उलझन
गुरुवार, 30 जुलाई 2015
छ बता देना बेहतर समझता हूं।यही शायद मेरे हित में भी अच्छा होगा और मेरे जैसे
कुछ और युवाओं को भी शायद कुछ सबक मिल सकेगा।और सबसे बड़ी बात यह कि मेरा सबसे बड़ा
प्रायश्चित भी होगा यह।
मेरा नाम महेश है।मैं इस समय बी0ए0 पार्ट वन
में पढ़ रहा हूं।मेरे घर में अम्मा बापू दीदी भैया सभी लोग हैं।भरा पूरा परिवार है
मेरा।अम्मा घर के काम करती हैं।बापू खेती का काम करते हैं।मेरे घर में मेरा एक
प्यारा स कुत्ता भी है मोती।मैं उसे बहुत प्यार करता हूं।और हां अगर मैं गौरव का
जिकर न करूं तो मेरी कहानी अधूरी रह जाएगी।वही तो मेरा एक अच्छा और सच्चा दोस्त
है।
बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा ग्यारह में
पढ़ता था।गांव से मैं और गौरव एक साथ ही शहर पढ़ने आए थे और अपने एक रिश्ते के चाचा
के घर किराए पर कमरा लेकर रहते थे।हम दोनों कभी घर पर स्टोव में खाना बना लेते कभी
पास के रामू दादा के होटल पर खा लेते।हम साथ साथ कालेज जाते थे।हमारा कालेज घर से
थोड़ा दूर था इसी लिये हमारे घर वालों ने हमारे लिये नयी साइकिलें खरीद कर हमें दे
दी थीं।
उन दिनों हम अपनी
छमाही परीक्षा की तैयारी कर रहे थे।कोर्स पूरा हो चुका था। बस हम उसे दुहरा रहे
थे।हालांकि हम दोनों की गिनती कालेज के पढ़ाकू छात्रों में थी फ़िर भी पढ़ाई और
परीक्षा का दबाव तो था ही हम पर।गौरव तो हमेशा नार्मल रहता पर मैं अक्सर परीक्षा
के दिनों में तनावग्रस्त हो जाता था।ऐसा नहीं कि मुझमें आत्मविश्वास की कमी रही हो
फ़िर भी एक्जाम्स के समय एक अजीब किस्म का तनाव मेरे ऊपर हावी होने लगता था।
मैं शनिवार का वह मनहूस दिन कभी नहीं भूल
सकता---जिसने कुछ समय के लिये मेरे जीवन में अंधेरा भर दिया था।हम दोनों कमरे में
बैठे पढ़ रहे थे।मैं उस दिन भी कुछ ज्यादा तनाव में था।मैं कभी किताबों के पन्ने
पलटता कभी क्लास के नोट्स देखने लगता।मेरी मानसिक हालत को गौरव ने भांप लिया।इससे
पहले कि मैं उससे कुछ कहता वो खुद ही बोल पड़ा, “क्या बात है
महेश तू कुछ परेशान दिख रहा कोई दिक्कत है क्या?”
“नहीं यार गौरव कुछ नहीं बस ऐसे ही—आज पढ़ने में मन
नहीं लग रहा।”मैं थोड़ा धीमे से बोला।
“चल उठ चौराहे तक थोड़ा टहल कर चाय पीकर आते हैं।और
हां शाम के लिये सब्जियां अण्डे भी तो लेना है।”
मैं गौरव के साथ
चौराहे पर चाय पीने के लिये चल पड़ा।चाय वाले के यहां गौरव ने चाय के लिये बोल दिया
और मैं गौरव के साथ चुपचाप सबसे किनारे वाली बेंच पर बैठ गया।हालांकि चाय की दूकान
पर बहुत चहल पहल थी।एफ़ एम रेनबो पर बज रहे गीत “चार बोतल वोदका
काम मेरा रोज का---” के साथ ही लोगों का शोर,राजनीतिकि उठा
पटक पर चर्चा।इन सबके बावजूद वहां भी मुझे एक अजीब सी घुटन सी महसूस हो रही
थी।गौरव लगातार मुझे शान्त देख कर बोल ही पड़ा, “भाई इतना
शानदार गाना बज रहा फ़िर भी तू मौनी बाबा बना है आखिर माजरा क्या है?”
