कहानी -- मुंशी जी
मंगलवार, 30 जुलाई 2019
(कल 31जुलाई को मेरे स्व०पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप
श्रीवास्तव जी की तीसरी पुण्य तिथि है।इस अवसर पर पाठकों के लिए प्रस्तुत है उनकी एक कहानी “मुंशी
जी”।यह कहानी पिता जी ने संभवतः सन 2014 में लिखी थी।यह कहानी पिता जी के पैतृक गाँव खरौना के किसी मुंशी जी की
कहानी है या उनके किसी दूसरे शिक्षक की कहानी—यह बात तय कर पाना थोडा मुश्किल है।लेकिन
इतना जरुर है की आज जो भी युवा अध्यापन से जुड़ रहे हैं चाहे वो प्राथमिक स्तर पर
या उच्च शिक्षा में---उनके लिए ये कहानी निश्चित ही एक प्रेरणा देने वाली कहानी है।युवा
शिक्षकों को मुंशी जी के चरित्र से प्रेरणा लेनी चाहिए।–-डा0हेमन्त कुमार)
कहानी
मुंशी जी
प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
गाँव के दक्खिन एक ऊसर भूमि पर मुंशी राम दयाल की पाठशाला
थी।पास की बंसवाड़ी से झरती पत्तियाँ पाठशाला में भर जातीं। मुंशी जी के पहुँचने से
पहले ही बच्चे अरहर की झाड़ू से उसे साफ कर डालते।उससे उठती धूल गाँव वालों को बता
देती कि बच्चे पहुँच गये हैं, मुंशी जी अब
पहुँचने ही वाले हैं। महुअरिया से लगे हुए दूर दूर तक फैले पीले पके धान के खेत।इनके
बीच से गुजरती पगडंडी पर जब मुंशी जी आते दिखायी पड़ते बच्चों का शोरगुल एकदम थम
जाता।
जब ऊपर तक
खुँटियाई धोती पर गाढ़े का कुरता पहने, आँखों पर तागे से जोड़ी पीतल की कमानी वाली ऐनक चढ़ाये, दोनों हाथों में थमी नारियल की गुड़गुड़ी से धुँए के कश
खींचते मुंशी जी के पाठशाला में प्रवेश करते ही सभी शरारती बच्चे विनम्रता
की मूर्ति बन खड़े हो जाते। इस तरह वे अपने मुंशी जी के प्रति आदर प्रकट करते।उनके
आसन ग्रहण कर लेने के बाद ही सब अपनी जगह बैठते।कुछ पढ़ाना शुरू करने से पहले ऐनक
के पीछे से मुंशी जी की आँखें एक बार सभी बच्चों को अवश्य झाँक लेतीं।
मुंशी जी की
पाठशाला को कहीं बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती थी।फिर भी उन्होंने जिन्दगी में
कभी निराशा या गिरावट का अनुभव नहीं किया।साल के तीन सौ पैंसठ दिनों में कब रविवार
आता है, कब दशहरा दिवाली पड़ते हैं,
वे नहीं जानते थे।पर्वों पर भी बच्चे आयें या न
आयें, मुंशी जी अपनी ऐनक
संभालते अक्सर अपने निर्वाण पद प्राप्त
आसन पर जमे दिखायी पड़ते।कोई छात्र कई दिन न दिखायी पड़ता तो उसका हालचाल लेने उसके
घर जरूर पहुँच जाते।अभिभावकों के हृदय में भी समय की मार से असमय वृ़द्ध हो चले उस
व्यक्ति के प्रति कुछ ऐसा लगाव था कि वे अपने बच्चे तो पाठशाला भेजते ही, उसकी झोली भी अपनी श्रद्धा भक्ति के अनुरूप भर
देते।
मुंशी जी एक तार
थे जो किसी न किसी रूप में हर किसी के दिल में बजते रहते थे।
उस दिन माघ महीने की सारी ठंड जैसे उस गाँव में
ही समाने का प्रयास कर रही थी।मुंशी जी ने भाप से धुंधले पड़ गये अपनी ऐनक के शीशों
को धोती की खूँट से पोंछ कर आँखें आसमान पर उठायीं।बादलों के सफेद भूरे फाहे तह
बना रहे थे।दाँत कटकटाती हवा शरीर बेध रही थी।पानी गिरने के आसार थे।मुंशी जी ने
एक लम्बी साँस ली।आज पाठशाला जमने के लक्षण न थे।गुड़ की चाय पी कर जो एक गर्मी
उनके शरीर में आ गई थी वह इस विचार के आते ही शीतलहर बन गई।सामान्य व्यक्ति उस दशा
में घर से बाहर निकलने की कल्पना तक न
करता।किन्तु मुंशी जी असामान्य व्यक्ति थे।उन्होंने कमला को आवाज दी -“ बेटी, खिचड़ी तैयार हो गई हो तो परोस दे।”
मगर भीतर तो अभी
चूल्हा तक नहीं जला था।उनकी पत्नी ने हैरत
से पूछा -“ क्या पाठशाला ऐसे मौसम
में भी खुलेगी ?”
