हमारे विकास के तीन दशकों का जीवंत दस्तावेज----“मुन्नी मोबाइल”
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
लेखक:प्रदीप सौरभ
प्रकाशक:वाणी प्रकाशन
4695,21-ए,दरियागंज,
नई दिल्ली-110002
मुन्नी मोबाइल नाम किसी फ़िल्म या टी0वी0 सीरियल का नहीं बल्कि प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक प्रदीप सौरभ के हाल में ही प्रकाशित उपन्यास का है। यह उपन्यास मैनें पिछले पन्द्रह दिनों में तीन बार पढ़ा है। और हर बार इसमें मुझे प्रदीप सौरभ की कलम का एक नया रूप दिखाई पड़ा है।
दरअस्ल यह उपन्यास मात्र एक उपन्यास न होकर हमारे देश में पिछले तीन दशकों में हुये भौतिकता के अन्धाधुन्ध विकास का प्रामाणिक दस्तावेज कहा जा सकता है। मुन्नी नाम की काम वाली और उसका नया मोबाइल---ये तो माध्यम मात्र हैं।
उपन्यास के मुख्य पात्र तो पत्रकार आनन्द भारती और मुन्नी मोबाइल हैं। उपन्यास का पूरा ताना बाना पत्रकार आनन्द भारती और उनके घर में काम करने वाली बिन्दू यादव उर्फ़ मुन्नी मोबाइल के इर्द गिर्द बुना गया है। आनन्द भारती एक तेज तर्रार और गंभीर पत्रकार हैं। जो मन में ठान लिया उसे पूरा करना उनके जीवन का मकसद बन जाता है।
मुन्नी मोबाइल है तो घरों में काम करने वाली---बिहार से आकर दिल्ली के साहिबाबाद में बसी हुयी एक साधारण नौकरानी लेकिन उसके चरित्र का भी एक विशिष्ट पहलू है। वह है उसके अंदर की दबंगता और महत्वाकांक्षा। एक आम आदमी की ही तरह उसकी भी इच्छा थी कि उसकी बेटियां पढ़ लिख कर साहब बन जायं। उन्हें लोगों के घरों में बर्तन चौका न करना पड़े। अपनी इसी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिये मुन्नी मोबाइल ने जो सफ़र पत्रकार आनन्द भारती के घर से शुरू किया वो काम वालियों की यूनियन,साहिबाबद के चौधरियों से पंगा,डाक्टरनी के साथ नर्सिंग के अवैध धन्धों,गाजियाबाद और पहाड़गंज रूट की बसों के फ़र्राटा भरते पहियों के साथ चलता हुआ अन्त में कालगर्ल्स के रैकेट और मुन्नी मोबाइल के मर्डर के साथ पूरा होता है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि जब मुन्नी मोबाइल बस चलाने वाले ठेकेदारों के अड्डे पर जाकर सीधे उनसे कहती है कि ‘मेरा नाम मुन्नी मोबाइल है और बिहार की रहने वाली हूं।मैं किसी से डरती नहीं हूं। आप अपना काम करो और मुझे अपनी बस चलाने दो।‘ तो यह संवाद सिर्फ़ मुन्नी का नहीं रह जाता ।यहां मुन्नी के माध्यम से प्रदीप सौरभ ने बस ठेकेदारों को उस तबके से चेतावनी दिलवायी है जो हमेशा से दबाया जाता रहा है। जो भारत के दूर दराज के गांवों से भागकर महानगरों में सिर्फ़ इस लिये आता है कि ---इन महानगरों में शायद उसका भाग्य उसे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करवा देगा। लेकिन यहां भी पहले से काबिज रसूखदार ऐसे लोगों को पनपने का मौका नहीं देते।
