कहानी-- तुम आए तो(भाग-2)--- जयश्री रॉय
शनिवार, 5 अप्रैल 2014
------------ भोर रात से यहां शोर शुरु हो जाता है. पास के मस्जिद से आती अजान
की आवाज़, गुरुद्वारे में बजता हुआ लाउड स्पीकर, किसी न किसी त्योहार में मंदिरों में बजते फिल्मी गाने, देर राततक तबेलों में ग्वालों का कीर्तन... फिर सरकारी नलों पर पानी के लिये
औरतों के झगड़े, बर्तनों की उठा-पटक, बच्चों का रोना, फेरीवालों की आवाज़... वह कान पर तकिया दबाकर पड़ी
रहती है. भोर रात से ही नींद टूट जाती है. फिर कोशिश करके भी नहीं आती.
जीवन एक ऐसे मोड़ पर आकर
एक दिन ठहर जायेगा उसने सोचा नहीं था. मास कम्युनिकेशन में एम. ए. करने के तुरंत बाद
उसे एक अच्छी अख़बार में नौकरी मिल गयी थी. कबीर से मुलाकात भी उससे एक इंटरव्यू के
दौरान ही हुई थी. उसे याद है कबीर एक कारखाने के बाहर कई दिनों से अनशन पर बैठा था.
अपनी अख़बार की तरफ से वह उसका इंटरव्यू लेने पहुंची थी. मीतादी- पत्रकारिता के क्षेत्र
में उसकी पहली टीचर जिसे वह गुरु मैया कहकर पुकारती थी, ने उसे वह पहला मौका दिया था. मीता एक खुर्राट पत्रकार थी. व्यक्तित्व भी वैसा
ही जबर्दस्त - मां-बहन की गाली दिये बिना बात नहीं करती, मुंह फाड़कर अट्टाहास करती,
बीड़ी के सुट्टे लगाकर मर्दों के बीच
ठर्रा, रम,
कच्ची, नारंगी, फेनी- जो मिलता पानी की तरह पीती और फिर अपनी बुलेट
जिसे वह प्यार से डार्क ब्युटी कहकर बुलाती थी, पर बैठकर रात के दो-दो
बजे अपने घर जाती थी. वह मीतादी के दबंग व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थी. बचपन से मामी
के कठोर अनुशासन और अत्याचार के साये में जीकर वह बेहद दब्बू किस्म की हो गयी थी. हीन
भावना की शिकार. ऊपर से गहरी सांवली, साधारण रुप-रंग की. मामी
बात-बातपर ताने देती थीं - ‘तुझे कोई लड़का पसंद नहीं करेगा, तेरी कभी शादी नहीं होगी.’
ये बातें उसके भीतर घर कर गयी थीं.
मीतादी ने उसे अपनापन दिया तो वह उसीकी मुरीद हो गयी. हर बात में उनकी नकल उतारने की
कोशिश करती. उनकी तरह फेडेड जींस,
खादी का कुर्ता, बंडी, आंखों में ढेर-सा काजल... गाली देकर बात करना उन्हीं
दिनों शुरु किया था, साथ में सिगरेट पीना भी. बकौल मीतादी, इसे बिंदास होना कहते हैं!
कबीर का साक्षात्कार वह बहुत
उत्साह से लेने गयी थी, मगर इंटरव्यू शुरु होते ही कबीर ने किसी बात पर
उसे बुरी तरह डांट दिया था. सबके सामने वह पानी-पानी हो गयी थी. उसदिन घर आकर वह बहुत
रोयी थी. क़सम भी खाई थी फिर कभी काम पर ना लौटने की. मगर इसके दूसरे ही दिन कबीर को
देखने सदर अस्पताल दौड़ गयी थी. कबीर पर मैनेजमेंट के गुंडों ने हमला कर दिया था और
वह बुरी तरह जख़्मी होकर अस्पताल में दाखिल करवाया गया था. वहां कागज़-क़लम बैग में डालकर
कबीर के लिये मौसम्बी का रस निचोढ़ते हुये उसे खुद भी बहुत हैरत हुई थी. इसके बाद वह
दिनोंतक अस्पताल के जेनेरल वार्ड में लोगों की भीड़ और घुटन भरे माहौल में कबीर की सेवा-टहल
में लगी रही थी. कबीर एक बेहद बदमिजाज़ इंसान था. बात-बातपर उसे सबके सामने झिड़क देता, अपमानित कर देता, मगर इन सबके बावजूद उसे ना जाने उससे कैसा लगाव
हो गया था. उसकी हिम्मत, जोशभरी बातें, अन्याय से लड़ने का माद्दा...
