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विश्व रंगमंच दिवस पर-- हंगामाये वर्कशाप --बोले तो--चाकलेटी बच्चे/खुरदुरे बच्चे

बुधवार, 26 मार्च 2014


                                 
       गर्मी की छुट्टियां शुरू होने वाली हैं।गर्मी की छुट्टियों में शहरी बच्चों की तो मौज ही मौज रहती है।सुबह से शाम तक मौज।आप पूछेंगे वो कैसे तो भाई आप देख लीजिये न कोई अखबार उठाकर। हर अखबार में आपको विज्ञापन पढ़ने को मिल जायेगा---अमुक दिनांक से अमुक मुहल्ले के अमुक स्कूल में बच्चों के लिये नाट्य कार्यशाला,पेण्टिंग,नृत्य की कक्षाओं का आयोजन-----।
                  हर शहर में गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों के लिये एक बहार सी आ जाती है।आप कहेंगे ये कौन सी बहार है भैया जो गर्मियों में ही आती है?अरे जनाब ये बहार होती है वर्कशाप यानी कार्यशालाओं की।जिधर देखिये उधर कार्यशालायें।कहीं बच्चों को नाचना सिखाया जा रहा है तो कहीं गाना,कहीं ऐक्टिंग तो कहीं राइटिंग,कहीं पेन्टिंग तो कहीं क्राफ़्ट ।मतलब ये कि गर्मियां आते ही हर शहर कार्यशालामय हो उठता है।
            अभी कल शाम ही मुझे भी एक ऐसी ही वर्कशाप की प्रस्तुति में बतौर दर्शक जाने का सौभाग्य मिला था।ये सौभाग्य मुझे हर साल मिलता है।(शहर के बहुत से धनी महानुभाव कुछ धन का दान करके इन कार्यशालाओं में जज या मुख्य अतिथि भी बन जाते हैं।) कई वर्कशाप होती हैं शहर में।आप भी चाहें तो किसी वर्कशाप में जज बनने क सौभाग्य पा सकते हैं। वास्तविक जीवन में जज बनने का अवसर गंवा चुके लोगों के लिये यह एक सुनहरा मौका होता है।ऐसी वर्कशाप तो आप लोगों के शहरों में भी होती ही होंगी। हर शहर में गर्मी शुरू होते ही जैसे कोई वर्कशाप फ़्लू आ जाता है।जिधर देखो उधर वर्कशाप।चाहे वो लखनऊ हो दिल्ली हो या भारत का कोई और शहर।
                    कुछ भी हो भाई मुझे तो मजा आ गया स्टेज पर हुई प्रस्तुति देखकर।मैं देख तो रहा था स्टेज पर हो रही बच्चों की उछल कूद को लेकिन सोच रहा था उस बुद्धिमान आदमी के बारे में जिसने इन वर्कशापों को इजाद किया होगा।भाई खूब दिमाग लड़ाया होगा उसने…तभी तो इतने काम की चीज खोजी।आप जरा अपने बचपन के दिनों को याद करिये--- या अगर वहां तक नहीं पहुंच पा रहे तो थोड़ा दस साल पीछे चले जाइये---।क्या ऐसी वर्कशाप पहले होती थी कोई?मुझे तो नहीं याद आ रहा---लेकिन धन्य हो इसके खोजकर्ता और धन्य हो सांस्कृतिक कार्य विभाग---जिसकी बदौलत ये वर्कशाप हो रही हैं और हमारे जैसों को जज या मुख्य अतिथि बनने का अवसर मिल जाता है।
                                            अब आइये इन वर्कशापों के फ़ायदों की तरफ़ नजर डाल ली जाय। इन कार्यशालाओं से बच्चों का तो फ़ायदा है ही,अभिभावकों को भी बड़ा भारी लाभ मिलता है। आप पूछेंगे कैसे?अरे भाई सीधी सी बात है … महंगाई का जमाना है। छुट्टी होते ही बच्चे हल्ला करेंगे कि पापा कहीं घुमाओ…अब इतनी महंगाई---रिजर्वेशन की किल्लत---धरना प्रदर्शन---रैलीजाम और आतंकवाद के भय के साये  में बेचारे पापा कहां ले जायें बच्चों को। मान लीजिये किसी तरह सारे भयों पर विजय पा भी लें तो अर्थव्यवस्था---इसका इन्तजाम कहां से होगा?