मुन्नी मोबाइल के माध्यम से जहां एक वर्ग विशेष कि गाथा लिखी गयी है वहीं लेखक ने हमारे देश में पिछले तीन चार दशकों में हुये परिवर्तनों ,बदलावों ,भौतिकतावाद की चपेट में आते जा रहे सम्पूर्ण देश,मोबाइल क्रान्ति,कालसेण्टरों के भयावह सच के साथ ही राजनीति में जाति,धर्म,और नारों के साथ जनता की भावनाओं के साथ खेले जा रहे भयावह खेल के सच की एक एक परतों को भी बहुत सच्चाई और निष्पक्षता के साथ उधेड़ा है।
उपन्यास की शुरुआत से ही पता चल जाता है कि आनन्द भारती किस मिट्टी के बने पत्रकार हैं। वह एक तेज तर्रार और गंभीर पत्रकार हैं। जो मन में ठान लिया उसे पूरा करना उनके जीवन का मकसद बन जाता है। कभी किसी किस्म का समझौता करके जीवन बिताना उन्हें पसन्द नहीं। और उनकी इसी दृढ़ता का परिणाम उन्हें गुजरात में भुगतना पड़ा। ----“मोदी को जीत का नशा था। हिन्दू ब्रिगेड भी नशे में चूर थी। चुन चुन कर विरोधियों को निशाना बनाया जा रहा था। मीडिया पहले निशाने पर था। आनंद भारती पर भी हमला हुआ। उन्हें कार से उतार कर पानी से नहलाया गया। पानी के प्लास्टिक पाउचों से मारा गया।फ़िर छोड़ दिया गया। एक बार फ़िर इस हमले में उन्हें ‘भारत माता की जय’ बोलने के लिये मजबूर किया गया।”
और यह परिणाम भुगतना पड़ता है आनद भारती को –दंगों की आग में जल रहे गुजरात की आंखों देखी,नंगी और भयावह सच्चाई को अखबार में लिख कर आम जनता को पढ़वाने की सजा के रूप में। नरेन्द्र मोदी और उनकी हिन्दू ब्रिगेड को जनता के सामने बिल्कुल नंगा कर देने के एवज में। मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं कि जीवन की इन सच्चाइयों को उपन्यास में लिखना प्रदीप सौरभ के ही बूते की बात है।
उपन्यास में हमें आनन्द भारती के तेज तर्रार,खुर्रैट, गम्भीर रूप के साथ ही एक बेहद संवेद्नशील और भावुक हृदय भी देखने को मिलता है जो सिर्फ़ मानसी के लिये सोचता है। इस दिल में हर वक्त हर समय आनन्द भारती के साथ मानसी बसती है। मानसी एक तरह से आनंद भारती के जीवन का प्रेरणा स्रोत भी है। जो हर उस मोड़ पर आनंद भारती के साथ है जब वो किसी अनिर्णय की स्थिति में होते हैं।
उपन्यास की मुख्य चरित्र मुन्नी की कहानी के साथ ही कई अन्य प्रसंग भी साथ साथ चलते हैं जो उपन्यास को और अधिक रोचक,गतिशील और पठनीय बनाते हैं। आनंद भारती की लंदन यात्रा,पत्नी शिवानी से अलगाव,मानसी से इमोशनल अटैचमेण्ट,सुधा पाण्डेय के साथ कोलकाता यात्रा और आनंद भारती का इलाहाबाद से लगाव। ये प्रसंग उपन्यास की कथावस्तु से सीधे जुड़े न होकर भी उसे आगे बढ़ाने के साथ ही उपन्यास की मूल कथा को समृद्ध करते हैं।
मसलन आनंद भारती की लंदन यात्रा एक सम्पूर्ण लेखा जोखा है प्रवासी भारतीयों के मन का,उनके हालातों का और उनके अन्दर वतन से दूर रहने के दर्द का। अपनी जमीन से दूर रहने का यही दर्द,यही संवेदना हमें बार बार आनंद भारती की इलाहाबाद यात्राओं और प्रसंगों में दिखाई पड़ती है। इलाहाबाद के प्रति यह दर्द और संवेदना आनंद भारती का नहीं बल्कि प्रदीप सौरभ के साथ हर उस सर्जक मन का दर्द है जो रोजी रोटी की तलाश में इलाहाबाद से दूर पहुंच गया है। मैं खुद पिछले पच्चीस सालों से इलाहाबाद से दूर हूं और प्रदीप सौरभ की इस पीड़ा को समझ सकता हूं।