मजबूरी में मुझे भी बोलना ही पड़ा, “यार
गौरव किया क्या जाय कुछ समझ में नहीं आ रहा?”
“पर हुआ क्या?”गौरव ने पूछा।
“अरे इम्तहान के दस दिन रह गये हैं।पूरी तैयारी कर ली।सब
कुछ रिवाइज भी कर लिया है।”मैं बहुत धीमे से बोला।
“फ़िर—फ़िर क्या चिन्ता तुझे—ऐश कर ऐश।मुझे देख अभी तक
एक भी विषय का रिवीजन नहीं कर पाया।फ़ीर भी मस्त हूं।”गौरव
उसी मस्ती में बोला।
“पता नहीं क्यों दिल बहुत घबरा रहा।लगता है कहीं ऐसा
न हो इम्तहान देते समय सब भूल जाऊं—कुछ गलत सलत न लिख दूं।कभी लगता है कि सारे पढ़े
हुये विषय आपस में गड्ड मड्ड होते जा रहे हैं।”मैं लगभग
रुआंसा हो चला था।मेरी ये हालत देख कर गौरव ठहाके लगा कर हंसने लगा बिना इस बात की
परवाह किये की बाकी चाय पीने वाले ग्राहक क्या सोचेंगे।
“अबे महेश लगता है तुझे एक्जाम फ़ीवर हो गया है।चाय पी
कर चल घर पर कुछ देर सो लेना।उठेगा तो फ़्रेश हो जाएगा।”गौरव
उसी रौ में बोला।
हमारी बातों के
बीच में ही एक और युवक आकर हमारी बेंच पर बैठ गया था और हमारी पूरी बातें बहुत
ध्यान से सुन रहा था।गौरव की सोने वाली बात पर वह अचानक ही बोल पड़ा, “खाली
सोने से काम नहीं चलेगा बेटा।तुम्हारे दोस्त को तनावमुक्त होना भी जरूरी है।”
मुझे उस आदमी का इस तरह बीच में दखल देना कुछ अच्छा तो नहीं
लगा फ़िर भी मैंने उसकी उमर का खयाल करते हुए उससे पूछ ही लिया, “आपकी
तारीफ़?”
थोड़ा मैले कपड़े पहने होने के बावजूद उस युवक की आवाज में
गजब का आकर्षण था उसी के प्रभाव से गौरव का भी ध्यान उधर गया।उसने भी कहा,“पहले
भी कहीं देखा है आपको?”
हमारी बात्तें सुन कर युवक मुस्कराकर बोला,“जरूर
देखा होगा।मैं भी यहीं पास में ही रहता हूं।वैसे तो मेरा नाम विश्वेश्वर प्रसाद है
पर सब मुझे बिशु बिशु कहते हैं।तुम भी चाहो तो मुझे इसी नाम से बुला सकते हो।मैं
भी अंग्रेजी से एम0ए0 करके कम्पटीशन दे रहा हूं।मैंने अभी यहां बैठे बैठे तुम्हारी
बातें सुनी तो मुझे लगा मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकता हूं।देखो महेश का एक ही
इलाज है कि वो परीक्षा के समय तनाव में न रहे।”
“कैसे
त्तनाव में न रहूं बिशु भैया।दिन रात पढ़ना,समझना,याद रखना।मुझे तो लग रहा है मैं
आगे कैसे पढ़ सकूंगा?”मैंने अपनी परेशानी बिशु को बताई।
“सब ठीक हो जाएगा।इसका भी इलाज है मेरे पास।बस एक
पुड़िया खानी होगी।सारा टेंशन छू मंतर।”बिशु अजीब
रहस्यमय ढंग से मुस्कराकर बोला।
“तो क्या आप डाक्टरी भी जानते हैं बिशु भैया?”गौरव
उत्सुकता से बोल पड़ा।
“जानता तो बहुत कुछ हूं बच्चों पर मुझे पूछता कौन
है।मैं भी पहले तुम्हारी तरह ही पढ़ाई की टेंशन में रहता था।पर अब सब ठीक है।”बिशु
उसी रहस्यमय अन्दाज मे बोला।
“तो बिशु भैया हमे भी वो दवा खिलाओ न।”मेरी
उत्सुकता बिशु से छिपी न रह सकी।
“सब्र करो,सब्र करो महेश।पहले मेरे घर तक तो चलो।फ़िर
पुड़िया तुम्हारे मुंह में और सारा टेंशन,तनाव गायब—हवा में उड़ोगे—हवा में-- न
