जाड़े के दोहे
रविवार, 11 जनवरी 2009
अलसाये से दिन हुए , कुम्हलाई अब शाम।
शरमाई सी चांदनी , नाचे अपने धाम॥
चौपालों में चल रही , चर्चा सुबहो शाम।
सूरज जम गया शीत से , कैसे निकले घाम॥
बुढऊ तापनी बारते , बुढिया जपती राम।
बूढा सुग्गा टेरता , बस अपना ही नाम॥
बिरहिन का दुःख देख के , रातें हुईं उदास।
चिठिया ढाढस दे रही , जिन छोड़ मिलन की आस॥
००००००००००००
शरमाई सी चांदनी , नाचे अपने धाम॥
चौपालों में चल रही , चर्चा सुबहो शाम।
सूरज जम गया शीत से , कैसे निकले घाम॥
बुढऊ तापनी बारते , बुढिया जपती राम।
बूढा सुग्गा टेरता , बस अपना ही नाम॥
बिरहिन का दुःख देख के , रातें हुईं उदास।
चिठिया ढाढस दे रही , जिन छोड़ मिलन की आस॥
००००००००००००
हेमंत कुमार
9 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छे दोहे हैं मज़ा आ गया पर क्या अभी भी चिट्ठी किसी को धाडस बंधाती है ?
चलिए दोहे पढ़ कर तो गर्मी आ गई होगी ???
bahut sundar dohe aur jaade ki tasweer.......
पहली बार आपके ब्लॉग को देखा. बहुत अच्छा लगा!
और शीत से मुझे दिल्ली की ठण्ड की याद आ गयी!
यदि समय मिले तो मेरी भी एक साधारण सी कविता को पढियेगा: 'एक पौधा' तथा अपनी टिप्पणी दीजियेगा!
आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. कभी हमारे सामूहिक प्रयास 'युवा' को भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें प्रोत्साहित करें !!
bahut badiyaa dohe hain bdhaai
अलसाये से दिन हुए , कुम्हलाई अब शाम।
शरमाई सी चांदनी , नाचे अपने धाम॥
Bahut ache dohen han ye bahut acha laga..bahut-2 badhai aapko ammaji ki gazal achi lagi uske liye shukriya..nai gazal dal di gayi ha padhiyega...
chithiya dhadas de rahi.....jin chod milan ki aas....
bahut hi sunder panktiyan hai....
badhai
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