आज सुबह से उसका मन अजीब-सा हो रहा है. कुछ अच्छा नहीं लग रहा. गर्मी
भी बहुत पड़ रही है. धुंआसा आकाश गरम राख की ढेर की तरह दिख रहा है - कई-कई पर्तों
में दूरतक जमा हुआ. पेड़-पौधे भी एकदम चुप. कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिल रहा. सब जैसे
दम साधे पड़े हैं!
वह
खिड़की पर खड़ी रहती है अनमनी-सी. बहुत काम है. पूरा घर ही पड़ा है - बर्तन, कपड़े, रसोई...
मगर वह खड़ी है! ढाई बजे तक कबीर आ जायेगा लंच के लिये. व्यस्त, हड़बड़ी
में. हमेशा की तरह खीजा हुआ. उसे बहुत काम है... पूरी दुनिया की जिम्मेदारी उसी के
सर पर! वह गहरी सांस लेती है. नीचे सड़क पर लोग नदी की तरह बह रहे हैं - गाड़ियां, रिक्शे, पैदल...
कितने रंग, कितने रुप, कैसी-कैसी
आवाज़ें... देखते हुये जाने कब वह भी उन्ही का एक हिस्सा हो जाती है. सालों पहले वह
भी इस जनसैलाब के साथ सुबह से शाम तक इस शहर की सड़कों और गलियों में नामालूम बहा करती
थी. तब ज़िन्दगी मुश्किल थी, मगर यूं ठहरी हुई न थी. अब तो सालों से रुके
हुये इस पानी से बदबू आने लगी है! कुछ सड़ रहा है उसके भीतर बहुत चुपचाप...वह जानती
है, मगर इसका क्या करे सोच नहीं पाती. उसका जी चाहता है, कभी
सड़क पर किसी औरत का हाथ पकड़कर पूछे - वह कहां जा रही है, घर
या घर से बाहर? इतना क्या काम होता है उसे! उसके चौबीस घंटे
तो ख़त्म ही नहीं होते! वह घर के काम करती है, खाना बनाती है, कबीर
के अख़बार के दफ़्तर से लाये हुये फाईलों के अंबार सहेजती है, प्रूफ
रीडिंग आदि, फिर भी...
कभी-कभी
उसे महसूस होता है, उसके भीतर एक तलहीन कुआं है - सिला, बोसीदा, अंधकार
से भरा हुआ! जब भी वह अकेली होती है, वह उसमें डूबने-सी लगती
है और ऐसा अक़्सर होता है! उसे बहुत डर लगता है अपनेआप में होने से. वह खुद से निज़ात
पाने के तरीके ढूंढ़ती रहती है मगर अंतत: उसे लौटना ही पड़ता है अपनेआप में... खुद से
छूटना कभी कहां संभव हो पाता है! जीवन की ये एक बहुत बड़ी त्रासदी है, कम
से कम उसके जीवन की!
वह
किचन में आकर बर्तन मांजती है, सामान दुरुस्त करती है और फिर दो दिनों से
जमा कचरे की थैली फेंकने के लिये नीचे जाती है. ऐसा करते हुये उसे हमेशा संकोच होता
है. नीचे के दो मंज़िलों में दो पंजाबी परिवार रहते हैं. दोनों ही उनसे नहीं बोलते.
देखते ही उनके घर की औरतें मुंह फेर लेतीं हैं. यह बहुत अपमानजनक प्रतीत होता है उसे.
पहले माले के गुरमीत सिंह की पांच साल की बच्ची चिंकी कभी-कभी उसके पास आ जाती थी.