“ क्या ?” यह सुन कर मुंशी जी को पत्नी से भी ज्यादा हैरत हुई।
“ ठीक है।लगता है कि
पैर अब ठीक से फैलने लगे हैं।रात भर मालिश करवाओ, सिंकवाओ और अब ठंड में निकलने की बात करो।मरना तो मुझे होता
है।” पत्नी ने कुछ झल्लाहट से कहा।तब अकस्मात मुंशी जी को एहसास हुआ
कि वे तो गठिया के मरीज हैं।अभी पिछली पूरी रात उन्होंने कितने दर्द और बेचैनी से
बितायी थी।
कई मिनटों तक
मुंशी जी छप्पर वाले ओसारे की एक थून का सहारा लिए खड़े रहे।उनके भीतर एक भयानक
कोलाहल उत्पन्न हो गया था।जीवन का जो व्रत कभी भंग नहीं हुआ क्या उसकी कड़ी आज टूट
कर रहेगी ? यह व्रत कैसा और तपस्या
क्यों ? कौन सी सिद्धि प्राप्त
होने वाली है इससे उन्हें ?
केवल कुछ वर्षों
का समय बीतते ही कमला विवाह के योग्य हो जायगी।उसके हाथ पीले करने के लिए उन्होंने
अब तक किस पूँजी का संचय किया था? क्या यह सहस्त्र
छिद्रों वाला आवास बेच कर भी वे अपने एक सब से बड़े उत्तरदायित्व को निबाह सकेंगे?
उन्होंने रात को रात और दिन को दिन नहीं समझा।माघ
पूस की ठारी भी जर्जर वस्त्रों में काट दी।कभी यह भी नहीं देखा कि भोजन की थाली
में साग है तो नमक नहीं, रोटी है तो दाल
नहीं।जीवन का सारा विष वे शंकर की तरह पचाते
चले गये। मगर अबोध बेटी और रोग जर्जर पत्नी-इन दो निरीह प्राणियों को
उन्होंने क्या दिया ? पत्नी आज भी पैबंद
लगी धोती में अपने नारीत्व की मर्यादा छिपाये घर में पड़ी रहती है।बेटी के लिये एक
छँटाक दूध की कौन कहे, कभी ढंग से
रोटियाँ भी वे न उपलब्ध कर सके।बेटे को दूध के नाम पर आटे का घोल पिलाने वाले
आचार्य द्रोण की तो सारी व्यथा उस दिन दूर हो गई जब वे राजगुरू बनाये गए। मगर कहाँ
से आते मुंशी रामदयाल के लिए राजकुमार।
मगर जब मुंशी जी
ने पाठशाला शुरू की थी तब सारी बातों का स्वरूप कुछ और ही था।उनकी पनीली आंखों के
आगे आज भी वे दिन जीवन्त हो उठते हैं।उन्होंने कैसे गाँव के जमींदार से चिरौरी
विनती कर के दस हाथ ऊसर भूमि पाठशाला के लिये प्राप्त की थी।पिता ने उन्हें सनकी
कहा था और गाँव के लोगों ने जी भर खिल्ली
उड़ायी थी।मगर अपमान और उपेक्षा की सारी कड़वी घूटों को पी कर उस सनकी युवक राम दयाल
ने अकेले ही गाँव के ताल की मिट्टी से पाठशाला की दीवारें खड़ी करनी शुरू कर दी।जिस
दिन एक कमरे की आधी दीवार गर्व से सीना ताने ऊपर उभर आयी थी, गाँव वालों ने अनुभव किया था, वह मिट्टी भर नहीं है।उसके एक एक कण में श्रम
और लगन की झंकार भी निहित है।तब उन्हें पागल कहने वालों ने ही उनके कार्य को हाथों
हाथ ले लिया था।महीने भर के भीतर नई खपरैलों का ताज सिर पर लगाये पाठशाला की सफेद
पुती दीवारें दूधिया चाँदनी में श्वेत संगमर्मर निर्मित विद्या मंदिर बन गई थीं।पहले
दिन जब गाँव के पाँच सात बच्चे वहाँ पढ़ने के लिए आये, उन्होंने कितने उल्लास से अपने घर का बना नया गुड़ सब को
खिलाया था।
किन्तु उत्साह का
जो स्थायी रूप मुंशी राम दयाल के हृदय में था, गाँव वाले उससे वंचित थे।पाठशाला कुछ सालों तक अपनी इन्द्रधनुषी आभा के साथ खूब
चमकती रही।भीतर जगह भर गई तो बच्चे बाहर खुले में बैठ कर पढ़ते थे।फिर धीरे धीरे