छोटी से छोटी जगह भी ले जायेंगे तो दस हजार का खर्चा।कहां से आयेगा ये पैसा?लिहाजा पापा भी सोचते हैं कौन पचड़े में पड़े?पांच सौ रुपया टिकाया किसी वर्कशापिये को और तीस चालीस दिनों के लिये बच्चे से फ़ुरसत।बच्चा भी व्यस्त …वर्कशाप में … और मां बाप भी पा गये फ़ुर्सत।पापा ट्वेण्टी ट्वेण्टी का मैच देखने और मम्मी किटी पार्टी या फ़िर चबूतरा पंचायत में हिस्सा लेने के लिये।
                            पर एक बड़ी अजीब बात है।जो मेरे दिमाग को बहुत दिनों से मथे जा रही है। हो सकता है मेरी ही तरह आप लोग भी कुछ ऐसा ही सोचते हों।वो बात या मुद्दा यह है कि इन वर्कशापों का फ़ायदा सिर्फ़ शहरी बच्चों और मां बाप के लिये ही है…हमारे गांव की आबादी के बच्चों(जिनकी संख्या शहरी बच्चों से कई गुना ज्यादा होगी) को इन वर्कशापों का सुख नहीं नसीब होता।पता नहीं ये वर्कशापिये गांव के बच्चों को इसके योग्य नहीं समझते या फ़िर गांव के मां बाप में कोई नुस्ख है।लेकिन आप खुद सोचिये कितनी बड़ी विडम्बना है ये कि हमारे देश की कुल आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है और उन गांव के बच्चों के लिये ऐसी कोई वर्कशाप,समर कैम्प,हाबी क्लासेज …कुछ भी नहीं। बेचारे वो गंवई गंवार बच्चे तो इन वर्कशापों के बारे में कुछ जानते भी नहीं।उनको अपने गांव,स्कूल और स्कूल के मास्साब के अलावा कोई बताने वाला भी नहीं।लेकिन इसमें उन बेचारों का क्या दोष? 
                                    दोष तो हमारे आयोजकों(वर्कशापियों)का है।जो शहर के अलावा गांवों का रास्ता जानते ही नहीं। उनकी नजरों में पूरा भारतवर्ष बस कुछ चुनिन्दा शहरों तक सीमित है।जो कुछ भी है वो सब सिर्फ़ शहरी बच्चों के लिये।उन बच्चों के लिये जिनके पास बिजली भी है,टी वी,कम्प्युटर,सिनेमाहाल,चिड़ियाघर,सर्कस,घूमने खेलने  के लिये पार्क सभी कुछ है।गांवों के वो बच्चे जो किसी तरह से स्कूल तक पहुंच पाते हैं,जिनकी दुनिया सिर्फ़ और सिर्फ़ गांवों के स्कूलों और कच्ची पक्की गलियों तक ही सीमित है…क्या उनकी तरफ़ इन वर्कशापियों या समर कैम्प के आयोजकों की नजर नहीं पड़ती? सरकार के संस्कृति विभाग की ओर से इन वर्कशापों के लिये अनुदान और ग्रान्ट भी दी जाती है…बहुत सी नाट्य संस्थायें तो सरकार से यही अनुदान लेने के लिये ही बच्चों के इन समर कैम्प्स का आयोजन करती हैं…।बाकी के साल भर उनकी कोई गतिविधि नहीं दिखाई पड़ती। मेरा सिर्फ़ ये कहना है कि सांस्कृतिक कार्य विभाग क्यों नहीं इन वर्कशापियों को गांवों की तरफ़ भेजता…वहां जाकर वो लोग गांव के बच्चों के लिये भी तो कुछ काम करें।कम से कम हमारे गांवों के बच्चे भी तो जानें कि नाटक,वर्कशाप,थियेटर,पेन्टिंग,एक्जीबीशन जैसे शब्दों के माने होता क्या है?या सब कुछ शहरों तक ही सीमित रहेगा?मुझे लगता है इस मुद्दे पर हम सभी को सोचने के साथ ही कुछ ठोस निर्णय लेने की भी जरूरत है।
                                 
