कहानी--छिपकली
मंगलवार, 10 मार्च 2020
(आज प्रतिष्ठित कहानीकार,रेडियो नाट्य लेखक,बाल साहित्यकार,
मेरे पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का 91वां जन्म दिवस है।उन्होंने
प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य,रेडियो नाटकों के साथ ही साहित्य की मुख्यधारा में बड़ों
के लिए भी 300 से ज्यादा कहानियां लिखी हैं जो अपने समय की प्रतिष्ठित पात्र-पत्रिकाओं—सरस्वती,कल्पना,ज्ञानोदय,
कहानी,नई कहानी,प्रसाद आदि में प्रकाशित हुयी थीं।पिता जी को स्मरण करते हुए आज मैं
यहाँ उनकी एक कहानी “छिपकली” पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहा हूं।)
छिपकली
लाखों व्यक्तियों के इस विशाल नगर में पारूल अकेली है--- नितान्त
अकेली।
जलती हुई असंख्य बत्तियाँ
रात का अंधेरा पी रही हैं। सड़क का शोरगुल बेतहाशा बढ़ गया है। लोग बुरी तरह दौड़ते
नजर आ रहे हैं।वे हाँफ रहे हैं।उन्हें अपने दाएँ-बाएँ कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता-- उनके
भीतर एक जबर्दस्त तनाव है, आँखों के तनाव से भी
कहीं ज्यादा भयानक। अवकाश, विराम जैसे शब्दों
की अर्थ सीमा के बाहर हैं वे।खुद उनका साया जैसे प्रेत बन कर उनका पीछा कर रहा है।
अकस्मात इन सब के ऊपर
हवा में घंटियों की एक मीठी आवाज तैर उठती है।खिड़की पर बैठी हुई पारुल के दोनों हाथ
जुड़ जाते हैं।उसकी आँखें आर्द्र हो आती हैं। सारी तनहाई, सारा दर्द क्षण भर
के लिए दब जाता है।अमृत पगे इन दो चार पलों को पाने के लिए रिक्तता के मरुस्थल में
पारुल किस तरह दिन रात भटकती है इसे उसके सिवा दूसरा कोई समझने वाला नहीं है।
पारूल!
जब वह बिस्तर पर होती
है जैसे कानों में बंसी बज उठती है।वह चौंक कर उठ बैठती है। मगर‘स्विच आन’ करने पर उसे दिखायी
पड़ती है बल्ब के पास दीवाल से चिपकी हुई एक घिनौनी छिपकली।रोज ही वह इसे अपने कमरे
से भगाती है मगर न जाने किस वक्त वह रेंगती हुई फिर अपनी जगह आ चिपकती है।उसे देखते
ही उसका जी मचलाने लगता है।मगर अंधेरा करते ही उसे लगता है वह उसके मुँह पर आ गिरेगी।वह
खाने की मेज पर होती तो लगता उस भोजन के बीच कहीं न कहीं वह छिपकली भी जरूर है।बस कौर
उसके गले में चिपकने लगता।बड़ी मुश्किल से दो-चार कौर पानी के सहारे निगल कर वह थाली
छोड़ देती।उसे किसी भी गीली या मुलायम चीज में छिपकली का ही आभास मिलता।
कुछ यादें हैं जो इस
छिपकली की तरह आज उसके जीवन से चिपकी हुई हैं। उन्हें वह दूर नहीं कर पा रही
है।दूर करने के प्रयास में उसे वे अपने से और ज्यादा चिपटती जाती अनुभव होती हैं।
कोणार्क! पारुल को
याद है डाक्यूमेन्ट्री फिल्म की वह शूटिंग। दायीं कुहनी के बल रथचक्र के साथ वह कुछ
तिरछी खड़ी थी।चिरंजीत बार-बार मूवी कैमरे का एंगिल बदलता हुआ फोकस ठीक कर रहा था।जो
पोज वह चाहता था वह बन नहीं पा रहा था।चिंरजीत जितना ही उसे डायरेक्शन देता उसे बरबस
