समय की परख करती कविताएं
गुरुवार, 23 जनवरी 2025
पुस्तक समीक्षा
कृति :कटघरे के भीतर
समय की परख करती कविताएं
0शैलेश पंडित
डा०हेमन्त
कुमार की कविताएं अपने समय की परख करती हुई आगे बढ़ती हैं,जिसमें मां की याद है,चूल्हे में पकती
रोटियाँ हैं,चिड़िया,तितलियाँ और लड़कियां हैं,और सभ्यता की
दौड़ में रिश्तों के ठूंठ हुए जंगल हैं।बहुत कुछ है जो अतीत में लौटने को विवश करता
है।वह अतीत जिसमें रिश्तों की गरमाहट थी,चिड़ियों की हंसती-खेलती,नजदीक आती हुई दुनिया
थी।उस जीवन का एक संगीत था,जो समय के हाथों कहीं खो गया।यह खोया हुआ समय,हमें
बार-बार उस खोई हुई दुनिया में कहीं लौटा ले जाता है,जो कुछ बेहतर करने की कोशिश में हमारे
हाथों से रेत की तरह फिसलता गया है।तो क्या उसे ऐसे ही छोड़ कर हम आगे बढ़ जाएंगे?क्या
हम वह सब लौटा नहीं पाएंगे,जिसके चलते उस अतीत का मोहक वर्त्तमान था।हेमन्त कुमार
समय के इस दौर को,अतीत के उस वर्तमान से समानान्तर रख कर जीवन जीने के पक्षधर हैं।
हमारे इस दौर की उपलाब्धियाँ कम तो नहीं हैं।लेकिन
जो मां
की दुनिया थी---वह चूल्हे चौके की दुनिया,आग के भीतर पकती हुई रोटियों की दुनिया,वह आह-कराह और अभावों की दुनिया—उस
दुनिया का एक संगीत था,एक ताल-लय थी,एक सोंधी खुशबू थी,जो बार-बार हमें रिश्तों की उस सराबोर करती हुई धार में बहा ले जाती
है,जो
हमारे इस प्रगतिशील वर्तमान से कहीं अधिक सम्पूर्ण थी।उस आभा मंडल में ले जाती है,जिसके
रंग बहुत दूर तक हमारे दौर को आलोकित करते रहेंगे।
हेमन्त मां को याद करते हुए कहते हैं----"ज्यादा कुछ नहीं /सिर्फ एक बार /भट्ठी
की आंच में /सिंकी /आलू भरी गरम रोटियां /और टमाटर की चटनी /यही तो मांग रहा।” इतना ही नहीं
हेमन्त घर के हर सामान यहाँ तक कि घर के कोने में कील पर टंगी सूप में भी अम्मा की
स्मृतियाँ खोजते हैं।----“कहीं घर के किसी कोने में /कील पर टंगी सूप/उस
पर चिपके चावल के दाने/कहते हैं सबसे/यहीं कहीं हैं अम्मा /उन्हें नहीं पसंद /सूप
से बिना फटके/चावल यूं ही बीन देना ।”(एक संवाद अपनी अम्मा से )
यही नहीं,शीशे में अपना अक्स देखते हुए,दूर
क्षितिज पर निहारते हुए,किसी ‘बार’ में खुशियाँ तलाशते हुए,हर कहीं अम्मा उभर आती
हैं।उभर आता है,उनका
वह भरा-पूरा,अभावों का झिलमिलाता संसार जिसकी छुवन को हम धो-पोंछ कर भी स्वयं से
अलग नहीं कर सकते।उनकी निरंतर आशीष बरसाती हुई,वह प्रार्थनामय छवि भला हमसे अलग
कैसे जा सकती है --- “जब भी मैं बैठता हूं /ढलते सूरज के साथ/बालकनी में कुर्सी पर
अकेला/मेरी आंखों के सामने/आता है कैमरे का व्युफाइंडर/और उसमें झलकती है/एक
तस्वीर /आंगन में तुलसी की पूजा करती/एक
स्त्री की/और कहीं दूर से आती है एक आवाज/ओ मां।” हेमन्त को अपने घर के हर कोने