मक्खन की बनी गोल-मटोल गुड़िया जैसी,
बहुत प्यारी! अपने अकेलेपन से बेइंतिहां
ऊबी हुई वह रोज दोपहर को टॉफियां लेकर उसका इंतज़ार करती थी. एकदिन जब चिंकी उसकी गोद
में बैठकर उससे बातें कर रही थी,
उसकी मां उसका कान पकड़कर उसे वहां से खींचते
हुये ले गयी थी. उसकी दी हुई टॉफियां भी फेंक दी थी - ‘तुझे
मना किया था ना यहां आने से!’ उसदिन उसने खुद को बहुत अपमानित महसूस किया
था. उस बच्ची की बेबस रूलाई ने उसे कहीं से बहुत छोटी कर दिया था. वैसे जब से वह और
कबीर साथ रहने लगे हैं, उन्हें, खासकर उसे लोगों की बदतमीजी
और ताने बहुधा सहने पड़े हैं. कबीर के पहलेवाले घर में जिसदिन वह अपना सामान लेकर गई
थी, उसके दूसरे ही दिन उन्हें वह मकान छोड़ना पड़ा था. इसके बाद दो महीने
तक उन्हें कबीर के एक कामरेड दोस्त के घर एक झोपड़पट्टी में रहना पड़ा था. वहां भी आसपास
के लोगों का रबैया उनके प्रति रुखा था. लोग उन्हें संशय और अवज्ञा से देखते, पीछे
से कानाफूसी करते, मुंह दबाकर हंसते.
बहुत
मुश्किल से आखिर यह एक कमरे का घर मिला था. कबीर के एक और कामरेड का घर. उनकी शादी
नहीं हुई है और फिर भी साथ रहते हैं सुनकर सभी मकान किराये पर देने से इंकार कर देते
थे.
कबीर
को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता! वह एक नई दुनिया बनाने में रातदिन मशगूल है. बहुत
बड़ा काम है यह. छोटी-छोटी बातों के लिये उसके पास समय नहीं! ज़िन्दगी की छोटी, तुच्छ
बातों से जूझने का झमेला उसने उसके लिये रख
छोड़ा है - "तुम औरतें जात और औकात से पूसी बिल्ली ही होती हो. जीवन क एक ही मक़सद
- किसी तरह एक मर्द को घेर-घारकर रिश्ते की काल कोठरी में डालना और फिर ज़िन्दगी भर
उसका शोषण! इमोशनल अत्याचार! अपनी कीमत वसूलना तुम औरतों को खूब आता है... सो कॉल्ड
प्यार, जिस्म, कोख - सबका दाम चाहिये तुम्हें! चूल्हा, हांडी, नून-तेल...
इससे आगे ज़िन्दगी को बढ़ने ही नहीं देती! मर्दों को भी इसी में घोंटकर रख देती हो!"
उसकी
बातें सुनकर वह बहुत रोई थी. उसी दिन उसका पहला गर्भपात हुआ था. यह सुनते ही कि वह
प्रेगनेंट है, कबीर ने उसके हाथ में कुछ रुपये रख दिये
थे अबोर्शन के लिये और साथ में एक चेतावनी और विकल्प - "या तो बच्चा या वह. मुझे
क्या पता था तीस साल की औरत को इतनी-सी सावधानी रखनी नहीं आती! जिस्म तुम्हारा है, इसे
सम्हालना भी तुम्हें ही है!"
उसने
कहने की कोशिश की थी - "एक बच्चा आ जाता तो... मैं बहुत अकेली हो जाती हूं तुम्हारे
बाद!"
सुनकर
कबीर बिफरा था - "दुनिया में और भी ग़म हैं बच्चे पैदा करने के सिवा मैडम! समय
नहीं कटता तो जाकर झोपड़पट्टी के बच्चों को पढ़ाओ, अनपढ़ औरतों को उनके हक़
और सेहत के बारे में सचेत करो... देखो समय कैसे कटता है! जबतक इस दुनिया में इतनी भूख
है, ग़रीबी है, बच्चे पैदा करना ज़ुर्म है! हमारे देश में
भी चीन की तरह हर जोड़े को एक ही बच्चा पैदा करने का हक़ मिलना चाहिये. मगर यहां.. हूं!
एकबार इंदिरा गांधी ने यह कोशिश की,
नसबंदी करवाया तो उसकी खटिया ही खड़ी कर दी लोगों ने! इसलिये तुमसे कहता हूं चांपा! इतना आत्मकेंद्रित
मत बनो! खुद से ऊपर उठो और इस अभागी दुनिय के बारे में भी कुछ सोचो."