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ड़ा0हेमन्त कुमार

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“शब्दों,भावनाओं और प्रकृति का अनूठा कोलाज—“उन्मेष”

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

पुस्तक समीक्षा
                                                   
                                     पुस्तक :उन्मेष
कवियत्री:मानोशी


प्रकाशक: अंजुमन प्रकाशन
इलाहाबाद।
मूल्य: रू0200/- मात्र।
प्रथम संस्करण:2013

       आज की हिन्दी कविता सामाजिक सरोकारों से ज्यादा जुड़ी है। इसमें व्यवस्था का विरोध है।आम आदमी की चिन्ताएं हैं।देश,समाज,प्रकृति,पर्यावरण,राजनीति जैसे सरोकारों को लेकर वैश्विक स्तर की सोच है।और इन्हीं सरोकारों,संदर्भों और चिन्ताओं के अनुरूप ही आज की हिन्दी कविता का शिल्प,भाषा और बुनावट भी है। नई कविता की शुरुआत के साथ ही उसके शिल्प,रचनात्मकता,भाषा और बुनावट में भी तरह-तरह के प्रयोग और बदलाव होते रहे हैं। इन प्रयोगों और बदलावों का हिन्दी काव्य पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनो तरह का प्रभाव पड़ा। सकारात्मक यह कि कविता के पाठको को नये बिम्ब,नये गठन और शिल्प की प्रयोगधर्मी रचनाए पढ़ने को लगातार मिल रही हैं। नकारात्मक यह कि काव्य से गेय तत्व क्रमशः कम होने लगा। छंदात्मक रचनाए कम लिखी जाने लगी।सपाट बयानी का पैटर्न धीरे-धीरे हिन्दी काव्य पर हावी होने लगा। लोगो में कविता पढ़ने के प्रति रुझान कम होने लगी।
                और आज हिन्दी कविता का जो परिदृश्य है उसमे उन्मेष जैसे काव्य संकलन को पढ़ना अपने आप मे एक बहुत ही कोमल और सुखद अनुभूतियों से रूबरू होना है। कनाडा में  रह रहीं युवा कवियत्री मानोशी के प्रथम काव्य संकलन उन्मेष को पढ़ना हिन्दी कविता की एक अद्भुत यात्रा से गुजरने जैसा है। एक ऐसी यात्रा जिसमें मानवीय संवेदनाएं हैं,प्रेम है,प्रकृति के विभिन्न रंग हैं,नई और ताजी अनुभूतियां हैं तो साथ ही सामाजिक सरोकार और मार्मिकता भी है।
               उन्मेष संकलन में मानोशी ने काव्य के तीन रूपों को संकलित किया है।गीत,गज़ल और छंदमुक्त कविता। इनमें भी गीत और गज़ल अधिक हैं कविताएं कम। संकलन के अंत में कुछ हाइकु,क्षणिकाएं और दोहे भी हैं।
   मानोशी  के गीतों की बात शुरू करने से पहले मैं इस बात का उल्लेख जरूर करना चहूंगा कि लगभग 2008में इंटरनेट से जुड़ने और अपना ब्लाग शुरू करने के दौरान ही मैं उनके ब्लाग मानसी तक पहुंचा था।उस समय इनकी रचनाएं भी ब्लाग पर अधिक नहीं थीं। पर इनके कुछ गीतों को पढ़ कर ही मैंने उसी समय मानोशी से कहा था कि आप की रचनाओं पर छायावाद का काफ़ी प्रभाव है। और आपकी रचनाएं पढ़ते वक्त बार-बार महादेवी जी की याद आती है।
                मानोशी के गीतों में जो नयापन,ताज़गी,प्रकृति के प्रति सम्मोहन है वह आज की युवा कवियत्रियों में कम ही दिखाई पड़ती है। उनका प्रकृति से लगाव और प्रकृति के निरीक्षण की सूक्ष्मता हमें संकलन के पहले ही गीत पतझड़ सी पगलाई धूप में देखने को मिलता है।