में ...बाथरूम तक में अम्मा की छवियाँ नजर आती हैं ।यह कवि के संवेदनशील मन और
परिवार से लगाव का द्योतक है ।इसी कविता की आगे की पंक्तियों में उन्होंने लिखा है
.....”जब भी बच्चे व्यस्त रहते हैं/टी०वी०स्क्रीन
के सामने/और मैं बाथरूम में/शेव कर रहा होता हूँ /शीशे के सामने अकेला/अचानक मेरे
हाथ हो जाते हैं/फ्रीज/शीशे के फ्रेम पर/डिजाल्व होता है एक फ्रेम और/मेरा मन
पुकारता है/ओ मां..... ।”(ओ मां)
हेमन्त कुमार की कविताओं में गौरैयों,तितलियों
और लड़कियों के चित्र बार-बार उभरे हैं।और इनके माध्यम से उभरा है ---उमंगों,उत्साहों,का संगीतमय,रंग-बिरंगा संसार।ऐसा लगता
है ये एक दूसरे की पूरक हों।जैसे इनमें से कोई लड़ी टूटने पर,रंग-उमंग का यह परिदृश्य टूट कर बिखर
जाएगा।नहीं,कुछ
भी टूटने नहीं देना है।उसे रूठने नहीं देना है।भले ही सभ्यता ने उनके बसेरे उजाड़
दिए हों।भले ही वह लौह मानव के रूपाकार से भयभीत हो --- हम उन्हें मनाएंगे।सारी
दुनिया उन्हें मना रही है।सम्पूर्ण धरती उनकी संगीतमय वापसी की प्रतीक्षा कर रही
है ---- “चिड़िया तो आखिर चिड़िया है/उसको बेचारी को कहाँ पता कि हम/ सभ्य हो रहे
हैं/और हमारा विकास/पूरी प्रगति पर है।”..(चिड़िया)
कुछ
ऐसे ही भाव उनकी कविता बया आज उदास है में पढ़ा जा सकता है ।.... “बया आज उदास
है/नहीं गा रही वह आज/एक भी गाना/नहीं दिया उसने अभी तक /बच्चों को अपने/पानी-दाना।”xxxxx “वह देख रही है बस/एक टक लगातार/निश्चल
भयभीत/बेबस और सहमी आंखों से/अपनी और धीरे-धीरे /बढ़ते चले आ रहे /विशालकाय लौहमानव
की ओर।”....(बया आज उदास है)
इसी
तरह गौरैया को लेकर उनकी चिंता उनकी गौरैया से शिकायत वाले भाव उनकी गौरैया कविता में
दिखाई पड़ता है--- “सुना है इन दिनों/पूरी दुनिया भर में तुम्हें मनाने/आंगन में
वापस बुलाने और/तुम्हारी प्रजाति बचने के लिए/गौरैया दिवस मना रहे हैं लोग/तुम्हें
वापस बुलाने के ढेरों उपाय/और जतन कर रहे हैं/दुनिया भर के लोग ।”....(गौरैया से )
‘उडूँगी फिर फिर’,‘जागो लड़कियों’, ‘मासूम लड़की’, ‘लड़कियाँ’, ‘बेटियां’, शीर्षक से व्यक्त हुई कविताओं में
हेमन्त रंगों की वही दुनिया आगे बढ़ाते हैं,जो चिड़ियों से शुरू होकर उस विस्तार तक जाती है
जहाँ एक और संगीत बजता हुआ मुखर होता है।हमारी दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है,जो इस संक्रमण के युग में संजोए बचाए
रखने जैसा है,जिसे
ये तितलियाँ,ये
लड़कियाँ और बेटियां निरंतर रचती जा रही हैं।यह सच है कि हम जिस दुनिया में जी रहे
हैं,वहां
हादसों के बीच से फिर जिंदगियां रची जाती हैं,जो गाती,गुनगुनाती,खिलखिलाती हुई हमें अगली
यात्राओं के लिए तरोताजा कर देती हैं।हम थक-हार कर बैठ नहीं सकते।हमारे समय की
दुर्घटनाएं,विकास की अनिवार्य परिणति हैं।लेकिन इस दौड़ में निरंतर जिंदगियों के