वह
क्या कहती! रोती रही थी. इतने दिनों के साथ से वह इतना तो जान ही चुकी थी कि किसी पत्थर
को पिघलाना आसान है मगर कबीर को उसके फैसले से डिगाना संभव नहीं. जाते-जाते कबीर कह
गया था - "दुबारा मुझे इस जाल में फंसाने की कोशिश मत करना. सेक्स की इतनी बड़ी
कीमत चुकाने के लिये मैं तैयार नहीं. इसके लिये तुम्हें दूसरा आसामी देखना पड़ेगा!"
वह कहीं से दग्ध होकर रह गई थी. आसामी! कीमत! ज़िन्दगी की सबसे खूबसूरत नियामतों को
कैसा भद्दा, बेहूदा नाम दिया है कबीर ने! उसके अंदर की
औरत ने तो बस अपने प्यार को एक आकार देना चाहा था, एक मुकम्मल रुप. अहसासें
- जिस्म में ढलतीं, शक़्ल अख़्तियार करतीं... वह फिर से रचती कबीर
को अपने भीतर, सांचे में ढालती अपने प्यार को! जाने यह
कौन-सी विचारधारा है जो हाड़-मास के इंसान को रोबोट में तब्दील करके रख देती है! प्यार
कुछ नहीं, आस्था कुछ नहीं... बस भूख, हथियार
और प्रतिशोध! जो परिवर्तन लाना है वह लाशों पर चलकर लाना है... दुनिया को तोड़कर गढ़ना
है. पुराना कुछ भी न बचे. देखना नहीं है पैरों के नीचे क्या आ रहा है - दिल, रिश्ते, भावनायें...
मनुष्यों की दुनिया नहीं, पशुओं की दुनिया जिसमें हृदय नहीं, पेट
ही सबसे बड़ा सच होता है. भूख - जठराग्नि में सबकुछ होम होकर रह जाता है, उसीसे
संचालित होता है.
एक
खूबसूरत दुनिया वह भी चाहती है,
मुस्कराते, खुशहाल
चेहरे उसे भी भाते हैं, मगर निर्माण के लिये ध्वंस का ही रास्ता
क्यों! प्रेम भी तो एक हथियार हो सकता है! कुछ नया करने के लिये हर पुराने का बहिष्कार
करना क्यों ज़रुरी है? वह इन बातों को समझ नहीं पाती है. वह औरत
है. संरक्षण उसका स्वभाव है, सृजन उसकी प्रकृति! उसे तोड़ना कुछ नहीं है, बस
रचना है, सहेजना है, बचाना है!
उसे
लगता है,
कबीर के साथ उसने बाकी चीज़ों के साथ खुद को भी खो दिया है. बहुत
पीछे छूट गया है उसका आप. वह बस कबीर की परछाई बनकर रह गयी है. यह भी तो एक तरह की
हिंसा,
शोषण है! उसे पूरी तरह से निगल जाना,
ख़त्म
कर देना! दुनिया भर के शोषण के ख़िलाफ अपनी अख़बार में आवाज़ उठाते हुये क्या कबीर को
कभी अहसास होता है कि कहीं न कहीं वह भी इन्हीं शोषकों की जमात में शामिल हो गया है.
विडंबना है कि चारों तरफ उजियारा बिखेरते हुये दीपक अपने तल में पनप रहे अंधियारे को
भूल जाता है!