हंसी आती।चिरंजीत इस वक्त उस हंसी में सहयोग करने के मूड में बिलकुल न था।वह अपनी यूनिट
के साथ चार दिनों से भयंकर रूप से व्यस्त था।कोणार्क के सारे शाट्स हो चुके हैं।आज
आखिरी दिन था।सारा सामान पैक हो चुका था।यूनिट के अधिकांश साथी शूटिंग वैन के पास जा
चुके थे।बस, अब है आखिरी शाट था।
‘पारुल, तुमने आर्ट गैलरी में कश्यप की पेंटिंग देखी है?-- बनवासी लक्ष्मण की
प्रतीक्षा में खड़ी उर्मिला।वही पोज रखो।’ चिंरजीत ने उसका पोज
एक बार फिर ठीक करते हुए कहा।
‘मगर!’ पारुल को फिर हंसी छूट आयी।
चिरंजीत के चेहरे पर
हल्का क्रोध उभर आया।उसने कुछ खीझे कंठ से कहा, ‘कुछ कहो भी।’
पारुल ने जबर्दस्ती
अपनी हंसी दबा कर कहा, ‘मेरे साथ तो कुछ वैसी
बात है नहीं।मेरे लक्ष्मण को तो बनवास मिला नहीं हैं, फिर.......।
अब स्वयं चिंरजीत
के लिए अपनी हंसी रोकना मुश्किल हो गया।उसने बनावटी गम्भीरता से कहा, ‘तुम्हारा लक्ष्मण चन्द्रभागा में स्नान करने गया हुआ है।वहाँ
जल में बड़े भयानक घडि़याल हैं। तुम चिन्ता के साथ उसकी प्रतीक्षा कर रही हो।बस, इतनी सी बात की परेशानी है तुम्हारी।’
और एक बार फिर उसने
अपने डायरेक्शन को दुहराया्।इस बार पारुल ने अपने को संभाल लिया। चिरंजीत को इस ‘ओ.के. शाट’ पर मामूली खुशी नहीं
हुई। पारुल ने उसकी फिल्म को यथार्थ का स्पर्श दिया है।कोणार्क की सारी शुचिता मूर्त
हो उठी है पारुल में। कोणार्क आज भी प्रतीक्षा कर रहा है उस यात्री की जो उसके शिल्प
का गणक मात्र न होगा, जो केवल उसे इतिहास
के चश्में से नहीं देखेगा बल्कि उन शिलाखंडों की प्यासी आत्मा को तृप्त करेगा, जो आकाश की ओर उड़ने के लिए तैयार उन अश्वों को क्षण भर के लिए
ममत्व की डोर में बांध लेगा। कोणार्क पारुल के परिवेश में प्रतीक्षा कर रहा है उस यात्री
की।चिरंजीत की यह अपनी कल्पना थी।इस डाक्यूमेन्ट्री में कोणार्क को उसने सर्वथा एक
नये दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया था।
‘बहू जी!’ अचानक दरवाजे पर ग्वाले की आवाज हुई।सिलसिला टूट गया।
अंगीठी पर दूध चढ़ाते समय पारुल के सामने फिर आ खड़ा होता है चिरंजीत। मगर वह
चिरंजीत नहीं है। एक बदली हुई तस्वीर, एक बदला हुआ युग है
चिरंजीत।
पारुल ने कुंडी खटखटायी
तो स्वयं चिरंजीत ने ही आकर दरवाजे खोले।उसके मुंह से शराब की तेज बू आ रही थी।वह अपने
नंगे बदन पर एक मैली और फटी हुई तहमद लपेटे हुए था।कमरे में सारी चीजें बेढंगे तरीके
से फैली पड़ी थीं।खिड़की के पास एक बड़ी टेबुल पर कुछ पूरी, कुछ अधूरी पेण्टिंग्स के ढेर लगे हुए थे।पास ही एक टूटी-सी तिपायी
थी जिस पर शराब की बोतल और प्याला रखा हुआ था।
पारुल को जबर्दस्त
धक्का लगा।किन्तु उसके कुछ बोलने से पहले ही चिरंजीत भोंडेपन से हो-हो करके हँस पड़ा।फिर
उसके लिए चटाई बिछाता हुआ बोला,‘पारुल, तुम्हारा चिरंजीत अब कैमरामैन नहीं,आर्टिस्ट है।अब मैं