पतझड़ सी पगलाई धूप।
भोर भैइ जो आंखें मींचे
तकिये को सिरहाने खींचे
लोट गई इक बार पीठ पर
ले लम्बी जम्हाई धूप।
अनमन सी अलसाई धूप।
 अब धूप का पीठ पर लोटना,लम्बी जम्हाई लेना,अलसाना जैसे खूबसूरत बिंब हमारे सामने शब्दों के द्वारा सुबह के समय की धूप,सूरज---का अद्भुत कोलाज बनाते हैं। ऐसा लगता है धूप ने एक मानवीय आकार ग्रहण कर लिया हो और वह कवियत्री के समक्ष अपनी विभिन्न क्रीड़ाओं का प्रदर्शन कर रही हो।
          इसी गीत के अंतिम छंद में फ़ुदक  फ़ुदक खेले आंगन भर---खाने खाने एक पांव पर। पंक्तियों को आप देखिये आप कल्पना करिये कि धूप आंगन में एक-एक खाने पर पांव रख कर फ़ुदक रही है। जैसे बच्चे चिबड्डक या सिकड़ी के खेल में करते हैं। प्रकृति के विभिन्न रूपों,खेलों और छवियों का ऐसा अद्भुत वर्णन ही मानोशी के गीतों को अन्य युवा कवियत्रियों से अलग स्थान प्रदान करता है।
सखि वसंत आया”—गीत को अगर किसी पाठक के सामने एक अलग पन्ने पर लिखकर दिया जाय तो शायद उसे विश्वास ही नहीं होगा कि यह गीत आज की किसी युवा कवियत्री की रचना है। वह इसे निश्चित रूप से छायावादी काल की ही रचना मान बैठेगा।
   मानोशी ने अपने कुछ गीतों गर्मी के दिन फ़िर से आए,पुनः गीत का आंचल फ़हरा,संध्या आदि में जहां प्रकृति को बहुत गहराई तक महसूस करके उनका बहुत सूक्ष्म चित्रण किया है वहीं लौट चल मन,क्या यही कम है,कौन किसे कब रोक सका है,कोई साथ नहीं देता,प्रिय करो तुम याद आदि  गीतों में उन्होंने मानवीय संवेदनाओं और प्रेम की घनीभूत अनुभूतियों को अपना विषय बनाया है।मानोशी का प्रेम भी साधारण प्रेम नहीं है। वह पाठकों को हृदय के भीतर गहराई तक आन्दोलित कर जाने वाला प्रेम है।
हूक प्रेम की शूल वेदना
अंतर बेधी मौन चेतना
रोम रोम में रमी बसी छवि
हर कण अश्रु सिक्त हो निखरा
धूमिल धुंधला अंग न बदला।
उनके प्रेम में हमें विरह की वेदना सुनाई पड़ती हैहाय मैं वन वन भटकी जाऊं, तो दूसरी ओर समर्पण और पूर्णता का एक अनोखा रूप भी दिखाई पड़ता है--दीप बन कर याद तुम्हारी—”
       उन्मेष में संकलित मानोशी के तीस गीतों में हमें प्रकृति,मानवीय संवेदनाओं,अनुभूतियों और प्रेम के अनेकों इन्द्रधनुष खिलते बिखरते दिखाई देते हैं।अगर हम गज़लों की बात करें तो इसमें संकलित 21 गज़लों में हमें मानव जीवन के तमाम रंग और रूप दिखाई देते हैं।मानोशी की गज़लों की खास बात इसकी सहजता,सरलता और बोधगम्यता है।गज़लें पढ़ते समय हमें कहीं पर भी उसे समझने या उसका सार ग्रहण करने में कठिनाई नहीं महसूस होती है।
 इस संकलन में 10 मुक्त छंद,कुछ हाइकु,क्षणिकाएं और दोहे भी हैं। मानोशी की इन रचनाओं का भी सरोकार प्रकृति के निरीक्षण,प्रेम और मानवीय संवेदनाओं से ही जुड़ा है। अपनी कविता बेघर में जब मानोशी कहती हैं घुटनों से भर पेट/फ़टे आसमां से ढक बदन/पैबंद लगी जमीन पर/सोता हूं आराम से। तो अचानक ही हमें निराला की भिक्षुक कविता की याद आती है---पेट पीठ दोनों मिल कर हैं एक/चल रहा लकुटिया टेक---।
         कुल मिलाकर उन्मेष में मानोशी ने मानवीय संवेदनाओं,प्रकृति से जुड़ी अनुभूतियों और प्रेम के विविध रंगों को शब्दों में पिरोकर काव्यचित्रों का जो अद्भुत अनोखा संसार सृजित किया है वह कवियत्री के रचनाकर्म की सबसे बड़ी सार्थकता है।
          यहां एक बात मैं और कहना चाहूंगा वह यह कि यद्यपि मानोशी की रचनाएं अभी तक सिर्फ़ अपने ब्लाग मानसी और अंतर्जाल की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में ही प्रकाशित होती रही हैं। लेकिन उन्मेष हमें इस बात के प्रति पूरी तरह आश्वस्त करता है कि मानोशी आने वाले समय में हिन्दी कविता में निश्चित रूप से अपनी एक अलग पहचान बना लेंगी।
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डा0हेमन्त कुमार


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एक बच्चे की चिट्ठी सभी प्रत्याशियों के नाम-----

