बंकू : एक प्यारा पिल्ल़ा जो जिया एक योद्धा की तरह
सोमवार, 24 मार्च 2025
पुस्तक समीक्षा
बंकू : एक प्यारा पिल्ल़ा जो जिया एक योद्धा की
तरह
लेखक : अमित
तिवारी
प्रकाशक : बोधरस
प्रकाशन,लखनऊ
मूल्य :रू—200/-
आमतौर
पर मैं कोई किताब एक या दो दिनों में नहीं ख़तम कर पाता ।या कह सकते हैं कि मैं एक स्लो रीडर हूं ।लेकिन कभी कभी ऐसी किताबें भी मिल जाती हैं जिन्हें पढ़ना शुरू कर
देने के बाद बिना उस किताब को पूरी किए दूसरा काम नहीं कर सकता ।
ऎसी ही एक किताब इधर पुस्तक मेले में
मुझे मिल गई “बंकू” जिसके लेखक हैं युवा साहित्यकार अमित तिवारी ।“बंकू” अमित तिवारी का उपन्यास है जिसके चार महीने में ही दो संस्करण
प्रकाशित हो चुके हैं।स्लो रीडर होने के बावजूद मैंने यह
उपन्यास कुल छः सात घंटों में एक बैठक में ही पढ़ लिया । अमित तिवारी की बंकू के अलावा दो किताबें और प्रकाशित हो चुकी हैं –“माया
मरी न मन मरा” और “वैतरणी के पार” ।
इस उपन्यास को एक बैठक में ही पढ़ डालने का कारण उपन्यास के कथ्य का
नयापन,इसकी
रोचकता और लेखन की एक अलग शैली है ।दरअसल
“बंकू” किसी मनुष्य या व्यक्ति की कहानी नहीं है ।यह कहानी है एक छोटे से पिल्ले की जो बहुत कम जीवन जीने (लगभग चार
वर्ष )के बावजूद एक योद्धा की तरह रहा ।यह
कहानी है एक प्यारे पिल्ले के जीवन संघर्ष,उसकी जीवन जीने की जिजीविषा और उसके जीवन में
आने वाले तमाम संकटों,बाधाओं यहां तक कि मौत को भी चकमा देकर स्वस्थ हो जाने की ।इसीलिए लेखक ने कहा भी है “बंकू का जीवन लंबा न रहा,लगभग चार साल
की उम्र में ही वह ईश्वर के पास चला गया ,लेकिन उसने पूरा जीवन जिया,एक योद्धा का
जीवन ।बंकू ने हम सबको और अधिक संवेदनशील
होना सिखाया,प्रेम करना सिखाया और सिखाया हृदय में जगह बनाना.... ।”
बंकू सिर्फ एक पिल्ले की कहानी भर नहीं है ।बंकू के माध्यम से लेखक ने किसी भी जीव के मन में उठने वाले भावों,उसकी सोच,मनुष्यों को लेकर उसके भीतर चलने वाले
अंतर्द्वंद्वों तक झाँक कर उन्हें बहुत कुशलता के साथ एक उपन्यास का रूप दिया है ।यह उपन्यास पढ़ते समय यह लगता ही नहीं कि यह सब कुछ “बंकू” नाम के एक
पिल्ले के बारे में लिखा जा रहा है ।कारण
यह कि बंकू अपने मालिक के घर आने के बाद से ही जीवन जीने की कला सीखने लगा ।अपने आस-पास के जीवों के साथ ही वह धीरे धीरे मनुष्य समाज को भी
समझने की कोशिश करने लगा ।क्या बुरा है क्या भला ,कौन दोस्त है
कौन दुश्मन इसकी पूरी समझ उसके अन्दर विकसित होने लगी ।उसने पूरे मानव समाज से एक नाता जोड़ना शुरू कर दिया जो उसके जीवन के
अंत तक बना रहा ।
“बंकू” की कहानी शुरू होती है जाड़े की
एक दोपहर से जिसमें धूप में बंकू अपने भाई के साथ उछल-उछल कर खेल रहा था और गाँव
के दो युवा उनका खेल देख रहे थे ।बंकू
का भाई (दूसरा पिल्ला)कद काठी में थोड़ा मजबूत और तेज था जबकि बंकू कमजोर था ।बंकू का भाई बार-बार उस युवक के पैर के पास आकर अपने पंजों से उसके
पैरों को छू रहा था मनो उसे भी साथ खेलने के लिए आमन्त्रित कर रहा हो ।कुछ देर उनका ये खेल देखकर दोनों युवक वहां से अपने घर वापस चले गए ।लेकिन रात में ठंढ बढ़ने के साथ ही उन्हें दोनों पिल्लों की चिंता
सताने लगी ।अगले दिन दोनों जब फिर वहां पहुंचे तो
मजबूत वाला पिल्ला (बंकू का भाई)ठंढ से मर चुका था और पतला दुबला वाला काला पिल्ला
उसके ऊपर बैठ कर उसे ढकने की नाकाम कोशिश कर रहा था ।
काफी सोच विचार के बाद दोनों उस कमजोर पिल्ले को घर लाते हैं उसका घर
बनाते हैं और उसका नाम “बंकू”रखा जाता है ।और
यहीं से कहानी शुरू होती है बंकू के मनुष्यों से संपर्क,उनसे एक पारिवारिक रिश्ता जोड़ने,और उसके जीवन संघर्षों की ।वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है उसकी शैतानियाँ,चुलबुलापन,पास में रहने वाले दूसरे पिल्लों के