उसे वह निडर, नैतिक और बहादूर प्रतीत होता. ठिक जैसे फिल्मों
के नायक. उसकी बातें, बहसें वह मुग्ध होकर सुनती. उसे लगता एकदिन वह
कोई बड़ा आदमी बनेगा. सोचकर उसके प्रति वह सम्मान और प्रेम के भाव से भर जाती. डांट-फटकार
के साथ अपनी सेवा का अधिकार देकर कबीर ने जैसे उसे धन्य कर दिया था. उसे सूप पिलाते
हुये या अस्पताल के कॉरीडोर में सहारा देकर टहलाते हुये वह स्वयं को बहुत महत्वपूर्ण
महसूस करती. डांट-डपट के बीच कबीर भी उसपर हर बात के लिये निर्भर करने लगा था. उसके
आते ही कबीर के दोस्त एक-दूसरे को इशारा करके मुस्कराने लगते - ‘लो बॉस! तुम्हारी मीरा आ गयी.... क्यों, आज अपने देवता के लिये
चढ़ावे में क्या लाई हो मीरा देवी?...
ओह! मूंग का हलवा, साबूदाने की खिचड़ी...’ वह सबके बीच लाल पड़ जाती और कबीर अवज्ञा से मुस्कराता
रहता. हीन ग्रंथि से ग्रसित उसे भी लगने लगा था, कबीर की डांट-फटकार में
ही उसके लिये प्यार छिपा हुआ है. और जिस दिन अस्पताल से डिस्चार्ज होते हुये कबीर ने
अपने कामरेड्स के सामने यह ऐलान किया था कि वह भी उसके साथ उसके घर में शिफ्ट होनेवाली
है,वह दंग रह गई थी. तो कबीर जैसी हस्ती ने उसे स्वीकार ही
लिया! कामरेडों ने चिल्लाकर बधाई दी थी - ‘शादी कब?’ कबीर ने सबको घुड़ककर शांत कर दिया था - ‘हम शादी जैसी बकवासों में
यकीन नहीं रखते- मोस्ट नॉन प्रोडक्टीव कन्समसन...’ सुनकर वह सन्न रह गई थी, मगर कबीर के आगे मुंह नहीं खोल पाई थी. कुछ निहायत औरतनुमा सपनों को वह उसी
दिन मन के किसी अज्ञात घाट में सिरा आई थी. कबीर जैसे महान लोगों से जुड़ने के लिये
ऐसी छोटी-मोटी कुर्बानियां तो देनी ही पड़ेगी!
मगर उसका इरादा सुनकर
उनके मामाजी को दिल का दौड़ा पड़ गया था. मामी ने खैर राहत की सांस ली थी. अब वह अपने
भतीजे को अपना उत्तराधिकार सौंप पायेगी, वर्ना तो उन्हें सालों
से यही डर लगा हुआ था कि चांपा सब हथिया लेगी. दूसरी तरफ वह तो बस प्यार, अपनेपन की कुछ बूंदों के लिये कस्तूरी मृग की तरह भागती फिर रही थी.
कबीर के साथ रहते हुये उसके जीवन के ये कई वर्ष एक स्वप्न भंग की-सी अवस्था
में बीते हैं. कबीर की डांट-फटकार और उपेक्षा में अपने लिये प्यार ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वह
अंतत: थक गयी थी. कबीर के लिये दुनिया के बस दो ही बड़े सत्य हैं- एक पेट की भूख और
दूसरा जिस्म की भूख. बकौल उसके,
इसीसे पूरी सृष्टि संचालित होती हैं.
