“शब्दों,भावनाओं और प्रकृति का अनूठा कोलाज—“उन्मेष”
शुक्रवार, 21 मार्च 2014
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक :“उन्मेष”
कवियत्री:मानोशी
प्रकाशक: अंजुमन प्रकाशन
इलाहाबाद।
मूल्य: रू0200/- मात्र।
प्रथम संस्करण:2013
आज की हिन्दी कविता सामाजिक सरोकारों से
ज्यादा जुड़ी है। इसमें व्यवस्था का विरोध है।आम आदमी की चिन्ताएं हैं।देश,समाज,प्रकृति,पर्यावरण,राजनीति
जैसे सरोकारों को लेकर वैश्विक स्तर की सोच है।और इन्हीं सरोकारों,संदर्भों और
चिन्ताओं के अनुरूप ही आज की हिन्दी कविता का शिल्प,भाषा और बुनावट भी है। नई कविता की शुरुआत के
साथ ही उसके शिल्प,रचनात्मकता,भाषा और बुनावट में भी तरह-तरह के प्रयोग और बदलाव
होते रहे हैं। इन प्रयोगों और बदलावों का हिन्दी काव्य पर सकारात्मक और नकारात्मक
दोनो तरह का प्रभाव पड़ा। सकारात्मक यह कि कविता के पाठको को नये बिम्ब,नये गठन और
शिल्प की प्रयोगधर्मी रचनाए पढ़ने को लगातार मिल रही हैं। नकारात्मक यह कि काव्य से
गेय तत्व क्रमशः कम होने लगा। छंदात्मक रचनाए कम लिखी जाने लगी।सपाट बयानी का
पैटर्न धीरे-धीरे हिन्दी काव्य पर हावी होने लगा। लोगो में कविता पढ़ने के प्रति
रुझान कम होने लगी।
और आज हिन्दी कविता का जो
परिदृश्य है उसमे “उन्मेष” जैसे काव्य संकलन को पढ़ना अपने आप मे एक बहुत
ही कोमल और सुखद अनुभूतियों से रूबरू होना है। कनाडा में रह रहीं युवा कवियत्री मानोशी के प्रथम
काव्य संकलन “उन्मेष” को पढ़ना हिन्दी कविता की एक अद्भुत यात्रा से
गुजरने जैसा है। एक ऐसी यात्रा जिसमें मानवीय संवेदनाएं हैं,प्रेम है,प्रकृति के
विभिन्न रंग हैं,नई और ताजी अनुभूतियां हैं तो साथ ही सामाजिक सरोकार और मार्मिकता
भी है।
“उन्मेष” संकलन में मानोशी ने काव्य के तीन रूपों को संकलित किया है।गीत,गज़ल और
छंदमुक्त कविता। इनमें भी गीत और गज़ल अधिक हैं कविताएं कम। संकलन के अंत में
कुछ हाइकु,क्षणिकाएं और दोहे भी हैं।
मानोशी
के गीतों की बात शुरू करने से पहले मैं इस बात का उल्लेख जरूर करना चहूंगा
कि लगभग 2008में इंटरनेट से जुड़ने और अपना ब्लाग शुरू करने के दौरान ही मैं उनके
ब्लाग “मानसी” तक पहुंचा था।उस समय इनकी रचनाएं भी ब्लाग पर
अधिक नहीं थीं। पर इनके कुछ गीतों को पढ़ कर ही मैंने उसी समय मानोशी से कहा था कि “आप की रचनाओं पर छायावाद का काफ़ी प्रभाव है।
और आपकी रचनाएं पढ़ते वक्त बार-बार महादेवी जी की याद आती है।”
मानोशी के गीतों में जो
नयापन,ताज़गी,प्रकृति के प्रति सम्मोहन है वह आज की युवा कवियत्रियों में कम ही
दिखाई पड़ती है। उनका प्रकृति से लगाव और प्रकृति के निरीक्षण की सूक्ष्मता हमें
संकलन के पहले ही गीत “पतझड़ सी पगलाई धूप” में
देखने को मिलता है।
पतझड़ सी पगलाई
धूप।
भोर भैइ जो
आंखें मींचे
तकिये को
सिरहाने खींचे
लोट गई इक बार
पीठ पर
ले लम्बी
जम्हाई धूप।
अनमन सी अलसाई
धूप।
इसी गीत के अंतिम छंद में “फ़ुदक
फ़ुदक खेले आंगन भर---खाने खाने एक पांव पर।” पंक्तियों को आप देखिये आप कल्पना करिये कि धूप आंगन
में एक-एक खाने पर पांव रख कर फ़ुदक रही है। जैसे बच्चे चिबड्डक या सिकड़ी के खेल
में करते हैं। प्रकृति के विभिन्न रूपों,खेलों और छवियों का ऐसा अद्भुत वर्णन ही