रविवार, 9 मार्च 2014

आदरणीय नेता जी,
सादर चरणस्पर्श।
        आशा करता हूं अन्य सभी प्रत्याशियों की ही तरह आप भी अपने चुनाव की तैयारी में व्यस्त हो चुके होंगे।लोगों से चन्दा इकट्ठा करने से लेकर हर मुहल्ले,गांव,गलीसभी की यात्रायें आप भी शुरू कर चुके होंगे।घर घर जाकर लोगों से वोट देने की सिफ़ारिश कर रहे होंगे।आखिर पांच सालों के बाद ही लोगों से मुलाकात करने का जो मौका मिलता है।यही तो वो अवसर होता है जब आम जनता के साथ आप अपनी सारी नातेदारियां,सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश करते हैं।बस इस अवसर के बाद तो हमारे मां-बाप,अध्यापक,बड़े बूढ़े,गांव के,शहर के सभी लोग, आपको ढूंढ़ते ही रह जायेंगे---सर्फ़ एक्सेल के दाग की तरह।और आप कहीं नजर ही नहीं आयेंगे।
             अगर आप चुनाव जीत गये तो देश के बहुत सारे महत्वपूर्ण कामों में संलग्न हो जायेंगे।मसलन तरह तरह के घोटाले करने,देश के विकास के लिये इकट्ठा जनता की खून पसीने की कमाई के धन को अपने बैंक एकाउण्ट्स में जमा करवाने,अपने विरोधियों को एक एक कर रास्ते से हटाने,समय समय पर देश के विकास के नाम पर विदेश यात्रायें करने,किसी अबला नारी का शोषण करने और बाद में उसकी हत्या करवाकर अपनी प्रतिष्ठा बचाने-----ऐसे ढेरों काम होंगे आपके पास। भला ऐसे में आपको देश की जनता से मिलने,उसकी खैरियत जानने की फ़ुर्सत कहां मिलेगी?
   खैर यह तो आपकी और देश की जनता की आपसी बात है मैं इस पचड़े में क्यों पड़ूं।मैं अब अपने मूल मुद्दे पर आ रहा हूं।
          मैं आप सभी को यह चिट्ठी खास तौर से यह जानने के लिये लिख रहा हूं कि इन चुनावों में कभी हमारे यानि कि बच्चों की बात को मुद्दा क्यों नहीं बनाया जाता।मुझे बहुत आश्चर्य इस बात पर होता है कि इस देश में चुनाव जीतने के लिये हर पार्टी अपना कोई न कोई  मुद्दा जरूर बनाती है।कोई देश से गरीबी खतम करने का तो कोई बेरोजगारी खतम करने का।कोई पूरे देश में हजारों उद्योग धंधे लगाने को तो कोई गांव गांव तक बिजली,पानी पहुंचाने को।कोई कहता है हम हरित क्रान्ति ला देंगे,तो कोई चिल्लाता है कि हम हर घर के एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी की गारण्टी लेते हैं।जितने नेता उतने ही मुद्दे।
  जब देश के विकास के सारे मुद्दे खतम तो मन्दिर मस्जिद का मुद्दा,धर्म सम्प्रदाय का मुद्दा,जाति बिरादरी का मुद्दा,आरक्षण देने का मुद्दा---कहां तक गिनाऊं नेता जी ---आप लोगों के पास तो मुद्दों का कोई खजाना गड़ा हुआ है।चुनाव आया नहीं कि मुद्दे निकलने शुरू।अब वो मुद्दे पूरे होंगे या नहीं इस बात की गारण्टी तो न आप लेते हैं न ही आपकी पार्टी।और फ़िर इनके पूरे होने की जरूरत भी क्या है।ये तो आप लोग सिर्फ़ जनता को रिझाने,उसे भरमाने के लिये ही अपने चुनावी एजेण्डे में डालते हैं। चुनाव खतम आप चुन लिये गये विधायक या मंत्री बन गये बस इन मुद्दों की बात भी खतम।अगले चुनाव में फ़िर नये मुद्दे निकाले जायेंगे।
        लेकिन मेरे सम्माननीय,आदरणीय नेता जी लोग आपसे मैं  इस भारत देश के सारे बच्चों की ओर से पूछना चाहता हूं कि किसी भी चुनाव में आप लोग हमें यानि बच्चों को मुद्दा क्यों नहीं बनाते?क्या हम लोग इस देश में नहीं रहते?या हमारा इस भारत देश से कोई नाता नहीं है?क्या हम यहां के नागरिक नहीं माने जाते?फ़िर क्यों हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है कि देश का कोई भी नेता चुनाव के समय हमें,हमारी बिरादरी,हमारे विकास,हमारे बचपन को मुद्दा क्यों नहीं बनाता है?