कैमरे से दूर हूं। मेरा पेण्टिंग का शौक पुराना है, तुम जानती हो।देखो, एक हफ्ते के भीतर ये पेण्टिंग तैयार हुई है।और वह पारुल का हाथ
पकड़ कर उसे बड़ी मेज के पास ले गया।
चिरंजीत एक-एक करके
अपनी पेण्टिंग दिखाता हुआ कहने लगा, ‘इनमें तुम्हें रियल
टच मिलेगा, जिन्दगी जो आज का इंसान जी रहा है, दिखायी देगी।इनमें जो कुछ है वीभत्स है, घिनौना है मगर मुझे प्रिय है। क्योंकि यह कला हमारे आज के सच्चे
स्वरूप की प्रतिबिम्ब है।तुम थोड़ी देर के लिए इसे विकृत कह कर इसकी उपेक्षा कर सकती
हो मगर यथार्थ के सत्य को भुलाया नहीं जा सकता।मैं बनावट की तस्वीरें बनाकर आने वाली
पीढ़ी को धोखा नहीं देना चाहता जैसा कि आज तक सब देते आये हैं।मेरी भाषा बिल्कुल सीधी
है। मेरे रंग एकदम साफ हैं। मुझे अपनी ईमानदारी पर गर्व हैं।’
उसने पारुल की ओर देखा
लेकिन वह तो एकदम मौन थी।क्या बोले। इस कला को समझना उसके वश से बाहर था, वह तो केवल चिरंजीत को ही समझती आयी है। सब कुछ अनगढ़,बेतरतीब
और अनबूझ लग रहा हे उसे। क्या यही है वह चिरंजीत जिसने उसे सूर्यरथ के पहियों को अपने
परिवेष्टन में ले कर पत्थरों को भी ममत्व के सूत्र में बाँधने की कल्पना की थी। यही
है वह चिरंजीत जिसने यूनिट के शराबी सदस्यों के साथ काम करने से इंकार कर दिया था।
तभी फिर बोला चिरंजीत,‘वहाँ की सारी मशीनरी बुर्जुआ थी।प्रोड्यूसर--टेक्नीशियन और आर्टिस्ट
का शोषण करता था।वहां काम करने का मतलब था अपना अस्तित्व खत्म करना। ‘कोणार्क’ डाक्यूमेन्ट्री का मुझे क्या पुरस्कार मिला? महीने के वेतन के साथ दस रूपये भी बढ़ा कर हाथ पर रख दिये गये
होते तो मुझे संतोष होता। मैं एक सड़ी-गली दुनिया से ऊब चुका था, पारूल।’
पारूल ने पूछना चाहा
!-क्या तुम सचमुच एक सड़ी-गली दुनिया से बाहर आ गये ? क्या यहाँ बदबू नहीं
है? क्या समाज की उस दुर्गन्धयुक्त विधा का अंत करने का यही तरीका
है? मगर इनमें से वह एक भी चीज न पूछ सकी। क्योंकि चिरंजीत एक मात्र
व्यक्ति था जिसे वह अपने हृदय के समस्त कोरों से प्यार करती थी।
सहसा कमरे में
जले हुए दूध की गंध भर गयी। पारुल ने जल्दी से दूध की पतीली अँगीठी से नीचे उतार
दी।पतीली की तली में पड़ा हुआ दूध सी-सी करके जल रहा था और पारुल अब फिर सोचने लगी
थी किसी थी, किसी भी परिणाम पर विचार किये बिना क्यों
चली आयी वह वहाँ तक।
‘पारुल,तुम मेरा साथ दो तो मैं फिर आगे बढ़ सकता हूं। मैं आगे बढ़ना
चाहता हूं।मगर यहाँ दम घुट रहा है।’ चिरंजीत ने उससे कहा
था।
पारुल ने बड़ा साहस
बटोर कर उत्तर दिया, ‘तुम्हें मेरे साथ की
क्या जरूरत? फिर तुम इतना आगे बढ़ चुके हो कि अब और आगे
बढ़ने से कोई लाभ नहीं।तुम्हारी पेण्टिंग की बाजार में कीमत है। अस्पष्टता की एक नयी
शैली को जन्म देने की ख्याति भी तुम पा चुके हो। अब और क्या चाहिए?’