लोगों के मन में इस ओर से एक उदासीनता सी पैदा हो चली।मुंशी जी उसका कारण जानते
थे।लोगों का जीवन इतना संघर्षमय और जटिल हो चला कि जीवन के सारे ओज और उमंग,
तीज और त्योहारों का उल्लास न जाने किस दानवी
के पेट में समाने लगे।जीवन की सारी स्वाभाविक मधुरता पर जैसे किसी ने कृत्रिमता का
काला पेंट पोत दिया।इंसान हाड़ मांस न हो, एक मशीन भर हो चला।अब लोगों के पास इतना वक्त न था कि वे पाठशाला की ओर ध्यान
देते।फिर भी मुंशी जी ढीले न पड़े।जब हवा और पानी की मार से दीवारें जर्जर होने
लगीं, मुंशी जी ने अकेले ही
उनकी मरम्मत करने की कोशिश की।परन्तु अब वह पहले वाला शरीर न था। वह जवानी की उमंग
और मजबूत हड्डियाँ स्वप्न पट के चित्र भर रह गई थीं।
इतने पर भी उनका
पढ़ाने जाने का क्रम एक दिन के लिए भी नहीं टूटा।जो कुछ उनके मस्तिष्क में था उसे
बच्चों को देने में कभी कृपणता नहीं की।उन्हें प्रसन्नता थी कि उनके पढ़ाये कुछ
बच्चे ऊँचे ऊँचे पदों पर कार्य कर रहे थे।जब वे गाँव आते और अपने इस आदि गुरू के
चरणों का स्पर्श करते, मुंशी जी अपनी
सारी व्यथा भूल जाते।
मुंशी जी ने थोड़ा
झिटक कर अपनी दोनों बाहें फैलायीं।ठंड से वे कुछ अकड़ चली थीं।खड़े रहने के कारण
घुटनों में दर्द होने लगा था।अच्छा हो कि आज आराम कर लिया जाय।जीवन भर तो उसी आग
में झुलसा, एक दिन नहीं ही सही।यह
सोच वे भीतर जाने के लिए मुड़ने को थे कि याद हो आया -- लछमन वजीफे की परीक्षा में
बैठने वाला है।आज वह अवश्य आया होगा।गणित के जरूरी सवाल जो समझने हैं उसे।लछमन ही
नहीं, गोविन्द, महेश, धनकू को भी तो इसी महीने शहर के अंग्रेजी स्कूल में भरती होना है।उन लोगों के
लिए तो एक एक दिन कीमती है।नहीं -- अब वे घर पर नहीं रूकेंगे।
“ कमला!” उन्हों ने ऐसे पुकार कर कहा जैसे उनके भीतर कहीं यकायक सौ
पावर का बल्ब जल गया हो। “मैं पाठशाला जा
रहा हूँ।बन जाने पर मेरा खाना थाली में ढँक कर रख देना। लौट कर खाऊँगा।” फिर किसी भी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना उन्होंने अपनी
सूती चादर कंधे और सीने के चारों ओर लपेटी और बाहर निकल गए।
पीछे दरवाजे की
चौखट से झाँकती चार आँखों में कितनी अकुलाहट थी, मुंशी जी ने मुड़ कर इसे भी न देखा।
पाठशाला में एक
भी छात्र नहीं आया था।मगर मुंशी रामदयाल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।उन्होंने
लछमन के घर पहुँच कर वहीं महेश धनकू और गोविन्द को भी बुलवा लिया।बच्चों के लिए यह
चौंकाने वाली बात नहीं थी।क्योंकि उनके लिए यह कुछ भी नया नहीं था।उनका यह स्वभाव
बच्चों में हमेशा से एक अनिर्वचनीय पुलक भरता आया था।
उस रात मुंशी रामदयाल
को बड़ा तेज ज्वर चढ़ आया।पैर की नसें बुरी तरह सूज आयी।चारपाई पर हिलना डुलना तक
मुश्किल हो गया।दो हफ्ते रोग से लड़ने के बाद वे चलने फिरने के योग्य हुए।
आगे के कुछ सालों
में गाँव में बड़े बदलाव आये।देश में पुनरूत्थान और जागृति की जो बयार बही उसके
स्पर्श से वह गाँव भी अछूता नहीं रहा।पास के कस्बे में प्लास्टिक का एक कारखाना
खुल गया। गाँव के काफी लोगों को उसमें रोजगार मिल गया।कारखाने की तरफ से गाँव के