साथ छेड़छाड़,धमाचौकड़ी और दोस्ताना सब कुछ बढ़ता जाता है ।बंकू ने उन्हीं में से खुद से उमर में अधिक और अपेक्षाकृत एक बड़े
कुत्ते “ढोल” से पक्की वाली दोस्ती भी कर ली थी ।वह ढोल के साथ घर से दूर खेतों और नदी किनारे तक जाने लगता है ।और ढोल के साथ उसका पूरे गाँव में घूमना ,नदी में उतर कर मछलियाँ
पकड़ना,घूम
घूम कर पास पड़ोस के गाँवों में पूड़ियों की दावतें उड़ाना,दूसरे कुत्तों के साथ
संघर्ष जैसी घटनाएं उपन्यास को रोचक और पठनीय बनाती हैं ।
अपने इसी घुमक्कड़पने में बंकू कई जगह मार भी खाता है ।उसकी शिकायतें भी आती हैं ।कई
बार दूसरे कुत्तों के झुण्ड में फंस कर चोटिल भी होता है ।एक बार सियारों से भी बचता है ।लेकिन इन छोटी मोटी घटनाओं से उसके घुमक्कड़ स्वभाव और यायावरी जीवन
पर कोई फर्क नहीं पड़ता ।लेकिन बंकू के इसी मटरगश्ती करने वाले
स्वभाव और यायावरी की इच्छा ने एक दिन उसे जंगल में मौत के मुंह में ढकेल दिया । वह एक जंगली सूअर से टकरा गया और बुरी तरह घायल हो गया ।मालिक द्वारा इलाज करवाने पर वह किसी तरह बच तो गया लेकिन उसका एक
पैर काफी जख्मी हो चुका था और इसी से उसकी चुस्ती फुर्ती कम हो गई थी ।वह कभी कभी अकेला बैठा बैठा अपने आस-पास के आदमियों,दूसरे जीवों और उनके व्यवहार के बारे
में सोचने लगता है ।ऐसा लगता है कि वह उनका मूल्यांकन कर
रहा हो ।उपन्यास पढ़ते पढ़ते कई जगह लगने लगता है
कि “बंकू” कोई पिल्ला न होकर कोई दार्शनिक बन गया है ।
“बंकू को लगा जैसे उसकी जिन्दगी ने ही उससे मुंह
फेर लिया हो ।कभी कभी वो बाक़ी कुत्तों को खेलता देख
चहकता जरूर पर चोट के कारण वहीँ बैठ जाता ।उसका जीवन एक जगह बांध कर रह गया था ।-------एक रात बंकू को बैठे बैठे न जाने क्या सूझा,वो उठ कर घर के पीछे नदी के रास्ते पर
चल दिया ।अभी रात ही थी ,सुबह होने में समय था,सब और अँधेरा था । नदी के किनारे पहुँच कर पानी की तरफ मुंह करके
बंकू घाट पर बैठ गया ।बहुत
देर तक बस नदी को निहारता रहा ।जैसे
खो चुके खुद को ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा हो ।अपने सभी घावों के विचार उसके मन में आ रहे थे,शरीर के भी और जो घाव उसके मन को मिले
थे वो भी ।बहुत देर तक ध्यानमग्न रहने के बाद
उसने एक निर्णय लिया....कठोर निर्णय... ।(पृष्ठ-113)
“बंकू” के जीवन में घुस चुके इस दार्शनिक ने
उसे काफी बदल दिया था ।वह जीवन से पूरी तरह से निराश हो गया
था ।वह घर छोड़ कर चला गया था ।अपने दुनिया में होने या अपने अस्तित्व की तलाश में ।लेकिन इस दार्शनिक भाव ने उसे जीवन के कई नए सबक भी दिए ।वह धीरे धीरे एक दार्शनिक से एक साधू या सन्यासी के रूप में तब्दील
होता गया ।वह अब दूसरे जीवों को लेकर बहुत दयावान
बन गया ।पक्षियों,गिलहरियों,गायों,बकरियों उनके छौनों से उसे प्रेम भी हो गया ।इन सबकी संगत ने उसे बहुत सहनशील,सहिष्णु,उदार और दयावान भी बना दिया था ।काफी समय इधर-उधर,गाँव दर गाँव भटकने के बाद वह अंततः अपने पुराने घर वापस आ गया ।लेकिन एक बदले हुए स्वरूप में ।शिकारी की जगह अब वह सन्यासी बन चुका था ।
अमित तिवारी का यह उपन्यास पढ़ते समय पाठक को यह नहीं महसूस होता है
की यह सिर्फ एक पिल्ले की कहानी भर है ।मनुष्य
को पशु पक्षियों के प्रति कितना दयावान होना चाहिए,उनके लिए कितना मैत्रीपूर्ण रवैया हम मनुष्यों
का होना चाहिए ,उनके प्रति हमारे क्या कर्तव्य होने चाहिए यह सब कुछ यह उपन्यास
हमें सिखाता है ।और यही संभवतः इस उपन्यास की सबसे बड़ी
सफलता है ।एक बात और “बंकू” उपन्यास जितना बड़ों,प्रौढ़ों को पसंद आएगा उससे कहीं अधिक
यह बच्चों और किशोरों,युवाओं को भी पसंद आएगा ऐसा मेरा विशवास है ।
००००
डा0
हेमन्त कुमार
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