बूढ़ी नानी
रविवार, 12 जून 2016
बूढ़ी नानी
जैसे बारिश की घास
या फ़िर वो खूबसूरत मशरूम
जो बस यूं ही
चुपके से प्रकट हो जाते हैं
पता नहीं कहां से आते हैं
या कहां जाते हैं।
तंग गलियों में
गांव के चबूतरों पर
बाबा आदम की हवेली में
अब तो पान पट्टियों पर भी
दिख जाती हैं ये बूढ़ी नानियां।
ममता वाली मुस्कान के जाल में
टाफ़ी की पुचकार से
बच्चों को अपने पास बुलाती हैं
खुद जैसे फ़टेहाल में हों
पर दूसरों पर लुटाने को खजाना
न जाने कहां से बस
आता ही जाता है।
दिन ढलते, सुपारी काटते
कहानियों का सिलसिला
जैसे जादूगरनी का खेल।
अपने बच्चे हों या पड़ोसी के
इन्हें बस चाहिये होते हैं
नन्हें मुन्ने, भोले भाले
गोल मटोल बच्चे
प्यार से वो इनका नामकरण
तक कर देती हैं
धीरे धीरे हाथ सहलाते
बालों में उंगलियां फ़िराने लगती
हैं
और बात चल रही होती है
शेर का शिकार करते एक राजा की
रात बढ़ती जाती है
इनकी कहानी भी।
तभी मुन्ने की मां आती है
उसे ढूंढ़ते हुये
नानी की बाहों में झूलते
नन्हें को मां ले जाती है।
और नानी मसलती हैं
बिन दांतों वाला पोपला मुंह
मुंह ढकती ऐनक को सम्हालती
सर पर आंचल रखती नानी
गायब हो जाती हैं
किसी अंधेरी कोठरी में
अपनी काल्पनिक कहानियों की तरह।
बदस्तूर
रोज की तरह
सुबह फ़िर होती है
मासूम हंसी का पिटारा लिये
झुर्रियों वाला चेहरा
फ़िर दिख पड़ता है
नुक्कड़ पर
धूप सेंकती
बिस्कुट का पैकेट दिखाती नानी।
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कवयित्री:नेहा शेफ़ाली।
युवा कवयित्री नेहा शेफ़ाली अभी जिन्दगी का
गणित सीखने की कोशिश कर रही हैं।महानगर मुम्बई में रिहाइश दौड़ते हांफ़ते आदमियों
और कंक्रीट के हुजूम में इनका जेहन
चेहरों को पढ़ने की कोशिश करता है।और तभी उपजती है कोई कविता या कहानी।अंग्रेजी,हिन्दी की कुछ प्रतिष्ठित
पत्रिकाओं,अखबारों में फ़ुटकर रचनाएं प्रकाशित।
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