     एक तरफ़ तो आप बड़े लोग यह भी कहते हैं कि बच्चे ही हमारे देश के भविष्य हैं,इन्हीं के कन्धों पर कल राष्ट्र का भार आना है,ये ही हमारे देश का नाम रौशन करेंगे---और दूसरी तरफ़----चुनाव के समय हम पूरी तरह से गायब।न ही आप हमारे किसी हित को मुद्दा बना रहे,न ही हमारे भविष्य की बात कर रहे,नही हमारी शिक्षा,हमारे स्वास्थ्य,हमारे अधिकारों,को चुनावी मुद्दा बना रहे।आखिर माजरा क्या है?कहीं यह हमारे खिलाफ़ कोई साजिश तो नहीं रच रहे आप लोग?इसलिये कि हम अबोध हैं,हम आपकी तरह खुद को स्थापित करने के लिये हर तरह के हथकण्डे नहीं अपना सकते,हम कमजोर हैं,हम सच्चे और पवित्र दिल,आत्मा वाले कहे जाते हैं?
       आदरणीय नेता जी,एक अनुरोध मैं सभी बच्चों की तरफ़ से आपसे और करना चाहूंगा किआप भले ही हम बच्चों को अपने चुनाव का मुद्दा न बनायें।यह हमें मंजूर है। लेकिन चुनाव जीत जाने,विधायक या मंत्री संत्री बन जाने के बाद कम से कम आप लोग इतना तो कर ही सकते हैं कि---
(1)      हमारी शिक्षा के लिये आवंटित धन का कुछ हिस्सा तो हमारी शिक्षा पर ही खर्च करवायें।बाकी को अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने,विभाग के अधिकारियों से लेकर सभी हाकिम हुक्कामों की ऐयाशी पर खर्च करें।।
(2)      मुझे आशा है कि आप हमारे स्वास्थ्य की रक्षा के लिये आवंटित कुल धन का सिर्फ़ पचास प्रतिशत ही हमारे ऊपर खर्च करके लाखों की संख्या में मरने वाले हमारे भाई बहनों को जरूर बचा सकते हैं।बाकी का सारा धन आप कहीं भी खर्च करने के लिये स्वतन्त्र हैं।उससे चाहे अपनी कोठियां बनवाइये या फ़िर फ़ार्म हाउस खरीदिये।
(3)      सुना हैविश्व बैंक के अलावा भी युनिसेफ़,यु एन डी पी,डब्ल्यू एफ़ पी, जैसी विश्व स्तर की कई एजेंसियां भी हम बच्चों के विकास,शिक्षा,स्वास्थ्य आदि के लिये बहुत ढेर सारा रूपया देती हैं।आप चुनाव जीतने के बाद जरा पता करियेगा कि आखिर वो सारा रुपया जाता कहां है?कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके ही हाकिम हुक्काम लोग सारा धन आपस में ही बांट लेते हों और आपको खबर भी न लग पाती हो?क्योंकि उस पैसे से जितना विकास हम बच्चों का होना चाहिये वो तो हो नहीं रहा। फ़िर जाता कहां है वो धन?
(4)      माननीय नेता जी,ये तो आप भी जानते होंगे कि शिक्षा ही किसी देश के विकास की असली सीढ़ी है।फ़िर देश की आजादी के इतने बरस बीत जाने के बाद भी आप भारत में पूर्ण साक्षरता क्यों नहीं लागू कर पाये?आज भी देश में इस शिक्षा के लिये तरह तरह के अभियान चलाने की जरूरत क्यों पड़ रही है?
(5)      या कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके मन में यह डर कहीं छिपा बैठा हो कि अगर देश के सारे लोग पढ़ लिख लेंगे,अपना भला बुरा समझने लगेंगे,सफ़ेद स्याह का अन्तर जान जायेंगे तो इस देश की हुकूमत आप लोगों के हाथों से निकल जायेगी?यहां कि जनता आपसे आपके द्वारा किये गये एक एक कार्य का हिसाब मांगने लगेगी।
(6)      महोदय, मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि अभी इस देश में ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला जो आपकी हुकूमत छीन सके।बस आप लोग किसी तरह ऐसा पुख्ता बन्दोबस्त कर दें कि इस देश का विकास अगले सौ सालों तक इसी गति से हो जिस गति से आप चाहें।बस आपका काम पूरा।न लोग जागृत होंगे न ही उनमें समझ पैदा होगी न ही आपका राज पाट छीनेगा।
     माननीय महोदय,आशा करता हूं कि आप मुझ अबोध की बातों पर अवश्य ध्यान देंगे।      और अगर इस अबोध ने आपके सम्मान में कुछ गलत कह दिया हो तो उसे भी आप एक        शिशु की नादानी समझ कर माफ़ कर देंगे।अपनी अगली चिट्ठी में मैं आपसे कुछ और भी        बातें करूंगा।सादर।
  आपके गांव का
  एक बच्चा
                               0000
     ड़ा0हेमन्त कुमार