घबराहट रहेगी न चिंता।”कहते हुये बिशु फ़िर उसी रहस्यमय अन्दाज
में मुस्कराया।
और अन्ततः गौरव के काफ़ी विरोध के बावजूद हम बिशु की आवाज के जादू और तनाव दूर करने वाली पुड़िया के
आकर्षण में बंधे हुये बिशु के साथ उसके घर तक चले गये।
फ़िर बिशु द्वारा दी गयी पुड़िया खा कर वाकयी
हमने जन्नत की सैर की।और इस तरह वह काला शनिवार मेरे जीवन का अभिशाप बन गया।गौरव
तो वहां दोबारा नहीं गया।पर मैं तनाव मुक्त होने के नाम पर बिशु की ही तरह नशीली
दवाएं लेने का आदी बनता चला गया।मैं धीरे-धीरे नशे का गुलाम होता गया और बुरी तरह
बिशु के पंजों में फ़ंसता गया।पहले तो बिशु मुझे मुफ़्त में तरह तरह की नशीली दवाओं
के स्वाद चखाता रहा।और मैं भी उसके आकर्षण में बंधा हुआ नशे का आनन्द उठाता गया।
जब बिशु इस बात
को अच्छी तरह समझ गया कि अब मैं ड्रग्स के बिना नहीं रह सकता तो उसने मुझसे पैसे
लेना शुरू कर दिया।मैं भी उसके द्वारा मिलने वाली दवाओं का इस कदर गुलाम बन गया कि
उससे दवाएं हासिल करने के लिये मैंने कौन से पाप नहीं कर डाले।लानत है मुझ पर। आज
आप सबको बताते हुये मुझे अपने ऊपर शर्म आ रही है कि मैंने ये सब कैसे कर दिया।गांव
जाकर बापू से झूठ बोल कर हजारों रूपए लाया।अम्मा की चांदी की करधन चुरा कर बेच डाली।गौरव
की साइकिल चुरा कर बेच डाली।यहां तक कि गौरव के बैग से उसके फ़ीस के रूपए भी चुरा
लिया।गौरव यह सब जान कर भी मुझसे एक शब्द नहीं बोला।बस वह मुझे हमेशा समझाता रहा
कि महेश ये सब छोड़ दे।
धीरे धीरे मेरी सारी काली करतूतों की खबर मां
बापू को भी मिलने लगीं।और मेरे बापू अम्मा सबके सपने बिखरने
लगे।वापू ने मुझे कई बार समझाया।मुझे डंडों से पीटा।
बड़े भैया ने बहुत समझाया। सभी मुझसे परेशान हो चुके थे।सब धीरे धीरे मेरा साथ छोड़ने लगे।यहां तक कि अन्त
में मेरा सबसे अच्छा दोस्त गौरव भी मुझे समझा समझा कर हार जाने के बाद एक दिन रोता
हुआ मुझे मेरे हाल पर छोड़ कर चला गया।
इतना ही नहीं मुझे
कालेज से भी निकाल दिया गया।और मैं बिशु के साथ ही उसका गुलाम बन कर रहने लगा।
अब मेरा ज्यादातर समय बिशु के साथ नशीली दवा
लेकर अंधेरे कमरे मे बीतता,या फ़िर हम दोनों कालेजों के आस पास घूम कर मेरे जैसे ही
किसी नये शिकार की तलाश में घूमते।
मैं बिशु के जाल में फ़ंस कर उसकी गुलामी करते
हुये पतन की न जाने किन गहराइयों में पहुंच जाता,अगर उस दिन नेहा दीदी मुझे न मिली
होतीं।
उस दिन भी बिशु के कमरे में स्मैक की एक
खुराक लेकर उसके और अपने लिये कुछ खाने का सामान लेने जा रहा था।अभी मैं सड़क पर
कुछ ही दूर गया था कि किसी युवती ने मेरा नाम लेकर मुझे पुकारा। एक अनजान युवती के
मुंह से अपना नाम सुन कर मैं ठिठक कर रुक गया।मुड़ कर एक सांवली सी मगर खूबसूरत
युवती स्कूटर के साथ मेरे बगल में आकर रुक गयी थी।
“कौन हो सकती है
ये?क्या ये भी मेरी ही तरह बिशु कि कोई नयी शिकार है?पर कभी बिशु ने बताया तो नहीं?”अभी मैं सोच ही रहा था कि युवती बोली,“तुम महेश हो न?”
