पुस्तक समीक्षा--पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप :एक स्मरणीय अनुष्ठान
सोमवार, 20 जुलाई 2015
पुस्तक-समीक्षा
पत्रकारिता-प्रदीप
प्रताप(मूल्यांकन)
प्रधान
संपादक-विष्णु त्रिपाठी
प्रकाशक — कलम
शिवाला रोड,कानपुर 208001
मूल्य -345
रूपये
हिंदी पत्रकारिता-विशेषकर हिंदी समाचार पत्रों का जो व्यापक एवं
बहुआयामी स्वरुप आज दिखाई पड़ रहा है,उसकी सशक्त
बुनियाद में यदि सबसे महत्वपूर्ण एक इकाई का नाम लेना हो तो नि:संदेह वह
नाम है स्व०गणेश शकर विद्यार्थी द्वारा स्थापित और सम्पादित समाचार पत्र “प्रताप”।दूसरे शब्दों में इसे हिंदी
पत्रकारिता का वह शिलालेख भी
कह सकते हैं,जो आज भी हिंदी समाचार पत्रों के लिए
एक मानक,आदर्श और चुनौती
बना हुआ है।
“प्रताप” का प्रकाशन स्व०गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा 9 नवंबर,1913 में एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू किया गया था,जोकि 1931 तक अनवरत जारी रहा।उनकी मृत्यु के बाद भी वह रुकते-चलते 1965 तक प्रकाशित होता रहा।
उन दिनों प्रताप की लोकप्रियता और अनिवार्यता से आज की पीढ़ी भले ही अनजान हो पर वह समय मूल्यों की पत्रकारिता का था,समझौतों का नहीं।अँग्रेजों के साथ-साथ देशी जमींदारों के विरोध का सामना भी उसे करना पड़ा।सच्चे अर्थों में वह जनता का समाचार पत्र था।वह आम जनता की भाषा में आम जन की समस्याओं को बराबर उठाता रहा।वस्तुत: यही उसकी ताकत थी।फरारी के दिनों में शहीद भगतसिंह ने भी नाम बदलकर प्रताप के संपादकीय विभाग में काम किया था।कई क्रांतिकारी प्रताप के कार्यालय में शरण पाते थे।
कानपुर शहर को इस बात का गर्व होना चाहिए कि हिंदी पत्रकारिता की यह अनोखी मशाल इस शहर में जली। रोशनी की इस गर्माहट को संरक्षित कर अगली पीढ़ी तक पहुंचाने के निमित्त कानपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार विष्णुट त्रिपाठी के संयोजन में गठित "प्रताप शताब्दी समारोह समिति"के तत्वावधान में नवंबर, 2012 से नवंबर,2013 तक प्रताप समाचार पत्र के शताब्दी समारोह का आयोजन किया गया।वर्ष पर्यन्त गोष्ठियां हुई,सेमीनार हुए,प्रताप से जुड़े रहे जीवित व्यक्तियों को सम्मानित किया गया और शताब्दी समारोह के समापन के बाद वर्ष 2014 में "पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप"शीर्षक से एक ऐसे दस्तावेजी ग्रन्थ को प्रकाशित किया गया,जिसे हिंदी पत्रकारिता के लिए अविस्मरणीय कहा जा सकता है।
"पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप"(प्रधान संपादक-विष्णु त्रिपाठी)के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता के उस युग को याद किया गया है,जब अखवार का प्रकाशन व्यवसाय न होकर सेवा थी।ठीक कबीर के उस आह्वाहन की तरह--"जो घर फूंके आपना चलै हमारे साथ।"इस पुस्तक की सामग्री कई भागों में है।पहले भाग में "प्रतापी प्रताप"शीर्षक से उसका विस्तृत परिचय दिया गया है।प्रताप में प्रकाशित एक दर्जन चुने हुए संपादकीय(जिन्हें उन दिनों अग्रलेख कहा जाता था।)भी दिए गए हैं,जिनसे उन दिनों की राजनीति की दशा और दिशा की जानकारी मिलती है।अगले दो भागों में गिरिराज किशोर,विजयदत्तश्रीधर,कैलाशनाथ त्रिपाठी,डा0 जीवन शुक्ल,विष्णु त्रिपाठी,डा०सशिवकुमार दीक्षित और प्रियम्वद जैसे वरिष्ठ लेखकों के सा-साथ कई वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों ने भी अपने-अपने आलेखों द्वारा प्रताप का मूल्यांकन किया है।ये सभी आलेख गहन शोध पर आधारित हैं।
इस पुस्तक के माध्यम से एक बात और सामने आई कि विद्यार्थी जी ने"हाथी की फांसी"शीर्षक से एक कहानी भी लिखी थी।इस कहानी पर आयोजित चर्चा में सम्मिलित वरिष्ठ कथाकारों--गिरिराजकिशोर,राजेंद्र राव,चन्द्रप्रकाश पाण्डेय, प्रियम्वद,कृष्णबिहारी आदि के विचारों को लिपिबद्ध करके इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया है।
यह पुस्तक इसलिए भी और महत्वपूर्ण हो जाती है कि इसमें शताब्दी समारोह के दौरान आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों के विवरणों, अखबारी कतरनों और छायाचित्रों को बहुत ही कलात्मक ढंग से स्थान दिया गया है।यह दस्तावेजी प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता के छात्रों,शोधकर्ताओं और पत्रकारों के साथ-साथ कानपुर की पत्रकारिता के गौरवशाली अतीत को जानने के इच्छुक सामान्य पाठकों को भी आकर्षित करेगा,ऐसा मेरा विश्वास है।इस पुस्तक के समर्पण आलेख को पढ़ना अपने आप में किसी खूबसूरत कविता को पढ़ने से कम सुखद नहीं है।