वह
एक बार फिर पत्रिका में छपी अपनी कविता देखती है-‘मेरा होना भी ज़रूरी है
मेरे लिये...’ सीने से एक गहरी सांस निकल आती है. जब से
यह पत्रिका हाथ में आई है वह इसी ऊहापोह में है कि इसे कबीर को दिखाये या नहीं. कबीर
को उसके लेखन से नफरत है. पहले भी कहता था - ‘स्त्री अस्मिता, दलित
चिंतन... तुम्हारी इन कविताओं से एक शाम का खाना जुट सकता है? किसी
की भूख मिट सकती है? हां अबतक जो किलो डेढ़ किलो कचरा इकट्ठा किया
है उससे एकबार चूल्हा ज़रुर जलाया जा सकता है. मोहतरमा! चांद-सितारों की दुनिया से निकलकर
कभी ज़मीन पर भी अपने हसीन पैर रखिये... फिर देखिये, ये कितनी सख़्त है! भरपेट
खाकर जिस गोल-मटोल चांद पर आप पलायनवादी साहित्यकार नरम-गुगगुदी कवितायें लिखते हैं
न, एक भूखे इंसान को वह एक अधजली रोटी से ज़्यादा कुछ नहीं लगता! जिसके
पेट में भूख का सनातन दावानल हो उसे फूल की सुगंध से मतली आती है...’
एकबार
जब वह दो दिन के लिये कहीं गई हुई थी, कबीर ने उसकी सारी कवितायें
रद्दी में बेच दी थी. पूछने पर उल्टा उसपर बिफरा था - ‘ज़्यादा
बमकिये मत, कुल मिलाकर चालिस रुपये कीमत की रचनायें...
बेचकर एक अदद ठर्रे की बोतल नहीं खरीद सका, इंकलाब तो क्या ख़ाक होता!
आपको कहीं ये गुमान तो नहीं हो गया था कि आपने ’दास कैपिटल’ टाईप
का कुछ कमाल लिख दिया है...’
उसके
बाद वह दो दिन तक बिना खाये-पिये रोती रही थी, मगर कबीर ने माफी मांगनी
तो दूर, मुड़कर देखा भी नहीं था.जैसे-तैसे
काम निपटाकर वह बैठी ही थी कि कबीर आ धमका था. हमेशा की तरह गरम और खीजा हुआ. साथ में
दो कामरेड. चूल्हे पर दाल की पतीली चढ़ी हुई देखकर एकदम से आग़बबूला- "अभी तक खाना
नहीं बना! करती क्या रहती हो सुबह से?"
उसके
हाथ में पत्रिका थमाते-थमाते वह झिझक गई थी - "ये..."
"क्या
है यह!" उसने विरक्ति से भरकर कविता पर नज़र दौड़ाई थी- "ओह! कविता... तो अबतक
इसका भूत उतरा नहीं तुम्हारे सिर से..." बिना पढ़े उसने पत्रिका मेज़ पर रख दी थी-
"दुनिया में और भी ग़म हैं... कविताबाजी के सिवा!"
"मसलन?" अपने आसुओं को किसी तरह जब्त करते हुये उसने पूछा था.
"मसलन
समय पर खाना बनाना... दिनभर खटता हूं, घर में बैठे-बैठे यह भी
नहीं होता तुमसे कि वक़्त पर दो रोटी ही परोस दो? हद है आलसीपने की. पूरी
दुनिया ताक पर रखकर साहित्य साधना हो रही है! कहो, अब कौन-सी नई ज़मीन तोड़ने
का इरादा है? फूल तोड़ते जिसकी कलाई लचक जाती है वह रोज़
हथौड़ा उठाकर साहित्य में नई-नई ज़मीनें तोड़ने निकल रही हैं..."
"बस
बहुत हो गया..." उसने आसूं पोंछकर सबको खाना परोस दिया था और फिर रसोई में बैठकर
गर्मी में सीझती रही थी. छोटी-सी खिड़की से
एक गंदला, धुआंता आकाश दिख रहा है, छत
की मुंडेर पर कबूतर का जोड़ा गुटरगूं करता हुआ, बिजली के तारों के गुंझल
में अटकी हुई एक बेरंग पतंग... धूल में लिथड़ी उसकी यह दुनिया कितनी तंग, कितनी
छोटी हो गई है! इस मकान में एक ही कमरा है - एक कमरा, रसोई
और छोटी-सी बैल्कनी. जब भी कबीर के दोस्त आते हैं उसे रसोई में बैठना पड़ता है. कभी-कभी
घंटों. सस्ती शराब के घूंट के साथ दुनियाभर के मजलूमों की बातें करते हुये कबीर उसे
भूल जाता है. बड़े-बड़े दुखों के आगे उसके इन छोटे-छोटे दुखों के क्या माने है. कुछ भी
तो नहीं! कामरेड्स एक-दूसरे के दुख-दर्द बांटते हैं, मिल-जुलकर सबकुछ सांझे
में जीते हैं. उनसब के बीच उसकी तकलीफें अकेली, अनकही रह जाती हैं. कुछ
कहने जाओ तो कबीर की वही झिड़कियां - ‘बस रातदिन अपना रोना, अपने
दुख... कभी खुद से बाहर भी निकलना सीखो! हमारी-तुम्हारी हालत तो बहुत अच्छी है, दो
शाम का खाना मिल जाता है. दुनिया में करोड़ों ऐसे हैं जिन्हें एक जून की रोटी नसीब नहीं.
