विश्व रंगमंच दिवस पर-- हंगामाये वर्कशाप --बोले तो--चाकलेटी बच्चे/खुरदुरे बच्चे
बुधवार, 26 मार्च 2014
हर शहर में गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों के लिये एक बहार सी आ जाती
है।आप कहेंगे ये कौन सी बहार है भैया जो गर्मियों में ही आती है?अरे जनाब ये बहार
होती है वर्कशाप यानी कार्यशालाओं की।जिधर देखिये उधर कार्यशालायें।कहीं बच्चों को
नाचना सिखाया जा रहा है तो कहीं गाना,कहीं ऐक्टिंग तो कहीं राइटिंग,कहीं पेन्टिंग
तो कहीं क्राफ़्ट ।मतलब ये कि गर्मियां आते ही हर शहर कार्यशालामय हो उठता है।
अभी
कल शाम ही मुझे भी एक ऐसी ही वर्कशाप की प्रस्तुति में बतौर दर्शक जाने का सौभाग्य
मिला था।ये सौभाग्य मुझे हर साल मिलता है।(शहर के बहुत से धनी महानुभाव कुछ धन का
दान करके इन कार्यशालाओं में जज या मुख्य अतिथि भी बन जाते हैं।) कई वर्कशाप होती
हैं शहर में।आप भी चाहें तो किसी वर्कशाप में जज बनने क सौभाग्य पा सकते हैं। वास्तविक
जीवन में जज बनने का अवसर गंवा चुके लोगों के लिये यह एक सुनहरा मौका होता है।ऐसी
वर्कशाप तो आप लोगों के शहरों में भी होती ही होंगी। हर शहर में गर्मी शुरू होते
ही जैसे कोई वर्कशाप फ़्लू आ जाता है।जिधर देखो उधर वर्कशाप।चाहे वो लखनऊ हो दिल्ली
हो या भारत का कोई और शहर।
कुछ भी हो भाई मुझे तो मजा आ गया स्टेज पर हुई प्रस्तुति देखकर।मैं देख तो
रहा था स्टेज पर हो रही बच्चों की उछल कूद को लेकिन सोच रहा था उस बुद्धिमान आदमी
के बारे में जिसने इन वर्कशापों को इजाद किया होगा।भाई खूब दिमाग लड़ाया होगा
उसने…तभी तो इतने काम की चीज खोजी।आप जरा अपने बचपन के दिनों को याद करिये--- या अगर वहां तक नहीं पहुंच
पा रहे तो थोड़ा दस साल पीछे चले जाइये---।क्या ऐसी वर्कशाप पहले होती थी कोई?मुझे
तो नहीं याद आ रहा---लेकिन धन्य हो इसके खोजकर्ता और धन्य हो सांस्कृतिक कार्य
विभाग---जिसकी बदौलत ये वर्कशाप हो रही हैं और हमारे जैसों को जज या मुख्य अतिथि बनने
का अवसर मिल जाता है।
अब आइये इन वर्कशापों के
फ़ायदों की तरफ़ नजर डाल ली जाय। इन कार्यशालाओं से बच्चों का तो फ़ायदा है ही,अभिभावकों को
भी बड़ा भारी लाभ मिलता है। आप पूछेंगे कैसे?अरे भाई सीधी सी बात है … महंगाई का
जमाना है। छुट्टी होते ही बच्चे हल्ला करेंगे कि पापा कहीं घुमाओ…अब इतनी महंगाई---रिजर्वेशन
की किल्लत---धरना प्रदर्शन---रैली—जाम और आतंकवाद के भय के साये में बेचारे पापा कहां ले जायें बच्चों को। मान
लीजिये किसी तरह सारे भयों पर विजय पा भी लें तो अर्थव्यवस्था---इसका इन्तजाम कहां
से होगा?छोटी से छोटी जगह भी ले जायेंगे तो दस हजार का खर्चा।कहां से आयेगा ये
पैसा?लिहाजा पापा भी सोचते हैं कौन पचड़े में पड़े?पांच सौ रुपया टिकाया किसी
वर्कशापिये को और तीस चालीस दिनों के लिये बच्चे से फ़ुरसत।बच्चा भी व्यस्त …वर्कशाप