बाकि चीज़ें बकवास है. इस ईंट-पत्थर की दुनिया हो अपनी हाड़-मास की देह से जियो, भोगो और भूल जाओ - जस्ट युज़ एंड थ्रो! प्रेम, आस्था, जन्म-जन्म का रिश्ता- माइ फूट! रिश्ते स्वर्ग में
नहीं बनते- बिस्तर पर बनते हैं और वही जिस्म के साथ ख़त्म भी हो जाते हैं. शरीर जब जलता, गलता, सड़ता है, तुमलोगों के दिव्य प्रेम
में भी कीड़े पड़ जाते हैं! जो प्रेम स्खलित होगा वही फलित होगा! हवाई प्रेम की नियति
हवाई मिठाई जैसी - दो पल में फुस्स... सुन-समझकर वह काठ हो गयी थी. क्रांति का अर्थ
सम्पूर्ण ध्वंस होता है, वह नहीं जानती थी. सबसे पहला झटका उसे पहले ही
दिन लगा था जब कबीर ने अपने मकान में उसके कृष्ण को आने नहीं दिया था - ‘मेरे घर में तुम्हारे भगवान नहीं आ सकते चांपा! हमारी सबसे बड़ी लड़ाई इन्हीं
से है! धर्म और कुछ नहीं, भांग की, ओपियम की गोली है. इनके
बहकावे में जाहिल, गवांर आयेंगे, हम जैसे लोग नहीं!’ उस रात वह बहुत रोई थी. कृष्ण की वह मूर्ति बचपन से उसके साथ थी- उसकी मां
की निशानी. उनके वैष्णव परिवार के ईष्ट देवता कृष्ण ही थे. बचपन से अनाथ वह अपनी काली, अंधेरी रातें अपने इसी कृष्ण को सरहाने रखकर काटती आई थी.
वह कबीर की तरह बुद्धिजीवी
नहीं है, मगर डेमोक्रेटीक ज़रुर है. एग्री टु डिसएग्री . सह अस्तित्व
में यकीन रखती है, सहिष्णु है. जिनपर यकीन नहीं रखती उन्हें भी स्पेस
देने को तैयार रहती है. कबीर तो अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझता. जो उससे इत्तेफाक
नहीं रखता वह उसके लिये मूर्ख है, शत्रु है, चिरकुट है!
कबीर ने उससे शादी नहीं की है, इसलिये उसकी कोई जिम्मेदारी भी उसपर नहीं. मगर न जाने क्यों, उसपर कबीर की सारी जिम्मेदारियां हैं! एक परम्परागत पुरुष की भूमिका में वह
स्वयं को नहीं देखता, मगर उससे एक स्त्री के कर्तव्य की अपेक्षा ज़रुर
करता है. बात-बातपर उसे काम में सुघढ़ ना होने के ताने देता है, झिड़कता है. उसे खुद अंडा तक उबालना नहीं आता. हर समय अपनी मां के साथ उसके
काम की तुलना करता है. वह कभी किसी बात पर टोकने जाती है तो झट कहता है - ‘ज़्यादा बीवी बनने की कोशिश मत करो! यही सब चाहिये होता तो किसी को नौ गजी साड़ी
में ब्याहकर लाता.’ वह सुनकर सोचती रह जाती है - वह रिश्ते की हर बंदिश
में जीकर भी कबीर की कोई नहीं लगती. ठगी गयी वह. संबंध नहीं, उसके अधिकार नहीं, बस उसकी जिम्मेदारियां, बोझ... श्रमिकों की बात करते हुये घरेलू स्त्रियों के संबंध में कबीर प्राय:
‘अनपेड लेबरर’ शब्द का इस्तेमाल करता
है. वह सोचती है, वह किस श्रेणी में आती है. सबकुछ करके भी उसका
कहीं किसी पर अधिकार नहीं! वह ‘अनपेड लेबरर’ की गिनती में भी नहीं है.
कबीर के उच्छृंखल स्वभाव ने उसे अंदर से असुरक्षित कर दिया है.