मानोशी के गीतों को अन्य युवा कवियत्रियों से अलग स्थान प्रदान करता है।
“सखि
वसंत आया”—गीत को अगर
किसी पाठक के सामने एक अलग पन्ने पर लिखकर दिया जाय तो शायद उसे विश्वास ही नहीं
होगा कि यह गीत आज की किसी युवा कवियत्री की रचना है। वह इसे निश्चित रूप से
छायावादी काल की ही रचना मान बैठेगा।
मानोशी ने अपने कुछ गीतों “गर्मी के दिन फ़िर से आए”,“पुनः गीत का आंचल फ़हरा”,“संध्या” आदि में जहां प्रकृति को बहुत गहराई तक महसूस करके
उनका बहुत सूक्ष्म चित्रण किया है वहीं “लौट चल मन”,“क्या यही कम है”,“कौन किसे कब रोक सका है”,“कोई साथ नहीं देता”,“प्रिय करो तुम याद” आदि गीतों में
उन्होंने मानवीय संवेदनाओं और प्रेम की घनीभूत अनुभूतियों को अपना विषय बनाया
है।मानोशी का प्रेम भी साधारण प्रेम नहीं है। वह पाठकों को हृदय के भीतर गहराई तक
आन्दोलित कर जाने वाला प्रेम है।
“हूक
प्रेम की शूल वेदना
अंतर बेधी मौन
चेतना
रोम रोम में
रमी बसी छवि
हर कण अश्रु
सिक्त हो निखरा
धूमिल धुंधला
अंग न बदला।”
उनके प्रेम में हमें विरह की वेदना सुनाई पड़ती है“हाय मैं वन वन भटकी जाऊं”, तो दूसरी ओर समर्पण और पूर्णता का एक अनोखा रूप भी
दिखाई पड़ता है--“दीप बन कर याद तुम्हारी—”।
“उन्मेष”
में संकलित मानोशी के तीस गीतों में हमें प्रकृति,मानवीय संवेदनाओं,अनुभूतियों और
प्रेम के अनेकों इन्द्रधनुष खिलते बिखरते दिखाई देते हैं।अगर हम गज़लों की बात करें तो इसमें संकलित
21 गज़लों में हमें मानव जीवन के तमाम रंग और रूप दिखाई देते हैं।मानोशी की गज़लों
की खास बात इसकी सहजता,सरलता और बोधगम्यता है।गज़लें पढ़ते समय हमें कहीं पर भी उसे
समझने या उसका सार ग्रहण करने में कठिनाई नहीं महसूस होती है।
इस संकलन में 10 मुक्त छंद,कुछ
हाइकु,क्षणिकाएं और दोहे भी हैं। मानोशी की इन रचनाओं का भी सरोकार प्रकृति के
निरीक्षण,प्रेम और मानवीय संवेदनाओं से ही जुड़ा है। अपनी कविता “बेघर” में जब मानोशी कहती हैं “घुटनों से भर पेट/फ़टे आसमां से ढक बदन/पैबंद
लगी जमीन पर/सोता हूं आराम से।” तो अचानक ही हमें निराला की भिक्षुक कविता की याद आती है---“पेट पीठ दोनों मिल कर हैं एक/चल रहा लकुटिया
टेक---।”
कुल मिलाकर “उन्मेष”
में मानोशी ने मानवीय संवेदनाओं,प्रकृति से जुड़ी अनुभूतियों और प्रेम के विविध
रंगों को शब्दों में पिरोकर काव्यचित्रों का जो अद्भुत अनोखा संसार सृजित किया है
वह कवियत्री के रचनाकर्म की सबसे बड़ी सार्थकता है।
यहां एक बात मैं और कहना चाहूंगा वह यह
कि यद्यपि मानोशी की रचनाएं अभी तक सिर्फ़ अपने ब्लाग “मानसी”
और अंतर्जाल की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में ही प्रकाशित होती रही हैं। लेकिन
“उन्मेष” हमें इस बात के प्रति पूरी तरह आश्वस्त करता
है कि मानोशी आने वाले समय में हिन्दी कविता में निश्चित रूप से अपनी एक अलग पहचान
बना लेंगी।
0000
डा0हेमन्त कुमार
2 टिप्पणियाँ:
कविता की चेतना बनकर उभरेगें ये शब्द, सुन्दर समीक्षा, प्रतीक्षा रहेगी।
Bahut hi achchhi samikshha.....maine bhi "Unmesh" me sankalit kavitayen aur Geet padha hai...Manasi ji ki kalam ka javab nahi.....
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