में … और मां बाप भी पा गये फ़ुर्सत।पापा ट्वेण्टी ट्वेण्टी का मैच देखने और मम्मी
किटी पार्टी या फ़िर चबूतरा पंचायत में हिस्सा लेने के लिये।
पर एक बड़ी अजीब बात
है।जो मेरे दिमाग को बहुत दिनों से मथे जा रही है। हो सकता है मेरी ही तरह आप लोग
भी कुछ ऐसा ही सोचते हों।वो बात या मुद्दा यह है कि इन वर्कशापों का फ़ायदा सिर्फ़
शहरी बच्चों और मां बाप के लिये ही है…हमारे गांव की आबादी के बच्चों(जिनकी संख्या
शहरी बच्चों से कई गुना ज्यादा होगी) को इन वर्कशापों का सुख नहीं नसीब होता।पता
नहीं ये वर्कशापिये गांव के बच्चों को इसके योग्य नहीं समझते या फ़िर गांव के मां
बाप में कोई नुस्ख है।लेकिन आप खुद सोचिये कितनी बड़ी विडम्बना है ये कि हमारे देश
की कुल आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है और उन गांव के बच्चों के लिये ऐसी कोई
वर्कशाप,समर कैम्प,हाबी क्लासेज …कुछ भी नहीं। बेचारे वो गंवई गंवार बच्चे तो इन
वर्कशापों के बारे में कुछ जानते भी नहीं।उनको अपने गांव,स्कूल और स्कूल के
मास्साब के अलावा कोई बताने वाला भी नहीं।लेकिन इसमें उन बेचारों का क्या
दोष?
दोष तो
हमारे आयोजकों(वर्कशापियों)का है।जो शहर के अलावा गांवों का रास्ता जानते ही नहीं।
उनकी नजरों में पूरा भारतवर्ष बस कुछ चुनिन्दा शहरों तक सीमित है।जो कुछ भी है वो सब
सिर्फ़ शहरी बच्चों के लिये।उन बच्चों के लिये जिनके पास बिजली भी है,टी
वी,कम्प्युटर,सिनेमाहाल,चिड़ियाघर,सर्कस,घूमने खेलने के लिये पार्क सभी कुछ है।गांवों के वो बच्चे
जो किसी तरह से स्कूल तक पहुंच पाते हैं,जिनकी दुनिया सिर्फ़ और सिर्फ़ गांवों के
स्कूलों और कच्ची पक्की गलियों तक ही सीमित है…क्या उनकी तरफ़ इन वर्कशापियों या
समर कैम्प के आयोजकों की नजर नहीं पड़ती? सरकार के संस्कृति विभाग की ओर से इन
वर्कशापों के लिये अनुदान और ग्रान्ट भी दी जाती है…बहुत सी नाट्य संस्थायें तो
सरकार से यही अनुदान लेने के लिये ही बच्चों के इन समर कैम्प्स का आयोजन करती
हैं…।बाकी के साल भर उनकी कोई गतिविधि नहीं दिखाई पड़ती। मेरा सिर्फ़ ये कहना है कि
सांस्कृतिक कार्य विभाग क्यों नहीं इन वर्कशापियों को गांवों की तरफ़ भेजता…वहां
जाकर वो लोग गांव के बच्चों के लिये भी तो कुछ काम करें।कम से कम हमारे गांवों के
बच्चे भी तो जानें कि नाटक,वर्कशाप,थियेटर,पेन्टिंग,एक्जीबीशन जैसे शब्दों के माने
होता क्या है?या सब कुछ शहरों तक ही सीमित रहेगा?मुझे लगता है इस मुद्दे पर हम सभी
को सोचने के साथ ही कुछ ठोस निर्णय लेने की भी जरूरत है।
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ड़ा0हेमन्त कुमार
2 टिप्पणियाँ:
ऐसी कार्यशालाओं में बच्चों को बहुत सीखने को मिलता है, मानसिक विकास होता है।
wakai aapki prastuti bahut kuchh sochane ke liye majboor karti hai---
poonam
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