इस महत्वपूर्ण प्रकाशन के लिए विष्णु त्रिपाठी और उनके संपादकीय सहयोगी-श्याम सुन्दर निगम,डा०सुधांशु त्रिपाठी,चक्रधर शुक्ल तथा भारतेंदु पुरी निश्चित ही बधाई के पात्र हैं।
“प्रताप” का प्रकाशन स्व०गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा 9 नवंबर,1913 में एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू किया गया था,जोकि 1931 तक अनवरत जारी रहा।उनकी मृत्यु के बाद भी वह रुकते-चलते 1965 तक प्रकाशित होता रहा।
उन दिनों प्रताप की लोकप्रियता और अनिवार्यता से आज की पीढ़ी भले ही अनजान हो पर वह समय मूल्यों की पत्रकारिता का था,समझौतों का नहीं।अँग्रेजों के साथ-साथ देशी जमींदारों के विरोध का सामना भी उसे करना पड़ा।सच्चे अर्थों में वह जनता का समाचार पत्र था।वह आम जनता की भाषा में आम जन की समस्याओं को बराबर उठाता रहा।वस्तुत: यही उसकी ताकत थी।फरारी के दिनों में शहीद भगतसिंह ने भी नाम बदलकर प्रताप के संपादकीय विभाग में काम किया था।कई क्रांतिकारी प्रताप के कार्यालय में शरण पाते थे।
कानपुर शहर को इस बात का गर्व होना चाहिए कि हिंदी पत्रकारिता की यह अनोखी मशाल इस शहर में जली। रोशनी की इस गर्माहट को संरक्षित कर अगली पीढ़ी तक पहुंचाने के निमित्त कानपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार विष्णुट त्रिपाठी के संयोजन में गठित "प्रताप शताब्दी समारोह समिति"के तत्वावधान में नवंबर, 2012 से नवंबर,2013 तक प्रताप समाचार पत्र के शताब्दी समारोह का आयोजन किया गया।वर्ष पर्यन्त गोष्ठियां हुई,सेमीनार हुए,प्रताप से जुड़े रहे जीवित व्यक्तियों को सम्मानित किया गया और शताब्दी समारोह के समापन के बाद वर्ष 2014 में "पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप"शीर्षक से एक ऐसे दस्तावेजी ग्रन्थ को प्रकाशित किया गया,जिसे हिंदी पत्रकारिता के लिए अविस्मरणीय कहा जा सकता है।
"पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप"(प्रधान संपादक-विष्णु त्रिपाठी)के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता के उस युग को याद किया गया है,जब अखवार का प्रकाशन व्यवसाय न होकर सेवा थी।ठीक कबीर के उस आह्वाहन की तरह--"जो घर फूंके आपना चलै हमारे साथ।"इस पुस्तक की सामग्री कई भागों में है।पहले भाग में "प्रतापी प्रताप"शीर्षक से उसका विस्तृत परिचय दिया गया है।प्रताप में प्रकाशित एक दर्जन चुने हुए संपादकीय(जिन्हें उन दिनों अग्रलेख कहा जाता था।)भी दिए गए हैं,जिनसे उन दिनों की राजनीति की दशा और दिशा की जानकारी मिलती है।अगले दो भागों में गिरिराज किशोर,विजयदत्तश्रीधर,कैलाशनाथ त्रिपाठी,डा0 जीवन शुक्ल,विष्णु त्रिपाठी,डा०सशिवकुमार दीक्षित और प्रियम्वद जैसे वरिष्ठ लेखकों के सा-साथ कई वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों ने भी अपने-अपने आलेखों द्वारा प्रताप का मूल्यांकन किया है।ये सभी आलेख गहन शोध पर आधारित हैं।
इस पुस्तक के माध्यम से एक बात और सामने आई कि विद्यार्थी जी ने"हाथी की फांसी"शीर्षक से एक कहानी भी लिखी थी।इस कहानी पर आयोजित चर्चा में सम्मिलित वरिष्ठ कथाकारों--गिरिराजकिशोर,राजेंद्र राव,चन्द्रप्रकाश पाण्डेय, प्रियम्वद,कृष्णबिहारी आदि के विचारों को लिपिबद्ध करके इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया है।
यह पुस्तक इसलिए भी और महत्वपूर्ण हो जाती है कि इसमें शताब्दी समारोह के दौरान आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों के विवरणों, अखबारी कतरनों और छायाचित्रों को बहुत ही कलात्मक ढंग से स्थान दिया गया है।यह दस्तावेजी प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता के छात्रों,शोधकर्ताओं और पत्रकारों के साथ-साथ कानपुर की पत्रकारिता के गौरवशाली अतीत को जानने के इच्छुक सामान्य पाठकों को भी आकर्षित करेगा,ऐसा मेरा विश्वास है।इस पुस्तक के समर्पण आलेख को पढ़ना अपने आप में किसी खूबसूरत कविता को पढ़ने से कम सुखद नहीं है।
इस महत्वपूर्ण प्रकाशन के लिए विष्णु त्रिपाठी और उनके संपादकीय सहयोगी-श्याम सुन्दर निगम,डा०सुधांशु त्रिपाठी,चक्रधर शुक्ल तथा भारतेंदु पुरी निश्चित ही बधाई के पात्र हैं।
समीक्षक-कौशल पाण्डेय
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