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लेबल

. ‘देख लूं तो चलूं’ "आदिज्ञान" का जुलाई-सितम्बर “देश भीतर देश”--के बहाने नार्थ ईस्ट की पड़ताल “बखेड़ापुर” के बहाने “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक। “मेरे आंगन में आओ” ११मर्च २०१९ ११मार्च 1mai 2011 2019 अंक 48 घण्टों का सफ़र----- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अक्षत अण्डमान का लड़का अनुरोध अनुवाद अपराध अपराध कथा अभिनव पाण्डेय अभिभावक अमित तिवारी अम्मा अरुणpriya अर्पण पाण्डेय अर्पणा पाण्डेय। अशोक वाटिका प्रसंग अस्तित्व आज के संदर्भ में कल आतंक। आतंकवाद आत्मकथा आनन्द नगर” आने वाली किताब आबिद सुरती आभासी दुनिया आश्वासन इंतजार इण्टरनेट ईमान उत्तराधिकारी उनकी दुनिया उन्मेष उपन्यास उपन्यास। उम्मीद के रंग उलझन ऊँचाई ॠतु गुप्ता। एक टिपण्णी एक ठहरा दिन एक तमाशा ऐसा भी एक बच्चे की चिट्ठी सभी प्रत्याशियों के नाम एक भूख -- तीन प्रतिक्रियायें एक महत्वपूर्ण समीक्षा एक महान व्यक्तित्व। एक संवाद अपनी अम्मा से एल0ए0शेरमन एहसास ओ मां ओडिया कविता ओड़िया कविता औरत औरत की बोली कंचन पाठक। कटघरे के भीतर कटघरे के भीतर्। कठपुतलियाँ कथा साहित्य कथावाचन कर्मभूमि कला समीक्षा कलाकार कविता कविता। कविताएँ कवितायेँ कहां खो गया बचपन कहां पर बिखरे सपने--।बाल श्रमिक कहानी कहानी कहना कहानी कहना भाग -५ कहानी सुनाना कहानी। काफिला नाट्य संस्थान काल चक्र काव्य काव्य संग्रह किताबें किताबों में चित्रांकन किशोर किशोर शिक्षक किश्प्र किस्सागोई कीमत कुछ अलग करने की चाहत कुछ लघु कविताएं कुपोषण कैंसर-दर-कैंसर कैमरे. कैसे कैसे बढ़ता बच्चा कौशल पाण्डेय कौशल पाण्डेय. कौशल पाण्डेय। क्षणिकाएं क्षणिकाएँ खतरा खेत आज उदास है खोजें और जानें गजल ग़ज़ल गर्मी गाँव गीत गीतांजलि गिरवाल गीतांजलि गिरवाल की कविताएं गीताश्री गुलमोहर गौरैया गौरैया दिवस घर में बनाएं माहौल कुछ पढ़ने और पढ़ाने का घोसले की ओर चिक्कामुनियप्पा चिडिया चिड़िया चित्रकार चुनाव चुनाव और बच्चे। चौपाल छिपकली छोटे बच्चे ---जिम्मेदारियां बड़ी बड़ी जज्बा जज्बा। जन्मदिन जन्मदिवस जयश्री राय। जयश्री रॉय। जागो लड़कियों जाडा जात। जाने क्यों ? जेठ की दुपहरी टिक्कू का फैसला टोपी ठहराव ठेंगे से डा० शिवभूषण त्रिपाठी डा0 हेमन्त कुमार डा०दिविक रमेश डा0दिविक रमेश। डा0रघुवंश डा०रूप चन्द्र शास्त्री डा0सुरेन्द्र विक्रम के बहाने डा0हेमन्त कुमार डा0हेमन्त कुमार। डा0हेमन्त कुमार्। डॉ.ममता धवन डोमनिक लापियर तकनीकी विकास और बच्चे। तपस्या तलाश एक द्रोण की तितलियां तीसरी ताली तुम आए तो थियेटर दरख्त दरवाजा दशरथ प्रकरण दस्तक दिशा ग्रोवर दुनिया का मेला दुनियादार दूरदर्शी देश दोहे द्वीप लहरी नई किताब नई पत्रिका नदी किनारे नया अंक नया तमाशा नयी कहानी नववर्ष नवोदित रचनाकार। नागफ़नियों के बीच नारी अधिकार नारी विमर्श निकट नित्या नित्या शेफाली नित्या शेफाली की कविताएं नियति निवेदिता मिश्र झा निषाद प्रकरण। नेता जी नेता जी के नाम एक बच्चे का पत्र(भाग-2) नेहा शेफाली नेहा शेफ़ाली। पढ़ना पतवार पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप पत्रिका पत्रिका समीक्षा परम्परा परिवार पर्यावरण पहली बारिश में पहले कभी पहले खुद करें–फ़िर कहें बच्चों से पहाड़ पाठ्यक्रम में रंगमंच पार रूप के पिघला हुआ विद्रोह पिता पिता हो गये मां पिताजी. पितृ दिवस पुण्य तिथि पुण्यतिथि पुनर्पाठ पुरस्कार पुस्तक चर्चा पुस्तक समीक्षा पुस्तक समीक्षा। पुस्तकसमीक्षा पूनम श्रीवास्तव पेंटिंग्स पेड़ पेड़ बनाम आदमी पेड़ों में आकृतियां पेण्टिंग प्यारा कुनबा प्यारी टिप्पणियां प्यारी लड़की प्यारे कुनबे की प्यारी कहानी प्रकृति प्रताप सहगल प्रतिनिधि बाल कविता -संचयन प्रथामिका शिक्षा प्रदीप सौरभ प्रदीप सौरभ। प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक शिक्षा। प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव। प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव. प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव। प्रेरक कहानी फ़ादर्स डे।