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सारी रात

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

रात रात भर
खदबदाते हैं विचार
अदहन की तरह
मेरा दिमाग बन जाता है
चूल्हे पर चढ़ी पतीली।

कितने कितने विचार
कैसे कैसे विचार
ढेर सारे विचार
अच्छे बुरे सुखद दुखद।

आसमान में उड़ती चिड़िया
बियाबान जंगलों की हरियाली
पेड़ों के बीच भागते हिरनों का झुण्ड
फ़ूल पत्तियां झरने
तपते रेगिस्तान में ऊंटों का काफ़िला
जंगल गांव कस्बे शहर।

तपती सड़कों पर तैरती तेज रफ़्तार
कंक्रीट के जंगल
झोपड़ पट्टियों के बीच
पतंग की डोर लूटते
अधनंगे बच्चे
स्लमडाग मिलेनियर
स्माइल पिंकी
शाहरूख अमिताभ बिपाशा।

अदहन बलकता है
भीतर की भाप जोर लगाती है
ऊपर की तश्तरी गिराने को
ढब ढब की आवाज।

मेरी सांस बन जाती है
लोहार की भट्ठी
दम घुटता है
सीने पर जम जाता है
शिलाखण्ड कोई टूटा हुआ
इतिहास के पन्नों से निकलकर।

खदबदाते विचार
आकार लेते हैं
दुःस्वप्न का

लम्बे लम्बे अंतहीन मैदान
युद्ध करती सेनाएं
योद्धाओं का कोलाहल
हाथियों की चिग्घाड़
घोड़ों की टाप
तलवारों की खनक
छपाक छपाक
कटकर गिरते नरमुंड।

अचानक सब कुछ थम जाता है
एक भयानक धमाके के साथ
आंखों के सामने रह जाता है
सिर्फ़ तेज धार बहता खून
जिस पर कोई नाम नहीं लिखा
हिंदू मुस्लिम सिख इसाई
गोरा काला ताम्रवर्णी
न ही कोई निशान
मंदिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारे का
वहां सिर्फ़ दिखता है
बहता हुआ खून
सुर्ख लाल
तेज धार बहता खून।
000
हेमन्त कुमार




12 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari 10 अप्रैल 2010 को 6:21 pm बजे  

ओह! क्या कहा जाये!

सशक्त अभिव्यक्ति!

Gyan Dutt Pandey 10 अप्रैल 2010 को 6:31 pm बजे  

बहुत सुन्दर।

(पर अगर विचार यूं खदबदाते हैं तो हमारी तरह नींद की गोली लिया करें!)

M VERMA 10 अप्रैल 2010 को 6:38 pm बजे  

वहां सिर्फ़ दिखता है
बहता हुआ खून
सुर्ख लाल
तेज धार बहता खून।
आपकी यह रचना पढकर कविता की सारी प्रक्रिया अंतस में जारी हो गयी.
रचना की सार्थकता भी तो तभी है.

M VERMA 10 अप्रैल 2010 को 6:39 pm बजे  

@ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey
नीद की गोलियाँ भी तो बेअसर हो जाती हैं ऐसे में

रश्मि प्रभा... 10 अप्रैल 2010 को 8:26 pm बजे  

अचानक सब कुछ थम जाता है
एक भयानक धमाके के साथ
आंखों के सामने रह जाता है
सिर्फ़ तेज धार बहता खून
जिस पर कोई नाम नहीं लिखा
हिंदू मुस्लिम सिख इसाई
गोरा काला ताम्रवर्णी
न ही कोई निशान
मंदिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारे का
वहां सिर्फ़ दिखता है
बहता हुआ खून
सुर्ख लाल
तेज धार बहता खून।
aur uske baad zindagi ke sare rang stabdh rah jate hain

प्रवीण पाण्डेय 11 अप्रैल 2010 को 7:52 am बजे  

सीने पर जम जाता है
शिलाखण्ड कोई टूटा हुआ
इतिहास के पन्नों से निकलकर।

दमदार ।

सु-मन (Suman Kapoor) 11 अप्रैल 2010 को 10:28 am बजे  

विचारों चहलकदमी जब होती है तो कुछ नही देखती बस चलती जाती है............... बेहद अच्छी रचना..........

दिगम्बर नासवा 12 अप्रैल 2010 को 7:15 am बजे  

अचानक सब कुछ थम जाता है
एक भयानक धमाके के साथ
आंखों के सामने रह जाता है
सिर्फ़ तेज धार बहता खून
जिस पर कोई नाम नहीं लिखा
हिंदू मुस्लिम सिख इसाई
गोरा काला ताम्रवर्णी
न ही कोई निशान

मार्मिक ... अत्यंत संवेदनशील लिखा है ... सच है खून का रंग एक जैसा होता है ... बस लाल ...

Alpana Verma 13 अप्रैल 2010 को 5:22 am बजे  

--पेंसिल से बनाया गया यह रेखा चित्र मनमुग्ध कर गया.
---जीवन संघर्ष का अद्भुत शब्द चित्रण मिला आप की कविता में.

Renu goel 23 अप्रैल 2010 को 6:18 am बजे  

जब सब कुछ थम जाता है तब आकार लेती है कविता जो कई हिस्सों में बटकर कह देती है मन की बात ,... और ये जो लाल रंग का रक्त बह रहा है इस पर किसी का नाम नहीं लिखा है ये खुद अपना पता है , ये खुद अपना अलग धर्म है , जाति है .... ये किसी का नहीं है क्यूंकि यहाँ सब की शिराओं में रक्त नहीं मजहब बहता है .....

Suman 4 मई 2010 को 3:14 am बजे  

bahut khub kikha hai hemant ji..........

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