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रामकली

रविवार, 20 सितंबर 2009

बहुत सालों के बाद
आज इस चेहरे को देखा है
दिमाग पर काफ़ी दबाव देने के बाद याद आया
इसका नाम रामकली है।

रामकली उन दिनों
लहलहाता खेत थी
एक भरा पूरा गुलदस्ता
और जिन्दगी को जीने की
एक अदम्य लालसा थी उसकी आंखों में।

खनखनाती हंसी बिखेरती
महफ़िलों की रौनक रामकली
आज बाजार में सूखी ईख बनी खड़ी है
चेहरे पर गुलाबीपन झड़ गया है और
सुरमई दैत्य फ़ैल गया है पूरे बदन पर
दांतों पर जमी मोटी मैल की परत
रामकली की राम कहानी कह रही है।

उसके बालों की चमक न जाने कहां दुबक गई है
और गालों के गहरे गड्ढे
आंखों के नीचे काली झाइयां
लगता यूं है
जैसे रामकली अपनी तीस साल की
जिन्दगी में ही
कई जीवन जी चुकी है।

और अब वो केवल
अपने छः बच्चों के वास्ते
राशन पानी बटोरने के लिये ही
घिसट रही है।

आपने भी कहीं न कहीं जरूर देखा होगा
रामकली को बाजार दूकान घर
या अपने ही घर में
दूर से ही आसान है उसकी पहचान।

उस का दुर्भाग्य यह है
कि न वो अब पहली जिन्दगी में लौट सकती है
और न ही अपने बच्चों को
दे सकती है
सभ्य दुनिया का परिवेश।
000000000





कवि—प्रताप सहगल
आदरणीय प्रताप सहगल जी हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित कवि नाटककार एवम उपन्यासकार हैं।प्रताप सहगल जी के अब तक कई नाटक ,कविता संग्रह एवम उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं।आप इस समय दिल्ली विश्व्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत हैं। यह कविता प्रताप जी के चर्चित काव्य संग्रह “सवाल अब भी मौजूद है” से ली गयी है।
हेमंत कुमार द्वारा प्रकाशित

8 टिप्पणियाँ:

M VERMA 21 सितंबर 2009 को 12:47 am बजे  

"रामकली उन दिनों
लहलहाता खेत थी"
==========
और अब वो केवल
अपने छः बच्चों के वास्ते
राशन पानी बटोरने के लिये ही
घिसट रही है।
क्या खूब -- बहुत खूब
कितना मार्मिक है रामकली का वृत्तांत
जी हाँ ! रामकली को मैने भी तो देखा है.

ओम आर्य 21 सितंबर 2009 को 4:25 am बजे  

जी हाँ ......मैने भी और कई जगह देखा है .....मन के कैनवास पर इस रचना के मार्मिक भाव जैसा एहसास कई बार उगे भी है पर इस रचना को पढ्कर एक वह रामकली भी याद आ गयी जो हमारे गाँव के खेतो मे देखी थी......जब वह एक हरी भरी खेत भी थी.........आंखे नम हो गयी ........आपको बहुत बहुत शुक्रिया जो ऐसी रचना पढवायी.........मार्मिक रचना!

Meenu Khare 21 सितंबर 2009 को 6:42 am बजे  

मार्मिक है रामकली का वृत्तांत !बहुत बहुत शुक्रिया

Apanatva 21 सितंबर 2009 को 10:43 am बजे  
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
दिगम्बर नासवा 22 सितंबर 2009 को 12:28 am बजे  

और अब वो केवल
अपने छः बच्चों के वास्ते
राशन पानी बटोरने के लिये ही
घिसट रही है....

SACHI RACHNA HAI HEMANT JI IS RACHNA KO PADHVAANE KA DHANYVAAD ... JEEVAN KI SACHAAI SE JUDI MAARMIK RACHNA HAI ...

Gyan Dutt Pandey 22 सितंबर 2009 को 3:28 am बजे  

ओह, मुझे याद आ गयी चेन्नै के मरीना बीच पर शंख-सीपियां बेचती मछेरन। सांवली। जाने कैसे होगी वह।
क्या पढ़ने पर कौन आ जाता है याद!

Alpana Verma 24 सितंबर 2009 को 2:19 pm बजे  

मर्मस्पर्शी रचना.
न जाने कितनी रामकली हमारे आस पास दिख जाती हैं.
कवि—प्रताप सहगल ji ki is kavita padhwane ke liye abhaar.

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