किन्तु उसे चिरंजीत
का साथ देना पड़ा। उसका साथ देने लिए उसने अपने परिवार का साथ छोड़ दिया और कलकत्ता
चली आयी।
चिरंजीत सचमुच कलकत्ते
में जम गया।ख्याति उसके पाँव चूमने लगी।उसकी पेण्टिंग की कई नुमाइशें आयोजित हुईं।
वह यथार्थवादी कलाकारों का सिरमौर बन गया।
पारुल ने अनुभव किया--
चिरंजीत तेजी से आगे बढ़ रहा है। कभी-कभी उसे संदेह होता-- वह स्वयं पीछे छूट रही है।
कहीं एक दिन यह फासला बेहद लम्बा न हो जाय। इतना लम्बा कि फिर वह उसे एकदम खो दे।मगर
अगले ही क्षण उसे अपने भ्रम पर हँसी छूट पड़ती। चिरंजीत उसके प्रति अब भी बिल्कुल ‘सिन्सियर’ था। लक्ष्मण की प्रतीक्षा
में खड़ी उर्मिला उसका माडल भले न रह गयी हो मगर पारुल में आज भी उसे आत्मीयता अनुभव
होती है।इसी से जब रात वह कभी-कभी बिस्तर पर चौंक कर उठ बैठता और परेशान आवाज में पुकारता---पारुल!
तो उसके मन प्राण झनझना उठते।एक नारी का समस्त ममत्व उसने चिरंजीत को अर्पित कर दिया!
एक दिन चिरंजीत अपने
एक दोस्त को ले कर आया। पारुल यह मेरा आर्टिस्ट फ्रेंड है नरेन! यह कलम का आर्टिस्ट
है। समाज का यथार्थ चित्रण करने में इसे कमाल हासिल है। इसके दर्जनों उपन्यास और कहानी
संग्रह निकल चुके हैं।मगर घमंड इसे छू भी नही गया है।’ चिरंजीत ने दोस्त का
परिचय कराया तो पारुल उसके प्रति आदर से नत हो उठी।
नरेन के उलझे हुए लम्बे-लम्बे
बाल चेहरे पर बिखरे हुए थे। उन्हें वह एक खास ढंग से सिर झटक कर पीछे करता मगर वे फिर
आगे बिखर आते।उसकी आँखों में लाल डोरे पड़े हुए थे और होंठों पर एक अजीब बेफिक्र सी
मुस्कान थी।उसने पारुल को एक खास अन्दाज से देखा। पारुल को वह दृष्टि पता नहीं क्यों
अच्छी न लगी। वह तुरन्त उन लोगों के नाश्ते का इंतजाम करने भीतर चली गयी।
जब वह नाश्ते की तश्तरी
लिए कमरे में लौटी तो देखा, दोनों शराब की बोतल
पर जमे हुए थे और बेहूदा ढंग से चीख चिल्लाकर हँसी मजाक कर रहे थे। पारुल चुपचाप नाश्ता
तिपायी पर रख कर वापस जाने लगी तो नरेन जोर से चिल्लाया, ‘भाभी, एक घूँट तुम भी लो।कसम से मजा आ जायेगा।’ और वह बड़े फूहड़पने
से हंस पड़ा।
पारुल एक विचित्र स्थिति
में पड़ गयी। रुकना वह बिल्कुल नहीं चाहती थी मगर चले जाना शिष्टता के विरूद्व लग रहा
था।तब चिरंजीत ही जैसे उसकी दुविधा को तोड़ता हुआ बोला,‘ पारुल नहीं लेती मगर
इससे क्या, आओ थोड़ी देर बैठो न !’