रचाव का सिलसिला जारी है।
इस रचाव की परिणति हेमन्त की इन कविताओं में
जगह-जगह देखी जा सकती है ----“लड़कियाँ हर सुबह/रोपती हैं /सपनों के कुछ पौधे /अपनी
हथेलियों पर/चलो सींचो उन पौधों को /डालो कुछ खाद और पानी/बनाओ उनके सपनों
को/वटवृक्ष/जो दे सके शीतल छाँव/हम सभी को/उन सभी सपने रोपने वाली /लड़कियों के/हर
अपनों को ।.....(लड़कियाँ)...... “बारिश ने भिगोया/धरती को/खुश हुई धरती/इठलाए
लोग/पर भीगे पंख मेरे /मैं हुई अपाहिज/लेकिन देखना तुम/मैं उडूँगी फिर और फिर
/इतराउंगी फूलों पर ।”.....(उडूँगी फिर फिर )...... “खुली खिड़कियाँ /खुला
आसमां/हुलस पड़ी ज्यों /सभी बेटियाँ ।”.....(बेटियां )
और इस रचाव के पीछे चलता हुआ समय का डर।इस डर
के भीतर चलता हुआ सृजन ----“जुम्मा जुम्मा/आठ नौ बरस की उमर में ही/पूरी कालोनी
की/खबरों को मिर्च मसाला लगाकर /आंटियों से बतियाती/पूरी दादी अम्मा /बन गई /वह
मासूम /वह भोली सी लड़की ।”.......(मासूम लड़की).... लड़कियों की सुरक्षा को लेकर
हेमन्त के मन में उठने वाली चिंताओं और भावनाओं को हम उनकी कविता तितलियाँ की इन
पंक्तियों में देख सकते हैं ---“सुबह की नर्म धूप के/फाहों के बीच से/देखते हुए इन
नन्हीं सुन्दर/तितलियों को/मन में पैठ जाता है एक/डर अनजाना सा कभी कभी /कहीं कोई
गिरगिट बिसखोपडों/या फिर शिकारी पक्षियों का/निरंकुश झुण्ड घात न लगाए हो/इन मासूम
कोमल तितलियों के लिए ।.....(तितलियाँ )
समय की इस दौड़ में हमने जो दुनिया बनाई है,उसके परिणामों से हम पूरी तरह अवगत हैं।ऐसे
में हर कोई अपने खोए हुए उस अतीत में लौटना चाहता है,जहां सुख-शांति और संभावनाएं
थीं।जहां आकांक्षाएं और उम्मीदें थीं।उसे छोड़ कर सभ्यता की दौड़ में हम यहां तक आ
पहुंचे कि मानव ,लौह मानव होकर रह गया है ।वह अपने सृजन के सामने बौना होता गया है
।उसे चारों ओर से अपने अस्तित्व का संकट दिखाई देने लगा है ।अंततः क्या होगा इस
दौड़ का,इस विवशता से भरे हुए विकास का ?हेमन्त अपनी कविताओं में यह सब बयान करते
हुए सवाल उठाते हैं कि अंततः हम कहां आ गए----“उसे तो दिख रहा है/दूर-दूर तक फैला
हुआ/कंक्रीट और इस्पात का /एक अंतहीन जंगल।पिघले हुए /काले तारकोल की बहती नदियाँ
/और धरती के सीने में /उड़ेला जा रहा/खौलता हुआ इस्पात।”...(चिड़िया) “वह देख रही है
बस/एक टक/लगातार /निश्चल भयभीत /बेबस और /सहमी हुई आंखों से /अपनी ओर धीरे-धीरे
/बढ़ते चले आ रहे/विशालकाय /लौह मानव की ओर।”...(बया आज उदास है )......“कितने और
भी पहाड़ हैं/जिनकी ऊंचाइयों को/नापने के लिए /पहले उसे /अपने स्वयं के/बौनेपन को
पहचानना होगा।”..(काले पहाड़ों के बीच )
यह जो कुछ हो रहा है,क्या आज के मनुष्य को यह मान लेना होगा
कि यही हमारी नियति है ?यही है हमारे समय की अनिवार्य परिणति ?क्या इसे ऐसे ही