अगर हर कोई तुम्हारी तरह अपना ही लेकर बैठ जायेगा तो फिर समाज के तलछट में पड़े, हाशिये
में धकेल दिये गये इन बेक़सों के लिये कौन लड़ेगा, कौन इनकी आवाज़ बुलंद करेगा? सिर्फ़
एक व्यक्ति नहीं, समाज बनकर भी जीना सीखो... अब इन नून-तेल
जैसी बेकार की बातों में मेरा समय जाया मत करो, मुझे सिंगुर आंदोलन के
समर्थन में सम्पादकीय लिखना है. एकदम आग़ लगा दूंगा!’
वह
ग्लानि से भरकर चुप हो जाती. शायद वह सचमुच स्वार्थी है. अपनी ही परेशानियों में डूबी
रहती है. खाना खाते हुये अपने कामरेड्स के साथ गरमागरम बहस के बीच कबीर झल्लाकर पूछता
- ‘आज सिर्फ़ दाल-रोटी! सब्जी क्यों नहीं बनी? आदमी
खायेगा नहीं तो काम कैसे करेगा?’
वह कैसे बताती कि आज बड़ी मुश्किल से ये दाल-रोटी
जुटी है. घर की ज़रुरतों की बात वह कबीर से कर नहीं पाती क्योंकि बकौल कबीर ये तुच्छ
बातें हैं, मगर वह जानती है इन तुच्छ बातों के लिये
उसे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं. किताबों की प्रूफ रीडिंग, हिन्दी
टाइपिंग, ट्युशन... फिर भी घर बड़ी मुश्किल से चलता है! पूरी दुनिया की चिंता
करना कबीर का काम है. वह सामाजिक सरोकार का आदमी है. कमाना, घर
चलाना, दाल-रोटी की जुगाड़ जैसे छोटे-मोटे काम उसके जिम्मे, क्योंकि
वह साधारण स्त्री है. उसका कोई बड़ा लक्ष्य नहीं, महत उद्देश्य नहीं. इतना
भी नहीं करेगी तो क्या करेगी! वह पसीने में डूबी रसोई में बैठी-बैठी सुनती रहती है
दुनिया को सिरे से बदल डालने की योजनायें, नये समाज का निर्माण, एक
आर-पार की लड़ाई... सभी जोश में हैं. इसी जोश में कभी कोई पानी मांग रहा है, कभी
कोई कुछ और. सबकी इस जिस्मानी और दिमाग़ी ऊर्जा के लिये ईधन जुटाती हुई वह छीजती हुई
सोचना चाहती है, इस आनेवाली क्रांति का जब इतिहास लिखा जायेगा, उसमें
उसका नाम कहां होगा!... कहीं भी तो नहीं! दो हाथ तो उसके भी रातदिन ज़िन्दगी से जूझते
रहते हैं, पसीना तो उसे भी बहुत आता है. सारे कामरेडों
ने मिलकर उसके हिस्से की रोटियां भी खा ली है. आखिर इतने जोश और जुनून खाली पेट तो
पैदा नहीं हो सकता... वह पानी पीते हुये समझने की कोशिश करती है, मगर
पेट भूख से ऐंठता रहता है.