उसे लगता है उसने लहरों पर अपना घर बांध लिया है जो किसी भी क्षण ढह सकता है. कबीर
के साथ का यह गैर पारम्परिक, बोहेमियन जीवन उसे ना घर का ना घाट का रहने दिया
है. मामा, मामी अब उसका चेहरा नहीं देखते, दुनिया की नज़रें भी बदल गई हैं. कबीर या उसके दो-चार अलग नज़रियावाले दोस्तों
तक यह दुनिया सीमित नहीं है. यह बहुत बड़ी है... जिस रिश्ते का कोई नाम नहीं, आधार नहीं उसकी कोई गैरेंटी भी नहीं. उसका दिल डूबता रहता है सोच-सोचकर. कबीर
कहता है उसे संबंध के नामपर कोई पिंजरा पसंद नहीं. वह तभी तक रुका रह सकता है जब तक
जाने का विकल्प खुला है. बढ़ती उम्र के साथ उसके अंदर डर घोंसला डाल रहा है. लग रहा
है मुट्ठी से सब कुछ रेत की तरह क्षरता जा रहा है. एक मकान की चार दीवारी के भीतर वह
अपना घर ढूढ़ती रहती है, आश्वासन और प्रतिश्रुति ढूंढ़ती रहती है. एक अकेला
प्रेम उसके सारे संशय और भय का निराकरण कर सकता था, मगर कबीर की आंखों में
उसका नितांत अभाव उसे कहीं से बहुत असुरक्षित कर गया था. प्रेम भी नहीं, समाज की स्वीकृति भी नहीं! वह किस ज़मीन पर खड़ी हो! अपने पांव के नीचे का दलदल
उसे हरपल खींचता रहता है. वह सतह पर बने रहने के लिये किसी सहारे की तलाश में अपने
हाथ पसारती रहती है, मगर उनमें शून्य के सिवा कुछ नहीं आता.
दो महीने पहले एक पुरानी
डायरी में उसे एक कविता मिल गई थी जो ना जाने कबीर की नज़र से कैसे बच गई थी. बिना सोचे-समझे
उसने उसे एक साहित्यिक पत्रिका में भेज दी थी और उसे उस समय सुखद आश्चर्य हुआ था जब
उस पत्रिका की तरफ से स्वीकृति सूचना मिली थी. फिर अर्पित - पत्रिका के सब एडिटर से
बात हुई थी. एक दिन वह उनकी पत्रिका के दफ़्तर में भी हो आई थी. कितनी तारीफ की थी अर्पित
ने उसकी कविताओं की. उसे लगता था कि वह अपनी काबिलियत को जाया कर रही है. उसे नियमित
लिखना चाहिये. इतने दिनों तक ना लिखना बहुत बड़ी गलती है उसकी. अर्पित की बातों ने उसे
एक नये उत्साह से भर दिया था. बहुत अर्से बाद वह फिर कागज़-कलम लेकर बैठने लगी थी. वह
लिखेगी घिरते बादलों पर, सुबह की धूप और दिल की धड़कनों पर कविता... ये भी
ज़रुरी हैं, वह हाड़-मास की इंसान है, कोइ रोबोट नहीं!
उस दिन शाम घिरते-घिरते
अर्पित का फोन आया था. उसने उसे जो नई कवितायें दी थीं, वह उस पर बात करना चाहता था. कपड़े बदलकर वह बाहर निकल आई थी. कबीर रात के बारह
बजे से पहले नहीं लौटेगा. अपने मुहल्ले की संकरी गलियों को पार कर वह मुख्य सड़क पर
आई थी. इसी रोड पर थोड़ा आगे चलकर एक छोटे-से रेस्तरा में अर्पित उसका इंतज़ार कर रहा
था. दोनों अक्सर यही मिलते थे. यहां से अर्पित का दफ़्तर भी करीब था.
अर्पित का बहुत शालीनता
से बोलना, हर बात को बहुत शांति और धैर्य के साथ समझाना.