कथानक के साथ ही अगर हम भाषा और शैली की बात करें तो मुन्नी मोबाइल अपने में एकदम अलग तरह का उपन्यास है।यह लीक से हट कर लिखा गया एक नया एक्स्पेरीमेण्ट कहा जा सकता है। इसे पढ़ते समय कभी आपको लगेगा कि हम किसी लेखक की डायरी का अंश पढ़ रहे हैं,कहीं लगेगा कि लेखक रिपोर्टिंग कर रहा है,भावुकता भरे क्षणों में आप इसे कविता के रूप में भी पायेंगे। और उपन्यास की शैली की यह विविधता स्वाभाविक भी है। क्योंकि प्रदीप सौरभ सबसे पहले कवि,फ़ोटोग्रैफ़र और पत्रकार हैं फ़िर उपन्यासकार। और उनका यह कवि,पत्रकार ,फ़ोटोग्रैफ़र और चित्रकार का रूप इस उपन्यास में हमें हर जगह परिलक्षित होता है।
कुल मिलाकर मैं इतना दावे के साथ कहूंगा कि आपको भी अगर भारत के पिछले तीन दशकों के विकास के साथ ही भारतवर्ष में भगवा राजनीति और उसकी आड़ में जनता की भावनाओं,संवेदनाओं और अस्तित्व के साथ चल रहे खिलवाड़ को अगर नंगी सच्चाई के रूप में देखना है तो इस उपन्यास को एक बार जरूर पढ़ने की कोशिश करियेगा----आपको निराशा नहीं होगी।
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प्रदीप सौरभ:
पेशे से पत्रकार।हिन्दुस्तान दैनिक के दिल्ली संस्करण में सहायक संपादक।हिन्दी के चर्चित कवि,पत्रकार और लेखक।कानपुर में जन्म। परन्तु साहित्यिक यात्रा की शुरुआत इलाहाबद से। कलम के साथ ही कैमरे की नजर से भी देश दुनिया को अक्सर देखते हैं।पिछले तीस सालों में कलम और कैमरे की यही जुगलबन्दी उन्हें खास बनाती है।गुजरात दंगों की बेबाक रिपोर्टिंग के लिये पुरस्कृत। लेखन के साथ ही कई धारावाहिकों के मीडिया सलाहकार। फ़िलहाल हिन्दुस्तान दिल्ली के संपादकीय विभाग में कार्यरत।
हेमन्त कुमार द्वारा प्रकाशित।
12 टिप्पणियाँ:
'मुन्नी मोबाइल' की कई जगह समीक्षा पढ़ चुकी हूँ ....पर फिर भी अच्छा लगा ,प्रदीप जी को हार्दिक बधाई ।
यह उपन्यास सार पढ़वाने के लिए धन्यवाद .
आपकी समीक्षा पढ़ कर उपन्यास के बारे में उत्सुकता हो गई है
बधाई पुस्तक के लिये । पढ़ेंगे अवश्य ।
बढिया पुस्तक समीक्षा.
आपकी समीक्षा से ला रहा है पढ़ना पढ़ेगा ये उपन्यास ... उत्सुकता जगा दी है आपने ...
आपने जिज्ञासा जगा दी है पुस्तक पढ़ने की!
hemant sir,aapne itne ache dhang se is upanyas ko prastut kiya hai ..ab to mera bhi man kar gaya hai ise padne ka..
मुन्नी मोबाईल..कित्ता मजेदार नाम है.
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'पाखी की दुनिया में' पुरानी पुस्तकें रद्दी में नहीं बेचें, उनकी जरुरत है किसी को !
Bahut achhee sameeksha kee hai..upnyas zaroor le aaungi...utsukta jaga dee hai aapne..
आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं...
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'पाखी की दुनिया' में 'सपने में आई परी' !!
आपकी इस सुन्दर पोस्ट की चर्चा मैंने यहाँ भी की है!
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http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/06/1.html
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