसका बहुत ही धूर्त और चालाक
मैनेजर सोनी गिल की गैर मौजूदगी में उस हास्टल को एकदम चकलाघर में तब्दील कर देता
है।–अंततः पुलिस रेड के बाद उसका वह हास्टल भी बंद हो जाता है।इसी तरह सुरेश सरीन
ने खुद को अंधों के लिए काम करने के लिए सपर्पित कर दिया।मस्जिद में मौलवी साहब के
साथ रहने वाला शिवतेज की अपनी अलग व्यथा कथा है।वह अंधा होने के कारण अपने ही भाई
द्वारा सारी जमीन हडप कर घर से निकाल दिए जाने जैसी घटना का शिकार हुआ।लेकिन मौलवी
साहब की कृपा से पढ़ लिख कर इस योग्य हो
सका की एक स्कूल में शिक्षक का काम करके कमाई करके गाँव जाकर भाई से जमीन वापस
लेकर उसे ही भीख के रूप में देकर वापस लौट
आता है। ----इनके अलावा भी महेश तनेजा,मुकेश सक्सेना,पल्लवी,तिलक ब्रिज पर रहने
वाला अंधा परिवार सभी कहीं न कहीं अपने अपने जीवन संघर्षों,उठा-पटक के बीच खुद को
स्थापित करने का प्रयास करते दिखते
हैं।
उपन्यास के इन सभी पात्रों में कुछ बातें तो एक
सामान रूप से दिखती है---सभी जीवन के
प्रति संघर्षरत हैं।सभी घोर सामाजिक,पारिवारिक उपेक्षाओं के शिकार हैं।सभी अपने
अपने घोर अंधकारों के बीच कहीं न कहीं से एक रोशनी की किरण को तलाश रहे हैं जो
शायद उनके जीवन के इन अंधेरों को दूर कर सके।और सभी के अन्दर इन संघर्षों,जीवन की
लालसाओं के बावजूद एक असीम पीड़ा का भाव भी दिखता है जो उनके अन्दर समाज से मिली उपेक्षाओं,समाज से मिली कटुताओं के कारण पैदा
हुआ है।
लेकिन इस
उपन्यास को पढ़ते समय कहीं भी आपको यह नहीं महसूस होता है कि इन पात्रों का सृजन
लेखक ने किसी कल्पना के आधार पर किया है।क्योंकि इन दृष्टि बाधितों के
रहन-सहन,बातचीत,उठने-बैठने,उनकी दिनचर्याओं,जीवन की घटनाओं को बिना उनसे
घुले-मिले,बिना उनका सूक्ष्म अध्ययन किये लिखना संभव ही नहीं है।इस दृष्टि से भी
यह उपन्यास अपने आप में एकदम अलग कहा जा सकता है।
इस पूरे उपन्यास
में दृष्टि बाधितों के जीवन के साथ ही उनकी सहायता सुविधा के नाम पर हमारे देश भर में
चल रहे एन जी ओ,अंधों के स्कूल कालेजों,होस्टल्स में चल रही लूट का भी खुलासा किया
गया है।साथ ही वहां इन दृष्टि विहीनों के साथ होने वाले शारीरिक, मानसिक,यौनाचार,उपेक्षा
की भी पूरी पड़ताल की गई है।सोनी गिल द्वारा शुरू किये गए अंधी तलाकशुदा महिलाओं के
हास्टल को वहां के मैनेजर द्वारा चकलाघर में तब्दील कर देना---यह हमारी व्यवस्था का एक बदरंग
चेहरा है।
प्रदीप सौरभ
के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है कि वो अपनी कृति के मूल विषय के साथ ही देश,समाज
की परिस्थितियों पर भी पूरी दृष्टि डालते हैं।इस उपन्यास में भी जे एन यू और
जामिया मिलिया में चल रही राजनीति,उठा पटक को बहुत ही बेबाक ढंग से लिखना प्रदीप
सौरभ के ही वश की बात थी।जे एन यू कैम्पस में विद्यार्थी परिषद् के गुंडों द्वारा
किस कदर तांडव मचाया गया यह भी इस उपन्यास में आप देख सकते हैं।उन गुंडों की
क्रूरता और आक्रामकता का अंदाजा आप इसी घटना से लगा सकते हैं कि पार्वती द्वारा यह
बताने पर भी कि वो अंधी है—उसे भी एक नकाबपोश लड़की ने डंडों से पीटा और
उसका सर तक फोड़ दिया।लेकिन ये घटनाएं या उनका वर्णन मुख्य कथानक से कहीं अलग नहीं
दिखते बल्कि उपन्यास को और सार्थक बनाते है।
पूरे उपन्यास को
पढ़ कर एक बात साफ़ तौर पर उभर कर आती है—वो यह कि हमें यानि हमारे इस पूरे समाज को
यह जानना होगा कि इन दृष्टि बाधितों के अन्दर भी हमारी तरह ही एक दिल धड़कता
है।उसमें भी भावनाएं होती हैं।उसमें भी संवेदनाएं पनपती हैं।हमारी ही तरह उनकी भी
शारीरीक जरूरतें होती हैं।वो भी प्यार करना और प्यार पाना चाहते हैं।उनके अन्दर भी
यौन इच्छाएँ होती हैं।उनमें भी धूर्तता,मक्कारी,इर्ष्या,द्वेष, जैसी
दुष्प्रवृत्तियाँ होती हैं।---उनमें और हममें बस फर्क इतना ही है कि हमारी दुनिया
रंगों से भरपूर है।हम देख सकते हैं।और उनकी दुनिया बिलकुल अंधेरी---स्याह और रोशनी
से विहीन है।लेकिन वो इस कमी को स्पर्श,ध्वनि,शब्दों,आहटों,सूंघने जैसी शक्तियों
से पूरा करते हैं।----उन्हें हमारे इस समाज से दया की नहीं बराबरी तक पहुंचाने की
दरकार है,उन्हें हमारी उपेक्षा,घृणा नहीं हमारे सहारे की जरूरत है।और समाज से यही कहना या बताना इस पूरे उपन्यास और लेखक
का मंतव्य भी है।
००००००
समीक्षक-डा0हेमन्त
कुमार
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बहुत सुंदर
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