बदलते चेहरे के समय आज का पिता। फिल्म फिल्म ‘दंगल’ के गीत : भाव और अनुभूति फ़ेसबुक बंकू बंधु कुशावर्ती बखेड़ापुर बचपन बचपन के दिन बच्चे बच्चे और कला बच्चे का नाम बच्चे का स्वास्थ्य। बच्चे पढ़ें-मम्मी पापा को भी पढ़ाएं बच्चे। बच्चों का विकास और बड़ों की जिम्मेदारियां बच्चों का आहार बच्चों का विकास बच्चों को गुदगुदाने वाले नाटक बदलाव बया बहनें बाघू के किस्से बाजू वाले प्लाट पर बादल बारिश बारिश का मतलब बारिश। बाल अधिकार बाल अपराधी बाल दिवस बाल नाटक बाल पत्रिका बाल मजदूरी बाल मन बाल रंगमंच बाल विकास बाल साहित्य बाल साहित्य प्रेमियों के लिये बेहतरीन पुस्तक बाल साहित्य समीक्षा। बाल साहित्यकार बालवाटिका बालवाणी बालश्रम बालिका दिवस बालिका दिवस-24 सितम्बर। बीसवीं सदी का जीता-जागता मेघदूत बूढ़ी नानी बेंगाली गर्ल्स डोण्ट बेटियां बैग में क्या है ब्लाइंड स्ट्रीट ब्लाग चर्चा भजन भजन-(7) भजन-(8) भजन(4) भजन(5) भजनः (2) भद्र पुरुष भयाक्रांत भारतीय रेल मंथन मजदूर दिवस्। मदर्स डे मनीषियों से संवाद--एक अनवरत सिलसिला कौशल पाण्डेय मनोविज्ञान महुअरिया की गंध मां माँ मां का दूध मां का दूध अमृत समान माझी माझी गीत मातृ दिवस मानस मानस रंजन महापात्र की कविताएँ मानस रंजन महापात्र की कवितायेँ मानसी। मानोशी मासूम पेंडुकी मासूम लड़की मुंशी जी मुद्दा मुन्नी मोबाइल मूल्यांकन मेरा दोस्त मेरा नाम है मेराज आलम मेरी अम्मा। मेरी कविता मेरी रचनाएँ मेरे मन में मोइन और राक्षस मोनिका अग्रवाल मौत के चंगुल में मौत। मौसम यात्रा यादें झीनी झीनी रे युवा युवा स्वर रंगबाज रंगबाजी करते राजीव जी रस्म मे दफन इंसानियत राजीव मिश्र राजेश्वर मधुकर राजेश्वर मधुकर। राधू मिश्र रामकली रामकिशोर रिपोर्ट रिमझिम पड़ी फ़ुहार रूचि लखनऊ लगन लघुकथा लघुकथा। लड़कियां लड़कियां। लड़की लालटेन चौका। लिट्रेसी हाउस लू लू की सनक लेख लेख। लेखसमय की आवश्यकता लोक चेतना और टूटते सपनों की कवितायें लोक संस्कृति लोकार्पण लौटना वनभोज वनवास या़त्रा प्रकरण वरदान वर्कशाप वर्ष २००९ वह दालमोट की चोरी और बेंत की पिटाई वह सांवली लड़की वाल्मीकि आश्रम प्रकरण विकास विचार विमर्श। विश्व पुतुल दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस. विश्व रंगमंच दिवस व्यंग्य व्यक्तित्व व्यन्ग्य शक्ति बाण प्रकरण शब्दों की शरारत शाम शायद चाँद से मिली है शिक्षक शिक्षक दिवस शिक्षक। शिक्षा शिक्षालय शैलजा पाठक। शैलेन्द्र श्र प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव स्मृति साहित्य प्रतियोगिता श्रद्धांजलि श्रीमती सरोजनी देवी संजा पर्व–मालवा संस्कृति का अनोखा त्योहार संदेश संध्या आर्या। संवाद जारी है संसद संस्मरण संस्मरण। सड़क दुर्घटनाएं सन्ध्या आर्य सन्नाटा सपने दर सपने सफ़लता का रहस्य सबरी प्रसंग सभ्यता समय समर कैम्प समाज समीक्षा समीक्षा। समीर लाल। सर्दियाँ सांता क्लाज़ साक्षरता निकेतन साधना। सामायिक सारी रात साहित्य अमृत सीता का त्याग.राजेश्वर मधुकर। सुनीता कोमल सुरक्षा सूनापन सूरज सी हैं तेज बेटियां सोन मछरिया गहरा पानी सोशल साइट्स स्तनपान स्त्री विमर्श। स्मरण स्मृति स्वतन्त्रता। हंस रे निर्मोही हक़ हादसा हादसा-2 हादसा। हाशिये पर हिन्दी का बाल साहित्य हिंदी कविता हिंदी बाल साहित्य हिन्दी ब्लाग हिन्दी ब्लाग के स्तंभ हिम्मत हिरिया होलीनामा हौसला accidents. 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