उनके
जाने के बाद वह बैल्कनी में बैठकर पत्रिका के पन्ने पलटकर अपनी छपी हुई कविता को बार-बार
देखती है. कितने सालों बाद उसकी कोई रचना किसी पत्रिका में छपी है! सालों हो गये उसने
लिखना छोड़ दिया था. एक तो हालात ऐसे थे, उसपर कबीर के रात-दिन
के ताने - ‘तुम लोगों के लिजलिजे सौंदर्यबोध पर वाकई
हैरत होती है! पीलियाग्रस्त रोगी की आंख-से पीले चांद पर मरे जा रहे हैं! प्रियतम के
होंठ, गाल, ज़ुल्फों पर दोनों जहां कुर्बान... वाह! क्या
जज़्बात हैं! जिस धरती पर खड़े हैं उसकी ख़बर नहीं, करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर
टिमकते तारों को गिन-गिनकर रात काट रहे हैं. इन्हें खाना नहीं, यार
का दीदार चाहिये, पानी नहीं, लबों
का सुर्ख प्याला चाहिये... मेरा वश चले तो इन बेतुकी बातों से कागज़ काला करनेवालों
को गोली से उड़ा दूं! दे आर दी रीयल पैरासाइटस ऑफ दी सोसायटी. मजदूरों की मेहनत पर जीकर
चांद-तारों की दुनिया में सर डाले शुतुरमुर्ग की तरह बेफिक्र बैठे रहते हैं. इनके सर
भी एकदिन गिलोटीन में जायेंगे देखना. रातदिन
बैठ-बैठकर अवाम के लिये साहित्य के नामपर भांग घोंटते रहते हैं ये जातिवाद, पूंजीवाद
के एजेंट!’
वह
कमज़ोर-सा प्रतिवाद करना चाहती - ‘तो तुम्हीं सौंदर्य की परिभाषा बतला देते...’ कबीर
उसकी बात लपक लेता - ‘हां, क्यों नहीं! मैडम! सौंदर्य
फूल, चांद में नहीं,
मजदूरों की मेहनत में है! श्रम के सौंदर्य
को पहचानो... पसीने की गंध, हल चलाते किसान की बांहों की मछलियां, उसकी
मेहनत से कठोर हुई मांस-पेशियां,
धूप-ताप से जली देह... धूल-मिट्टी और पसीने
से लिथड़ी मजदूर औरतों का रुप देखा है कभी ध्यान से? तुमलोगों की मधुबाला, ऐश्वर्या
से हज़ार गुना ज़्यादा सुंदर और मादक! एक अलग ही तरह की उत्तेजना और नशे से भर देतीं
हैं. वर्ग संघर्ष से जो आग़ पैदा होती है, स्फूलिंग उड़ती है, रक्त
की नदियां बहती है और अंतत: एक समानता, न्याय और सार्वभौमिक कल्याण
की मुकम्मल छवि बनती है उसे शब्द दो, वाणी दो!’
सुन-सुनकर
उसके कान पक गये थे. उसके सामने काग़ज-क़लम लेकर बैठने से भी वह कतराने लगी थी. कौन हर
बात पर इतने ताने और भाषण सुने. शुरु-शुरु में उसे कुछ लिखते देख वह व्यंग्य से मुस्कराता
- ‘क्यों, आज कौन-सी क्रांति करने जा रही हो... अच्छा
है इन बुद्धिजीवियों का! बाहर पूरी दुनिया में आग़ लग जाय, ये
दरवाज़ा बंद करके विद्रोह के गीत लिखेंगे, हवाई घोड़े पर बैठकर काठ
की तलवार भांजेंगे... मगर दरवाज़ा खोलकर एकबार बाहर निकलने बोलो, इनकी
नानी मर जायेगी. हां! टी. वी. डिबेट आदि में मुंह भर-भरकर बहस करना या मोमबत्ती लेकर
जुलूस निकालन इन्हें खूब आता है. कायर, परजीवी, बिना
रीढ़ के रेंगनेवाले केंचुए! इनकी सारी वग़ाबत कागज़ पर! भैंस की तरह खा-पीकर सारा दिन
जुगाली- बौद्धिक चर्वण! इन सबको चाबुक मार-मारकर खेतों, कारखानाओं
में ले जाना चाहिये जैसे कम्बोडिया के जन विद्रोह में हुआ था. चांद पर फूलों की फसल उगा रहे हो? चलो, यहां
अनाज उगाकर दिखाओ! खुशहाल दुनिया का सपना मत दिखलाओ, कुछ हकीक़त में करो, एक
जून की रोटी पैदा करो ज़मीन की सूखी छाती से... फिर देखें आपकी औकात, विश्व
प्रेम, मानवतावाद!’