“आप मुझे जानती हैं?पर
मैंने तो कभी आपको--?”मैं हकला कर बोला।
“पहले तुम मेरी स्कूटर पर बैठ
जाओ,बाकी बातें मेरी क्लीनिक पर पहुंचने के बाद।”युवती मुझसे बोली और
मैं पता नहीं कैसे सम्मोहित सा होकर उसकी स्कूटर पर बैठ गया।कुछ
ही देर में हम उसकी क्लीनिक में पहुंच गये। क्लीनिक में पहुंचकर वह अपनी कुर्सी पर बैठ गयी
और मुझे भी बैठने के लिये बोली।“बैठो
महेश ये मेरी क्लीनिक है।”और मैं हतप्रभ सा उसके सामने बैठ गया।
“मगर –आप?”मैं उलझन भरे
स्वरों में बोला।
“मेरा नाम नेहा है और मैं
डाक्टर हूं।”युवती मुस्कराकर बोली।
“पर आप मुझे कैसे जानती हैं?”मेरी
उलझन बढ़ती जा रही थी।तरह तरह के खयाल दिमाग में आ रहे थे।
“मैं तुम्हारे दोस्त गौरव की
बहन की सहेली हूं।गौरव ने मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ बताया है।वह
तुम्हें लेकर बहुत चिंतित भी रहता है।”नेहा ने मेरे सारे सवालों का जवाब
देते हुये कहा।
“पर आप मुझे यहां---?”मैं अभी
भी असमंजस की स्थिति में था।
“बस मैं तुमसे कुछ बातें करना
चाहती थी।”नेहा ने उसे समझाया। सुनते ही मेरे चेहरे
का रंग बदलने लगा।एक अजीब सा तनाव मेरे दिमाग में भरने
लगा।चेहरे की मांसपेशियां खिंचने लगीं।
“कैसी बातें करना चाहती हैं
आप मुझसे?”क्षण भर में ही मैं उत्तेजित हो गया।क्योंकि मेरे कानों में
गौरव की वो बातें कौंध चुकी थीं – वो अक्सर मुझसे कहता था कि तुझे किसी मानसिक
चिकित्सक को दिखाना चाहिये।मतलब ये
सब उसी गौरव का प्लान है।
“बोलिये—आप मुझे क्या
समझायेंगी—वही न जो बापू समझाते हैं कि मैं बिशु का साथ छोड़ दूं?मैं उसकी
दी हुयी दवाएं लेना बन्द कर दूं?यही कहना चाहती हैं न आप भी?”मैं
लगभग चीखने लगा था।मेरे चेहरा लाल हो चुका
था।स्मैक का असर खतम हो चुका था और गुस्से से मेरे हाथ पैर कांप रहे
थे।नेहा दीदी आश्चर्य और भय से मेरे व्यवहार में आये इस बदलाव को बहुत
ध्यान से देख रही थीं।मैं शायद गुस्से में कुछ कर बैठता अगर नेहा
दीदी अपनी कुर्सी से उठ कर मेरे लिये एक गिलास पानी नहीं
लातीं।मैंने पानी का ग्लास एक सांस में ही खाली कर दिया।नेहा अब
कुर्सी पर बैठ कर शान्त भाव से बस मेरे चेहरे को लगातार देखे जा
रही थी।मेरा गुस्सा शन्त हो चुका था।मैं सामान्य होने की कोशिश में
उनकी मेज पर रखे पेपरवेट से खेल रहा था।यद्यपि नेहा लगातार मुझे
देख रहीं थीं पर मेरी हिम्मत उनकी तरफ़ देखने की नहीं हुयी।
“महेश
इधर देखो मेरी तरफ़।”नेहा दीदी की आवाज मेरे कानों में आयी जरूर पर मेरी
निगाहें नीचीं ही थीं।
“महेश
क्या तुम ये ड्रग्स,स्मैक छोड़ नहीं सकते?”नेहा दीदी की