उसे उसकी कवितायें अच्छी लगती है. वह चाहता है वह ज़रुर लिखे. अर्पित के साथ उसे अपने
होने का अहसास होता है. लगता है वह रीत नहीं गई है पूरी तरह से. कोई जीवित पराग अब
भी उसके भीतर रह गया है किसी सही मौसम के इंतज़ार में. एक दिन उसने बताया था अपने बारे
में. उसकी पत्नी का देहांत हो गया है दो साल पहले. एक पांच साल की बेटी है जो अपने
ननिहाल में पल रही है. अपनी दिवंगत पत्नी की बात करते हुये वह आज भी संजीदा हो जाता
है. उसे अर्पित की संवेदनशीलता अच्छी लगती है. उसका दिल खोलकर हंसना और बात-बात में
आंखों का नम हो जाना. अर्से बाद उसे लगा है, बिना डरे या सतर्क हुये
भी किसी के साथ हुआ जा सकता है. अर्पित के साथ वह अपने में होती है, निश्चिंत होती है. छोटी-छोटी बातों में भी जीवन का सुख है, यह भी अर्पित ने ही उसे एक बार फिर से याद दिलाया था.
‘हम हमेशा युद्ध में नहीं हैं. छोटी चीज़ों से भी बदलाव का आगाज़ हो सकता है...
बड़ी बातें तो मैं नहीं समझता, हां! पहला काम मैंने ये किया कि अपना सरनेम छोड़
दिया. दूसरा अपनी पत्नी को कहीं से भी बदलने की कोशिश नहीं की. यह भी मेरे लेखे हिंसा
ही है. किसी को वह ना रहने देना जो वह है. एक बात बताऊं कि मेरी बीवी जब एम ए की पढ़ाई
कर रही थी, तब एक साल मैने रसोई का काम सम्हाला. किचन में
उसका हाथ बंटाना, बेटी को रातों में जागकर देखना... ऐसी ही छोटी-मोटी
बातें. बचपन में बाबूजी को अक्सर कहते सुनता था - चैरिटी बिगिन्स ऐट होम, वह बात मुझे सही लगती है.... अर्पित झेंपता हुआ-सा कहता - सबसे पहले मैं खुद
को बदलना चाहता हूं. यह सबसे मुश्किल काम है...’ वह उसे चुपचाप सुनती है.
अर्पित को सुनना उसे अच्छा लगता है. जब भी उससे मिलकर लौटती है, खुद को हल्का महसूस करती है. खुश भी.
रात तीन बजे कबीर लौटता
है. आज भी कामरेड लतिका के घर मीटिंग थी. लतिका इनकी मंडली की एक नई सदस्य है. कोलकाता
के प्रेसिडेंसी से राजनीति शास्त्र में एम. ए., पी एच. डी. छात्र नेता.
बंगाली, इसलिये जन्मजात बुद्धीजीवी! रुप भी वैसा ही - बांह कटा
ब्लाउज, तांत की साड़ी, खुले-बिखरे अधपके बाल, कपाल पर बड़ा लाल टीका. एकदम कपाल कुंडला-सा रुप! जैसे धड़ल्ले से अंग्रेज़ी बोलती
है, वैसे ही धड़ल्ले से सिगरेट फूंकती है. मार्क्स, स्तालिन, लेनिन को घोंटकर पी रखा है. वह भी अपना घर फूंककर
दुनिया गढ़ने निकली है. कबीर उस पर मुग्ध है. बात-बात पर उसका नाम लेता है. उनकी पार्टी
की सारी मीटिंगस अब लतिका के घर ही होती हैं. लतिका बहस के साथ सरसो-हिल्सा भी बहुत
अच्छा पकाती है. उसके रविंद्र संगीत और आवृति का तो क्या कहना. जब नज़रुल की ‘अग्नि वीणा’ अपनी ओज भरी आवाज़ में पाठ करती है, सचमुच शिराओं में आग़ लग जाती है! देर राततक लतिका के घर मीटिंग, खाना, गाना, काव्यपाठ आदि करके जब कबीर
घर लौटता है, थककर चूर होता है. उससे बात भी की नहीं जाती, बस बिस्तर पर गिरकर सो जाता है. वह बगल में लेटकर कबीर की देह से आती परफ्यूम
की सुगंध को महसूस करते हुये चुपचाप रोती रहती है. कबीर कभी किसी तरह का परफ्यूम या
बॉडी लोशन इस्तेमाल नहीं करता था. चलो अब उसे पसीने की महक ही नहीं, फूलों की खूशबू भी अच्छी लगने लगी है.
