दरवाजा
गुरुवार, 29 जुलाई 2021
लगभग दो साल पहले मेरी बड़ी बेटी नेहा शेफाली ने अपनी फेसबुक वाल पर “वन वर्ड थ्री पोयम्स” शीर्षक से कविताओं की एक श्रृंखला शुरू की थी।जिसमें खुद नेहा शेफाली,मेरी श्रीमती जी पूनम श्रीवास्तव और मैं एक ही शब्द को लेकर कवितायेँ लिखते थे।मैं उसी श्रृंखला को अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करने जा रहा हूँ।तो लीजिये आज पढ़िए “दरवाजा” शीर्षक से तीन कविताएँ।
1.दरवाज़ा
(पूनम
श्रीवास्तव)
यूँ हमारी खूबियों को दिखाना
हमारी कमियों को छुपाये रखना
बचपन से जवानी
और जवानी से बुढापे तक
हमारे बीच मौन रह कर भी
चुपचाप हमारे परिवार का
भागीदार बन कर।
आते जाते लोगों का खुल
कर स्वागत करना
और जाने वालों को
बुझे मन से अलविदा कहना
ये सब भी वहां करता है वो
लेकिन चुपचाप
बिना बोले।
हमारे हर सुख दुख का
साझेदार रहा है वो
उम्र उसकी भी ढल चली है,
फिर भी बेख़ौफ़ हमारी
रक्षा के लिए
घर की शालीनता को बनाये
रखने के लिए
हर मौसम की मार,को झेलता है
ख़ुशी ख़ुशी।
जब भी हम उसको अलविदा
कहने की बात कहते
या सोचते हैं तो
अचानक वो भर उठता है सीलन से
शायद
हमसे बिछोह का दर्द
उसे भी बहुत सालता है
रोता भी है तभी तो कभी
कभी कभी गीला सा हो
उठता है,पर कहता कुछ नहीं
शायद दुनिया की रीत
वो भी जानता है।
एक दिन तो---
फिर भी पूरे
बुलंदी फक्र और शान से
खड़ा हो कर
हम सभी को अपने अंदर
समेटे रखता है
हमारा रखके और हमारी
इज्जत बन कर।
वो मेरे घर का दरवज्जा
मेरे घर की सबसे बड़ी शख्सियत
मेरा दरवाजा।
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2.दरवाजा
नेहा शेफाली)
देखा
जाये तो
हम
दरवाज़ों की दुनिया में जीते हैं।
कुण्डी
लगा के
तालों
में जकड़ कर,
न
जाने इन दरवाज़ों के पीछे
क्या
छुपा रहे हैं
क्यों
छुपा रहे हैं।
अपने
अगल बगल
दरवाज़े
बना रहे हैं।
खुद
को रोक रहे हैं
जीने
से, बढ़ने
से, गिरने
से
लड़ने
से, प्यार
से,
नए
से, पुराने
से।
बस, इन दरवाज़ों की दरारों से, फाकों से
झांक
लेते हैं कभी
किसी
भूले कल में,
सपनों
की दुनिया में,
किसी
और के जीवन में,
चुपके
से।
तय
करना है कि
क्या
छिपे रहें इनके पीछे,
या
खुद को डरपोक बनने से रोक लें
अपना
लें जो भी है, था, या आयेगा
दरवाज़े
खोल के -
मन
के
विचारों
के
आदतों
के
अतीत
के,
हर
किस्म के दरवाज़े।
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3.दरवाजा
(डा०हेमन्त कुमार)
दरवाजा तो होता है
सिर्फ
दरवाजा।
वो
बना हो
किसी
भी चीज से
लकड़ी,बांस,कपड़ा,कच्चा लोहा
या
फिर फौलाद से भी
वो
अंततः होता है बस एक दरवाजा।
दरवाजा
होता
है छोटा भी बड़ा भी
झोपड़ी
में भी
घरों
में या फिर महलों में भी।
पर
सावधान
मत
आंकना
कभी
भी किसी भी
दरवाजे
की कीमत
या
फिर वज़न को
उसकी
लंबाई चौड़ाई
या
मोटाई से।
यह
दरवाजा होता है
बहुत
ही विचित्र
जब
तक बंद रहता है
छुपाये
रहता है अपने पीछे
बहुत
कुछ
लोगों
की बेबसी
लोगों
की गरीबी
लोगों
की बदकिस्मती
तो
बहुतों का ऐशो आराम
और
हीरे जवाहरात का
बेशुमार
खजाना भी।
कभी
भी छेड़ने या तोड़ने की
कोशिश
भी मत करना किसी
दरवाजे
के दम्भ को।
अगर
अपने पर आ जाये दरवाजा
तो
खुल कर बहुत आहिस्ता से
उड़ा
सकता है धज्जियां
तुम्हारी
बनी बनाई इज्जत का
या
कर सकता है चिन्दी चिन्दी
तुम्हारे
महलों में वर्षों से दबा छुपा कर
ढकी
तोपी हुई अनगिनत गाथाओं की।
और
अगर यही दरवाजा
खुश
हो जाये तुमसे
तो
खुल कर धीमे से
दिखा
सकता है
तुम्हें
अनेकों नए रास्ते
कई
पगडंडियां
लगा
सकता है तुम्हारे सपनों को
बहुत
सारे पंख भी
क्योंकि
दरवाजा
तो
होता
है एक दरवाजा
बस
सिर्फ
एक दरवाजा।
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6 टिप्पणियाँ:
तीनों कविताएं बहुत सुंदर हैं।
दरवाजे पर तीन कविताएं ! सबके अपने अपने भाव ....बहुत खूबसूरत...
वाह!!!
गहनतम सृजन...।
अति सुन्दर प्रस्तुति ।
एक ही दरवाजे पर अलग अलग फिर भी कहीं जुड़ते से भाव, तीनों रचनाएं बहुत सुंदर।
सुन्दर सृजन।
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