आवाज फ़िर मेरे कानों
से टकरायी।
“लेकिन मैं कैसे छोड़ दूं बिशु
का साथ—अब कुछ नहीं हो सकता।मैं नहीं निकल सकता उसके शिकंजे से अब
नेहा दीदी—”कहते कहते मैं रो पड़ा। मेरे सब्र का बांध टूट चुका
था।
नेहा दीदी उठ
कर मेरे पास आयी और मेरा सर सहलाते हुये बोली,“अभी कुछ नहीं बिगड़ा महेश—अभी
भी तुम चाहो तो उस अंधेरे से निकल सकते हो।”
नेहा दीदी का प्यार भरा
स्पर्श पाकर मैं फ़ूट पड़ा।मैं फ़ूट फ़ूट कर रोता रहा और नेहा दीदी बस मेरा सर
सहलाती रहीं।कुछ सामान्य होने पर मैंने फ़िर सिसकते हुये उनसे कहा,“कैसे
निकल सकता हूं दीदी अब मैं उसके जाल से।कौन निकालेगा मुझको
उसके चंगुल से?सब मुझसे नफ़रत करते हैं।सबसे बड़ी बात अब मैं उसकी
नशीली दवाओं का गुलाम हो चुका हूं मैं टूट चुका हूं बुरी तरह
से।”
लेकिन नेहा दीदी कहां हार मानने वाली
थीं।उन्होंने मुझे समझाया,“देखो महेश—तुम्हें तुम्हारी इच्छा शक्ति और आत्मविश्वास ही तुम्हें उस अंधेरे से निकालेंगे।तुम बस आज ये कसम खा लो कि नशीली दवाएं नहीं लोगे।और आज के बाद बिशु और उसके आदमियों से कभी नहीं मिलोगे।फ़िर दुनिया की कोई भी
ताकत तुम्हें नशे की ओर नहीं ले जा सकती।और जहां तक इलाज की बात
है तो मैं तुम्हें
किसी नशा मुक्ति केन्द्र ले चलूंगी।मैं
तुम्हारा साथ दूंगी हर जगह।”
“सच दीदी आप मेरा साथ
देंगी?मैं फ़िर सामान्य जीवन बिता पाऊंगा?पर पर बिशु के आदमी---”मेरे मन में
अभी भी भय था बिशु और उसके आदमियों का।
“वो सब तुम मुझ पर छोड़
दो।मैं देकह लूंगी बिशु और उसके आदमियों को।”दीदी ने मुझे आश्वस्त किया।
“सच दीदी आप मेरा
साथ देंगी?बचाएंगी बिशु से?”मेरी आवाज खुशी से थरथरा रही थी।
“हां महेश मैं तुम्हें
बचाऊंगी नशे के उस जहर से।”नेहा दीदी खुश होकर बोली।
और इस तरह मैं पूरे दो सालों तक नशे की उन
अंधेरी गलियों में भटकने के बाद नेहा दीदी के
सहयोग से और अपने आत्मविश्वास के बल पर खुली हवा में सांस
लेने के काबिल हो सका।नेहा दीदी ने ही अपने खर्चे से मेरा दाखिला
फ़िर कालेज में करा दिया।मैं फ़िर पढ़ने कालेज जा रहा हूं।मेरे
घर,परिवार और समाज मे मेरी फ़िर वही इज्जत हो गयी है जो तीन साल पहले
थी।
ये सारी बातें आप सभी तक पहुंचाने का मेरा
मकसद सिर्फ़ यही है कि मेरी यह कहानी सुन कर आप
भी सतर्क हो जाएं और किसी बिशु जैसे जहर के व्यापारी के चक्कर में पड़कर अपना जीवन खत्म न करें।खुदा हाफ़िज।
000
डा0हेमन्त कुमार
1 टिप्पणियाँ:
चित्र की शोभा बढ़ गयी सुन्दर कहानी में। .
प्रेरक कहानी
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