रोज़ वह चुप रह जाती
है, मगर आज उससे रहा नहीं जाता. कबीर के कुर्ते से उठती खूशबू, गिरेबान पर लिपस्टीक के दाग़, मुंह में पान... उसने उसका
कुर्ता पकड़कर फाड़ दिया था - मीटिंग से आ रहे हो या किसी कोठे से? सुनकर कबीर ने उसे फर्श पर धकेलकर गिरा दिया था - ‘अपनी औकात में रहो! जहां से भी आऊं, तुम कौन होती हो पूछनेवाली? बीवी बनती हो!’
गिरने से उसे बहुत
चोट आई थी. दायीं कुहनी छील गयी थी और माथे पर गुमड़ निकल आया था. उसकी तरफ देखे बिना
कबीर निकलकर चला गया था. वह ज़मीन पर पड़ी-पड़ी सिसकती रही थी.
दूसरे दिन भी कबीर
शाम तक घर नहीं लौटा था. उसका फोन भी नहीं लिया था. कबीर के एक मित्र ने उसे बताया
था, कबीर कामरेड लतिका के साथ बस्तर चला गया है. वहां पुलिस
के द्वारा आदिवासियों के एक गांव उजाड़ देने के विरोध में एक बहुत बड़ा मोर्चा निकाला
जाना है. इसके बाद वह अर्पित के घर चली गई थी.
अर्पित उसकी हालत देखकर
चौंका था. अब तक वह उसके और कबीर के संबंध में बहुत कुछ जानने, समझने लगा था. मगर अपनी तरफ से उसने बढ़कर कुछ नहीं पूछा था. बस उसकी कुहनी
को साफ करके, दवाई लगाकर पट्टी कर दी थी. वह चुपचाप देरतक उसके
ड्राइंग रूम के सोफे पर सोई रही थी. दूसरे कमरे में सी. डी. पर धीमी आवाज़ में जगजीत
सिंह की ग़ज़लें बजती रही थीं - होशवालों को ख़बर क्या, बेख़ुदी क्या चीज़ है...
रसोई से आती बर्तनों की ठुनक, पकते खाने की महक, आंगन में खिले मोगरे की रह-रहकर लपटों में आती सुगंध... अर्पित शायद फोन पर
अपनी बेटी से बात कर रहा था. उसका उससे हंस-हंसकर, तुतलाकर बोलना, छोटी-छोटी बातें - उसने होमवर्क किया या नहीं, दूध पिया या नहीं, अगले रविबार उसे घुमाने ले जाने का प्रोग्राम...
वह पड़ी-पड़ी तंद्रालस सुनती रही थी. कितने दिनों बाद उसे लगा था, वह किसी मकान में नहीं,
घर में है. देर शाम वह उठकर अंदर
के बरामदे में बैठी थी. अर्पित चाय बनाकर ले आया था - अदरक, तुलसी वाली! चुपचाप चाय पीते हुये उसने देखा था - आंगन के तुलसी चौरे पर जलते
हुये दीये को. ऊपर हरसिंगार का छोटा-सा घना पेड़.उसे तुलसी की तरफ देखते हुये अर्पित
ने ना जाने कैसी आवाज़ में कहा था - "मंजरी रोज़ तुलसी पर दीया बालती थी. उसके बाद
उसका यह काम मैंने अपने ऊपर ले लिया है... मंजरी की किताबें, मंजरी की प्रिय चीज़ें, उसके भगवान... उसकी अमानत समझकर सम्हालता हूं.
उसकी भावनाओं, आस्था का मैं सम्मान करता हूं. वैसे मै खुद एक
तरह से नास्तिक हूं कह सकते हैं."