कबीर
के जाने के बाद वह फर्श पर चटाई बिछाकर पड़ी रहती है - उनींदी-सी. ऊपर छतपर बिजली का
पंखा लंगड़ा-लंगड़ाकर घूम रहा है,
मरियल चाल से. घूमने से ज़्यादा शोर कर रहा
है. दोपहर के वक्त ऊपरी मंज़िल का यह कमरा भट्टी में तब्दील हो जाता है. बैल्कनी के
खुले हुये दरवाज़े से गर्म, सूखी हवा के झोंकें आ रहे हैं. धूल से भरा
आसमान पीला दिख रहा है. बहुत ऊपर चक्कर काटती हुई चील की टिहकारी रह-रहकर सुनाई पड़
रही है. वह अपने आसपास को महसूसती है और तंद्रालस पड़ी रहती है. उसे हर समय ऐसा क्यों
लगता है कि वह रोना चाहती है. बहुत कोशिश करके उसे हर काम करना पड़ता है. मन नहीं लगता.
दौड़ते-भागते अचानक थक जाती है, यहां-वहां ढह पड़ती है, मुंह
दबाकर रोने लगती है. सुबह उठकर सोचती है- ओह! एक और दिन... चूल्हा, धुआं, बर्तनों
के अंबार के पीछे क्षितिज छिप जाता है. कितने दिन हो गये डूबता सूरज नहीं देखा, चांद
का निकलना नहीं देखा... उसे अपने मामा के घर के आंगन में खड़ा बड़े नींबू का छतनार पेड़
याद आता है. बारिश के दिनों में हल्के पीले फूलों से भर जाता था. उनकी तेज़, मादक
सुगंध... गहरी बैंजनी संध्या में खिड़की पर अनवरत झड़्ता आकाश और उस गंध से बोझिल भीगी
हवा... याद करके वह आज भी सराबोर हो उठती है! इस तंग, छोटी
कोठरी में उसे नींबू का वह पेड़,
अप्रैल की उलटी-पलटी बहती हवा, बासंती
शामें कुछ अधिक ही याद आती हैं.
जब
वहां थी तब कभी ऐसा नहीं लगा था कि ज़िन्दगी के ये दिन खूबसूरत हैं. तब भी तो वह किसी
अच्छे दिन के इंतज़ार में इसी तरह खिड़की पर खडी रहती थी. बचपन में मां-बाप गुज़र गये
थे. मामा ने ही पाला था. मगर मामी के दुर्व्यवहार से उसका जीवन त्रस्त था. नि:संतान
मामी के हृदय में जाने क्यों विधाता ममता देना भी भूल गये थे. उनकी कोख की तरह ही उनका
मन भी खाली रह गया था. वह रातदिन उनकी आंखों में खटकती रहती थी. मामा उसे अपनी आड़ में
लिये रहते थे, मगर हर समय बचाना उनके लिये संभव नहीं था.
हर समय घर के काम करते हुये उसके लिये पढ़ाई-लिखाई के लिये समय निकालना कठिन होता था.
मामी की डांट-फटकार और घर भर के काम के बाद वह आंगन के किसी कोने में बैठकर तब भी किसी
अच्छे दिन के सपने देखा करती थी. मगर तबके और अबके हालात में एक बहुत बड़ा फर्क ये है
कि तब सारी मुसीबतों के बीच भी एक उम्मीद थी - उम्मीद एक दिन सब कुछ ठीक हो जाने की, हालत
बदलने की. मगर अब वह उम्मीद भी नहीं बची है. अब लगता है कुछ होना नहीं है, कुछ
बदलेगा नहीं! ज़िन्दगी इसी तरह ख़त्म हो जायेगी. सोचकर उसे घबराहट होती है.