बगल एक स्कूल भी खुल गया।स्कूल की सुन्दर पक्की इमारत थी।योग्य और अनुभवी अध्यापक
थे।वहाँ पढ़ने वाले बच्चों की फीस माफ थी।जो
गरीब थे उन्हें वजीफा मिलता था।गाँव के भाग्य खुल गये।
मुंशी रामदयाल की
पाठशाला अब सूनी हो गई थी।जब तक पौरूष चला मुंशी जी अपने लंगड़े आसन पर बैठे दिखायी
पड़ते रहे।आँखों पर वही ऐनक तथा हाथों में वही पुरानी गुड़गुड़ी रहती।उनका चेहरा
अवश्य पहले से काफी बदल गया था।आँखों की रोशनी थक चली थी।चेहरे की झुर्रियाँ जीवन
के सतत संघर्षों की दास्तान बन कर नीचे लटक आयी थीं।उनकी आँखों के आगे जब तब अपने
खंडहर घर की दीवारें आ खड़ी होतीं।पत्नी का करूणार्द्र मुख उन्हें विचलित कर देता।जब
विवाह की उम्र पार कर रही बेटी उनके हृदय के घावों को कुरेदने लगती उनका सारा
धैर्य आँखों की राह बह निकलता।
नये स्कूल में लम्बी लम्बी छुट्टियाँ पड़ती
थीं।अध्यापक उन छुट्टियों में कभी स्कूल की ओर आँख उठा कर भी न देखते।उनका कोई
छात्र हफ्तों अनुपस्थित रहे तो उन्हें उसकी कोई चिन्ता न होती।अभिभावकों छात्रों
और टीचर्स का सम्बन्ध बस महीने में एक दिन पड़ने वाली पैरेन्ट टीचर्स मीटिंग तक ही
सीमित था।मुंशी जी के लिए यह सब एकदम नयी बात थी।पाठशाला, अध्यापक और छात्रों का यह सम्बन्ध कभी भी उनकी कल्पना का
विषय नहीं रहा।वे तो पाठशाला की हृद्तंत्री में झंकार बन समा जाने वाले जीव थे।बाहर
खड़े रह कर केवल उसका स्वर सुनने का उन्हें कोई अभ्यास न था।
आज ऐसे में हम
सोच भी कैसे सकते हैं कि कभी मुंशी जी जैसी शख्सियत भी हुआ करती थी।
००००००
लेखक-प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11 मार्च, 1929 को जौनपुर के खरौना
गांव में जन्म। 31 जुलाई 2016 को
लखनऊ में आकस्मि
निधन।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने
के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी
नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना, प्रसाद,ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी, नई कहानी, विशाल भारत,आदि में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों, रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में
बाल साहित्य का प्रकाशन।
आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित
नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों, नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।“वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर
बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर
का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों
का तारा”आदि
बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग
तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950
के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र
मृत्यु पर्यंत जारी
रहा। 2012में नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यास“मौत के चंगुल में” तथा 2018
में बाल नाटकों का संग्रह एक तमाशा ऐसा भी” प्रकाशित।
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