अर्पित की बातें
सुनते हुये ना जाने क्यों उसकी आंखें भर आई थीं. उसके मनोभावों से अनजान अर्पित एक
मोगरे की वेणी रसोई से उठा लाया था - "बहुत मोगरा खिला है तो..."उस वेणी
को लेकर वह अर्पित की ओर नज़र उठाकर देख नहीं पाई थी, क्योंकि आंसुओं से उसकी
आंखें भरी हुई थी. अर्पित ने ना जाने कैसी इच्छा भरी आवाज़ में उससे कहा था -
"अंदर मंजरी के ड्रेसिंग टेबल में देखकर यह अपने बालों में लगा लो..."
बिना कुछ कहे वह अर्पित के पीछे-पीछे कमरे में चली आई थी. मंजरी का ड्रेसिंग
टेबल, उस पर सजी चीज़ें... वह देखती रह गई थी - सिंदूर की डिब्बी, ट्रेसेल, थोक में झूलती रंग-बिरंगी चूडियां और शीशे पर चिपकी
अनगिन बिंदियां! अनायास उसके अंदर का कोई अदेखा कोना कांच की तरह चिटक उठा था. उसके
स्वप्न में अक्सर ये चीज़ें आ-आकर उसे परेशान किया करती थीं.
अर्पित उसके पीछे खड़ा बोल
रहा था - "मंजरी के सारे सामान मैंने सहेज-सम्हाल रखें हैं... उसके बाद घर नहीं
रहा, मगर उसका सपना ज़रुर बचाये रखना चाहता हूं. रोज़ सोचता हूं, अपनी बेटी को उसकी मां दे सकूं, उसे अपने घर वापस ला सकूं..
अनाथ की तरह दूसरों के घर पल रही है..."चांपा ने मुड़कर उसकी आंखों में सीधे देखा
था - "तुम मुझसे कुछ कहना चाहते हो अर्पित?"उसका सवाल सुनकर अर्पित
एक पल के लिये खामोश रह गया था,
फिर धीरे से, मगर ठहरी आवाज़ में पूछा था - "मुझसे शादी करोगी चांपा?"
इससे पहले की चांपा कोई जवाब
देती, उसका मोबाईल बज उठा था.फोन के दूसरी तरफ कबीर था, बेहद गुस्से में -"जल्दी घर पहुंचो!कामरेड गोपाल घर के बाहर घंटा भर से
खड़ा है. उसे मैंने कुछ पेपर्स लेने वहां भेजा था, मगर तुम्हारा कोई पता ही
नहीं! इतनी रात गये कहां हो तुम?"
कबीर की गुस्सैल आवाज़ और बोलने
का बेहूदा लहज़ा सुनकर अचानक उसके अंदर एक विस्फोट-सा हुआ था, मगर अपनी आवाज़ को यथासंभव स्थिर रखते हुये उसने स्वभाविक ढंग से कहा था -
"नहीं आ सकती, और कहां हूं यह तुम्हें बताने की ज़रुरत भी नहीं
समझती!"
उसका जवाब सुनकर कबीर दहाड़ उठा था - "क्या! क्या कह रही हो तुम?... होश में तो हो?"
"हां! बिल्कुल हूं और तुम भी एक बात कान खोलकर सुन लो - आइंदा मेरा पति
बनने की कोशिश मत करना!"
कह कर उसने कबीर की कोई
और बात सुने बिना ही फोन बंद कर दिया था और फिर बड़े इत्मीनान से आईने से चिपकी हुई
एक लाल बिंदी उठाकर अपने माथे पर लगाकर शीशे में अर्पित को देखा था, आंखों ही आंखों में मुस्कराते हुये. अर्पित भी उसकी तरफ देखते हुये अपनी आंखों
में भर आये आंसुओं को पोंछकर अनायास मुस्कुरा पड़ा था.
***
2 टिप्पणियाँ:
बहुत ही प्रभावी और रोचक कहानी...पात्रों का बहुत सार्थक मनोवैज्ञानिक चित्रण...लाज़वाब...
पढ़ने में अच्छी लगी, आराम से पढ़ते हैं।
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