स्वीकार करते जाना हमारी यात्रा का असंभावित विकल्प होगा ?क्या उसमें हिस्सेदारी
के सिवा हमारी कोई दूसरी भूमिका नहीं हो सकती?हेमन्त यथा स्थिति बयान करते हैं।----
“इस जंगल में/हर शाम/एक कहर बरपा होता है।...बूट रौंदते हैं/जंगल के सीने को
/टूटती हैं /कुछ व्हिस्की और रम की/खाली बोतलें/और एक मासूम पेंडुकी/दम तोड़ देती
है/तड़फड़ा कर/चंद खुरदुरे हाथों के बीच ।”....(नियति) या फिर हम इस नियति के चक्र
को हेमंत की इस कविता में भी देख सकते हैं ---“आओ तुम भी आओ /शामिल हो जाओ /घुनों
की लम्बी कतार में/और कुतर डालो/छलनी कर डालो पूरी तरह/इस जिस्म को/इन भावशून्य
आंखों को/और नष्ट कर डालो मेरे होने के हर सबूत को।”(काल चक्र)
नहीं,यह सच नहीं कि नियति हमें हराकर,हमारे समय को
अपने क्रूर हाथों से विकृत कर जाए।कभी-कभी नियति का ध्वंस ,कुछ क्षणों के लिए हमें
हताश और जड़ कर सकता है।और अगले ही पल हम उसे अपने वजूद से झटक कर ,इस दुनिया में
ऐसा बहुत कुछ रच सकते हैं,जो इस बौनेपन ,इस लौह मानव और छलनी होते समय से मुठभेड़ कर सकता है।इसके
लिए आवश्यक नहीं की हमें किन्हीं विराट हाथों की जरूरत हो।हम जहां भी हैं,जिस स्थिति में भी हैं,समय के इस दमन के विरुद्ध उठ खड़े हों
तो सभ्यता का यह दौर अपने आप यह जड़ता,यह विद्रूप खो देगा।डा०हेमन्त कुमार की कविताओं
में यह मुठभेड़ कई धरातलों पर दिखलाई देती है।‘खुद से बतियाती औरत’, ‘सपने दर सपने’, ‘किसी दिन अचानक’,
‘तितलियाँ’,
जैसी कविताओं में यह कोशिश सहज ही दिखाई देती है ।
डा०हेमन्त कहते हैं----“कभी थकती नहीं/कभी झुकती
नहीं/हजारों कामों का बोझ/अपने कन्धों पर लादे /चहरे पर बिना कोई शिकन लाए/बड़े ही
करीने से /घर के सारे कामों से/सारा सारा दिन बतियाती रहती है/ये सुन्दर सलोनी औरत।”xxxxx “घर की चौहद्दी से बाहर भी/जब निकलती
है ये औरत/दुनिया के हर दर्द को/समेट लेती है अपनी मुट्ठी में/अपने मजबूत इरादों
से/नापाक इरादों को कर देती है/नेस्तनाबूद ।”.....(खुद से बतियाती औरत )
हेमन्त अपनी एक दूसरी कविता में कहते हैं
----“सपनों के साकार होने की उम्मीद में/हम भी दौड़ाते हैं रेल/लखनऊ से मुंबई/मुम्बई
से इटारसी ।”xxxx “सुबह
से शाम/शाम से रात/सबके सपनों को बंद करके/अपनी नन्हीं सी ढोलक की थाप में ।”....(सपने
दर सपने)
“कभी किसी दिन/किसी वक्त/अचानक ही उगेंगे/कुछ
खूबसूरत अक्षर/रंग बिरंगे फूल बनकर/इस बियाबान जंगल की/कठोर धरती पर ।फिर बन
जाएंगे वो शब्द/संगीत के स्वर/किसी झरने की/कलकल में समाहित होकर ।......(किसी दिन
अचानक)
यह मुठभेड़ संगीत ही नहीं,सौन्दर्य भी रचती है।यह पूरी की पूरी
फूलों की घाटी रच देती है,जिनके भीतर उतर कर तितलियों की तमन्नाएं,सपने और उड़ान अद्भुत
सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं—“नीले पीले लाल रंगों वाले /यूनिफार्म/कन्धों पर टंगे
कुछ हल्के/कुछ भारी थैलों में बंद/ऊंची उड़ान भरने के सपने/आंखों में फूलों
की/रंगीन घाटियों की तलाश/चेहरों पर कुछ कर गुजरने की तमन्ना/और अटूट आत्मविश्वास
भी/बढ़ाता है/इन कोमल तितलियों का सौन्दर्य ।”.....(तितलियाँ)
हेमन्त कुमार की कविताएं ढेरों विविधता लिए
हुए हैं।इन कविताओं में श्रमिक हैं,श्रमिकों के बच्चे हैं,हमारे समय के बड़े बूढ़े
हैं,बारिशें हैं,मुम्बई है।और अंततः है—हमारे वजूद की तलाश,जिसे गढ़ने,रचने,रंग देने और
खोजने में यह पूरा समय,और इस समय का मनुष्य बहुत तेजी से कहीं स्वप्नवत तो कहीं अपनी निष्ठा
से आंखें खोले हुए निरंतर दौड़ रहा है।हेमन्त की कविताएं अपने समय का वजूद ढूँढ़ते
आदमी की कोशिशों की कविताएं हैं।और यह सच है कि इस कोशिश में बच्चे सबसे आगे हैं ।भले
ही उन्हें यह पता न हो कि वे किस तलाश की और बढ़ रहे हैं?
इस विविधता को बारिश की बूंदों की तरह,उपवन के फूलों और आकाश के नक्षत्रों की
तरह हम देख,पढ़
और छू सकते हैं ।हेमन्त बच्चों की फिक्र करते हैं----“उसकी उमर ग्यारह साल है/वह
अपना दिन शुरू करता है/चाय की चुस्कियों से/और रात/समाप्त करता है/बीड़ी के धुएं
में ।”....(उसकी उमर)
“मैं बनाना चाहता हूं/एक बहुत बड़ी
दुनिया/.....जहाँ हर बच्चे के हाथ में हों/रंग बिरंगे गुब्बारे/रूई और ऊन से
बने/सुन्दर खिलौने/हर बच्चे के कन्धों पर हो/एक बैग प्यारा सा/बैग में हों ढेरों
नई नई कहानियां ।”(उनकी दुनिया).... “सबके/दुनिया भर के बच्चों के/प्यारे
सांताक्लाज /एक बार आप/हमारी बस्ती में जरूर आना/.......हमें नहीं चाहिए/कोई
उपहार/.....हमें तो बस/किसी बच्चे की/पुरानी फटी गुदड़ी/या फिर कोई/उतरन ही दे देना/जो
इस हाड़ कंपाती ठंढक में/हमें ज़िंदा रख सके ।”.....(सांताक्लाज से).... “मैं ढूँढ़ता
रहता हूं बचपन को/मुहल्ले की सड़कों पर/पार्कों में/गलियों में/चबूतरों पर/पर
कमबख्त बचपन/मुझे कहीं मिलता ही नहीं ।”....(कहां खो गया बचपन)
हेमन्त फ़िक्र करते हैं उन बूढ़े दम्पत्तियों
की,जिनकी
हंसती-खेलती विरासत,उस विरासत के पहरेदार नौकरशाही और आतंकवाद के हाथों मार दिए जाते हैं।कहीं
पुल टूट जाता है,रेलगाड़ियाँ पटरी से उतर जाती हैं,तो कहीं बमों के धमाके सैकड़ों आंखों के सपने
छीन लेते हैं।समय की इस दौड़ में वरिष्ठ नागरिकों के जो हालात हैं,वह सारी दुनिया में चिंता का विषय है।कुछ
बूढ़ी आंखें अपने बच्चों का रास्ता निहार रही होती हैं कि राजधानी से बम ब्लास्ट की
खबरें आती हैं----“बेचारे हजारों हजार बूढ़े दंपत्ति रह गए स्तब्ध/उनके सुनहरे
सपने/बिखर गए एक धमाके के साथ/कुछ बूढ़े दंपत्ति घिसटते पिसटते भागे/गाँव के नजदीकी
पुलिस थानों की ओर ।”....(बूढ़े दंपत्ति)
हेमन्त