‘मुझे भीतर भी तो बहुत से काम हैं’। वापस घूमें बिना पारुल जैंसे दया की भीख माँगती हुई बोली।
चिरंजीत कोमल स्वर
में बोला, ‘भीतर के काम छोड़ो। खाना आज होटल में खा लेंगे।चलो
तैयार हो जाओ।एक पिक्चर का प्रोग्राम है।
पारुल उसकी प्रसन्नता का ख्याल कर तैयार हो गयी। लेकिन
बाहर आते ही चिरंजीत को एक भूला हुआ काम याद आ गया। बोला,
‘पारुल, मैं न जा सकूँगा।तुम दोनों हो आओ।’
‘तब मैं भी नहीं जाऊँगी।’कहते-कहते क्षण भर के लिए पारुल की दृष्टि नरेन पर उठ गयी।वह
काँप उठी क्योंकि वहाँ एक भूखे भेडि़ए की प्यास लपलपा रही थी।
चिरंजीत जिद पकड़ गया।
अब पारुल को लगा,यह पूर्व नियोजित योजना थी। अनचाहे ही उसके
मन में चिरंजीत के प्रति घृणा भर उठी। इतना गिर सकता है वह--उसने स्वप्न में भी न सोचा
था।
अगले क्षण जो कुछ हो
गया वह एकदम अप्रत्याशित था। चिरंजीत ने जाती हुई एक खाली टैक्सी रोक कर पारुल को जबर्दस्ती
नरेन के साथ बैठाना चाहा। उसने पारुल का हाथ पकड़ लिया। पारुल अब अपने को न रोक सकी।
उसने झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया। चिरंजीत फिर आगे बढ़ा कि पारुल के हाथ की पांचों
उँगलियां उसके गाल पर उपट आयीं। वह लड़खड़ा कर बैठ गया। पारुल एक साँस में ही दौड़ती
हुई घर में घुसी और भीतर से दरवाजा बंद कर फ़र्श पर गिर पड़ी।
पारुल का मन इतना विरक्त
हो उठा कि वह उसी क्षण कलकत्ता छोड़ने के लिए तैयार हो गयी। मगर ऐसा वह कर कहां पायी?
उल्टे रात बारह बजे तक भी जब चिरंजीत न लौटा तो वह उसे ढूँढने निकल पड़ी। उसे अधिक दूर
नहीं जाना पड़ा। वह निकट ही एक नाली में औंधे मुंह पड़ा हुआ था।बड़ी मुश्किल से वह उसे
खींच ठेल कर घर तक ले आयी। उसके चेहरे और कपड़ों पर कै, खून और कीचड़ के मिले
हुए धब्बे पड़े थे--ठीक उसकी अपनी पेण्टिंग की तरह।
और अब--अब तो वह सारी
बातों की अभ्यस्त हो चुकी है। चिरंजीत दो-दो, तीन-तीन दिन तक गायब
रहता है।दो-एक घड़ी के लिए आता भी है तो हल्ला-गुल्ला के साथ। पारुल की सारी छटपटाहट
उसके भीतर ही घुमड़ कर रह जाती है।उस दिन चिरंजीत का साधारण भाव से दिया गया
डायरेक्शन उसके जीवन में कटु सत्य बन जायेगा, उसने कल्पना भी न की
थी। सचमुच लक्ष्मण के पांव किसी भयानक घडि़याल के जबड़े में थे और लाखों व्यक्तियों
के उस विशाल नगर में पारुल अकेली थी------नितांत अकेली।
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लेखक-प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11
मार्च, 1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म। 31 जुलाई
2016 को लखनऊ में आकस्मि निधन।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद
बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न
पदों पर सरकारी नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना, प्रसाद,ज्ञानोदय, साप्ताहिक
हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी, नई कहानी, विशाल भारत,आदि में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों, रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य
का प्रकाशन।
आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित
नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों, नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें
प्रकाशित।2012में नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया
से बाल उपन्यास“मौत के चंगुल में” तथा 2018 में बाल नाटकों का संग्रह एक तमाशा ऐसा
भी” प्रकाशित। इसके पूर्व कई प्रतिष्ठित
प्रकशन संस्थानों से प्रकाशित “वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस
देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर
बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर
का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों
का तारा”आदि
बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के शिक्षा प्रसार विभाग में
नौकरी के दौरान ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त
चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस-पास शुरू हुआ लेखन का यह क्रम जीवन पर्यंत जारी
रहा।
6 टिप्पणियाँ:
सुन्दर कहानी। पिता जी को सादर नमन
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना गुरूवार १२ मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाआआह
अद्भुत कहानी के लेखक उस अद्भुत व्यक्तित्व को सादर श्रद्धांजलि।
अद्भुत..
सादर...
वाह!!बेहतरीन !!सादर नमन🙏
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