दोपहर
के धुआंते आकाश में रंग के रेशे घुल रहे हैं, पश्चिम में सूरज दूर बेडौल
ईमारतों के पीछे उतर रहा है. गर्मी से परेशान होकर वह बाहर बैल्कनी में निकल आई है.
बाल पसीने से भीगकर कनपट्टियों पर चिपक गये हैं. ब्लाउज भी पीठ की तरफ से पूरी तरह
भीगा हुआ है. सुराही में भी अब पानी ठंडा नहीं हो रहा. पानी पीकर लगता है प्यास और
बढ़ गयी है. वह अपनी मुसी साड़ी में बैल्कनी में खड़ी सड़क की दूसरी ओर पार्क में खेलते
बच्चों को देखती रहती है. बच्चों के दौड़ने से चारों ओर धूल उड़ रही है. पार्क की दीवार
से लगकर गोलगप्पे, चिनिया बदाम, हवाई
मिठाई, मलाई बरफ, फिरके, बलून आदि बेचनेवालों की
भीड़ लगी है. पार्क के दूसरी तरफ पानी की बड़ी टंकी के पास बहुत से लोग गोल होकर भालू
का नाच देख रहे हैं. भालूवाला डमरु बजाते हुये गा रहा है - ‘राजा
डिस्को जायेगा, राजा डांस करेगा...’ और
बिचारा राजा अपने गंदे बड़े-बड़े बालों में गर्मी से त्रस्त पीछे के दो पंजों पर खड़ा
होकर घुर्र-घुर्राते हुये हांफ-हांफकर थप-थप नाच रहा है. नाच की गति धीमी होते ही नाक
की नकेल खिंची जाती है और वह तिलमिलाकर तेज़ी से उछलने लगता है. चारों तरफ धूल, धुआं, खुली
हुई नालियां, शोर, भैंस का तबेला... शाम
घिरते ही माथे पर फनल की तरह मच्छरों का जत्था मंडराने लगा है. उनकी तेज़ भनभनाहट को
सुनते हुये उसके भीतर कुछ घुलाता रहता है. यहां बदबू है, घुटन
है, गंदगी है... दूर गली के सिरे पर एक टुकड़ा मटमैला आकाश फटी हुई पतंग
की तरह अटका हुआ है... ज़रा-सी खुली जगह, हवा और आकाश के लिये उसका
मन अकुलाता रहता है. रसोई की धुआंयी दीवार पर लगे कैलेंडर के चित्र को वह बार-बार देखती
है. शायद कश्मीर का है - हरी-भरी वादियां, नीली झील और बर्फ से ढंके
पर्वत की सफेद चोटियां... वह आंख बंदकर गहरी सांस लेते हुये वहां की हवा को महसूस करने
की कोशिश करती है. बहुत बार जब तेज़ गरमी में यह छोटा मकान किसी तंदूर की तरह तपने लगता
है, उसका जी चाहता है दरवाज़ा खोलकर वह कहीं भाग जाये - कहीं भी जहां
इतनी घुटन, इतनी गर्मी, इतनी गंदगी न हो...(क्रमशः)---------।
जयश्री
राय ने बहुत ही कम समय में हिन्दी के युवा कथाकारों में अपनी एक अलग पहचान
बना ली है। हजारीबाग बिहार में
पैदा हुयी और गोवा युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में गोल्ड मेडलिस्ट जयश्री राय
के अब तक तीन कहानी संग्रह(अनकही,तुम्हें छू लूं जरा और खारा पानी),तीन
उपन्यास(औरत जो नदी है,साथ चलते हुये,इकबाल) और एक कविता संग्रह(तुम्हारे लिये)
प्रकाशितइन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में नियमित कहानियों,कविताओं का
प्रकाशन। फ़िलहाल गोवा में निवास और स्वतन्त्र लेखन।
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