कुमार की रचनात्मक परिधि में आज की वह सम्पूर्ण दुनिया है,जिसके आकलन से इस देश का सम्पूर्ण
भूगोल कविता के शब्दों में मुखरित हो जाता है ।उनमें बारिशें हैं,मुम्बई है,यात्राएं और सपने हैं ।बारिश जो प्रेम
का बीज बोती है तो हरखू की चिंता भी बढ़ा देती है -----“बारिश की रेशमी /फुहारों का
स्पर्श/सहला जाता है/हौले से/तुम्हारे पास होने के /एहसास को ।”....(बारिश-2)...वहीं
दूसरी और बारिश का एक अलग रूप भी हेमन्त के कवि मन को झकझोरता है ।“बारिश का मतलब
होता है/हरखू की चिंता /इस बात की कि/कल जब सबके खेतों में चलेगा हल/तो कैसे
जोतेगा वह खेत/बिना बैलों के/कहाँ से आएगा बीज बोने के लिए ।”.......(बारिश का
मतलब)
हेमन्त इन कविताओं में केवल सवाल ही नहीं
उठाते,वह
यात्राओं और सपनों के माध्यम से वह दुनिया भी रचते हैं,जो समकालीन समय से जूझते
हुए आदमी का गंतव्य हो सकती है ।रचनाकार का काम,समय के सवालों को उठाकर गायब हो जाना
भर नहीं है,वह
समय के विद्रूप,के विरुद्ध विकल्प रचने की भूमिका में भी होता है।हेमन्त अपनी
कविताओं से किसी विकल्प का दावा नहीं करते।लेकिन उनके भीतर का कवि अपने समय-समाज
की गहरी पड़ताल करता हुआ,पाठक को उन मोड़ों तक ले जाता है,जहाँ विकल्प की ढेरों संभावनाएं हैं।हेमन्त
इन्हीं संभावनाओं के कवि हैं।यह संग्रह शुरू से अंत तक इन संभावनाओं से भरपूर है ।
००००
शैलेश पंडित
जन्म
:15 जून, 1955 को।
शिक्षा:इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम. ए. डी. फिल.।
शुरु
में पत्रकारिता से जुड़े रहे।फिर एक वर्ष तक बिड़लासागर स्कूल, पोरबन्दर मैं ट्रेंड ग्रेजुएट टीच।लगभग दस
वर्षों तक सौराष्ट्र युनिवर्सिटी के एम. एम. जी. कॉलेज में हिन्दी विभाग में विभागाध्यक्ष।साथ ही विश्वविद्यालय में
स्नातकोत्तर प्राध्यापक।सन् 1991 बैच में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत
आई.बी.एस. और दूरदर्शन में सहायक केन्द्र निर्देशक के रूप में चयन के उपरान्त देश
के कई प्रमुख केन्द्रों में निदेशक के रूप में कार्य।सन् 2011 से दूरदर्शन
महानिदेशालय नई दिल्ली में उपमहानिदेशक।अन्तत: जून, 2015 में उस पद से सेवा-निवृति।
कविता, से लेखन की शुरुआत।बाद में इलाहाबाद के वातावरण
में साहित्य की व्यापक दीक्षा।फिर कहानी और उपन्यास लेखन की यात्रा आरम्भ हुई।अपनी
रचनाओं में लोकराग के प्रति गहरी आस्था ।
कृतियाँ:
देश जिन्दाबाद, बन्धु - बिरादर (उपन्यास), वन्दे
भगवती, पहला फागुन (कहानी संग्रह), सान्ताक्तगज (कविता संग्रह) गुजराती की
प्रतिनिधि कहानियां,
भाग-1और
भाग-2 का चयन,सम्पादन। सम्प्रति:लखनऊ में रह कर स्वतन्त्र लेखन।
संपर्क-8809000593
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सार्थक और सटीक।
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