कहाँ खो गई कथा कहानी
शनिवार, 6 दिसंबर 2008
मेरा एक गाँव था खरौना.जिला जौनपुर.उस गावं से ,शहर से ढेरों यादें जुडी हैं.उन्हीं में से कुछ बचपन की यादें भी है.
उस गाँव में हमारे बाबा रहते थे. गरमी की छुट्टियों में हम लोग वहां जाते थे।
उस गाँव में हमारे बाबा रहते थे. गरमी की छुट्टियों में हम लोग वहां जाते थे।
खूब मजा आता था.सारे बच्चे किसी बगीचे में इकट्ठे हो जाते.बस धमा चौकडी शुरू.कभी सीसो पाती ,कभी गेंद ताडी .कभी कोई खेल तो कभी कोई.कभी आपस में झगडा भी हो जाता .लेकिन थोड़ी देर में ही फ़िर सब एक साथ खेलने लगते.पर गावं में खेल कूद धामा चौकडी से भी अच्च्च्छा जो पल होता था,वह था रात का.
अँधेरा होते ही सारे बच्चे हमारे घर के सामने इकट्ठे हो जाते। बन्सेहती की खटियों पर सब अपनी अपनी जगह पर बैठ जाते.फ़िर इंतजार होता था मेरे पिता जी यानि भाई का.वो अज वाले मुंबई के भाई नहीं थे.दरअसल हम लोग अपने पिता जी को बचपन से ही भाई कहते थे.इसी लिए वो जगत भाई बन गए थे.गावं का हर व्यक्ति उन्हें भाई कहता. चाहे वो बच्चा हो या बूढा.
इंतजार इसलिए की उन्हीं के दिमाग में भरा था हजारों कहानियो का खजाना.(वैसे भी उस समय तक मेरे पिता श्री प्रेम स्वरुप श्रीवास्तव जी ने एक सफल कहानीकार के रूप में हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में अपनी अच्छी ढाकाजमा ली थी.)
तो भाई के आते ही शुरू हो जाता था कहानियो और किस्सों का दौर.कभी राक्षस की कहानी तो कभी भूत की.कभी ऐतिहासिक कहानियाँ तो कभी विज्ञानं कथाएँ.सारे बच्चे बड़े ही मनोयोग से सुनते थे कहानियाँ.एक एक शब्द पर हुंकारी भरना,कोई शब्द छूट जाया तो उसे पूछना ,बगल के सोते बच्चे को ताडी मर कर जगाना…ये सब कुछ खासियतें हुआ करती थीं उस कथा महफ़िल की.
उस समय हमारे अन्दर कहानी सुनने का एक नशा होता था.अगर बीच में किसी बच्चे को घर बुला लिया जाता तो दूसरे दिन वो कहानी का वह हिस्सा किसी साथी से सुन लेता था.
पर आज के बच्चों में वो बात दिखाई ही नहीं पड़ती.एक तो बेचारों पर कोर्स की किताबों का बोझ,दूसरे चैनलों के सीरियल,वीडियो गेम्स का असर .अब अगर किसी बच्चे से आप कहिये भी की आओ बेटा/बेटी कहानी सुना दे तो वह तुंरत आपसे पीछा छुडाने की कोशिश करेगा,या फ़िर कामिक्स के किसी ऐसे पत्र की कहानी सुनाने की फरमाइश कर देगा जिसका नाम आपके पुरखों ने भी नहीं सुना होगा.
मुझे ही नहीं आप में से बहुतों को मौका मिला होगा बचपन में ऐसी कथा महफिलों में कहानियाँ सुनने का.लेकिन आप जरा गौर फरमाइए की क्या आज आपके आस पास का कोई बच्चा कहानियाँ सुनने में वैसी रूचि दिखाता है जैसी हम में थी?
सिर्फ़ बड़े लोगों द्वारा ही नहीं ,हमारी संस्कृति में तो कहानी सुनाने की परम्परा ही रही है.चाहे वो सत्यनारायण भगवन की कथा के रूप में,ललही छत की कथा,भैयादूज की कथा,करवाचौथ की कथा ,या फ़िर किसी अन्य देवी देवता की कथा के रूप में.या फ़िर पौराणिक,जातक,लोककथा,नीति कथाओं के रूप में.
और इन कहानियो के पीछे चाहे जो भी अलग अलग मकसद रहे हों,लेकिन कुछ बिन्दु तो सभी के साथ जुड़े थे.हर कहानी में एक उद्देश्य,एक मस्सेज जरूर रहता था.हर कहानी सुनने वाले को एक संस्कृति रीति रिवाज से परिचित कराती थी.कहानी मनोरंजन भी करती थी.
जहाँ तक बच्चों की कहानी की बात है,तो उन्हें कहानियाँ सुनाने के पीछे कई मकसद होते थे.
० बच्चों का मनोरंजन करना .
० बच्चों में सुनने और समझने की दक्षता बढ़ाना.
० उनकी एकाग्रता की शक्ति बढ़ाना.
० उनके शब्द ज्ञान को बढ़ाना.
० उनकी कल्पना शक्ति को बढ़ाना।
अँधेरा होते ही सारे बच्चे हमारे घर के सामने इकट्ठे हो जाते। बन्सेहती की खटियों पर सब अपनी अपनी जगह पर बैठ जाते.फ़िर इंतजार होता था मेरे पिता जी यानि भाई का.वो अज वाले मुंबई के भाई नहीं थे.दरअसल हम लोग अपने पिता जी को बचपन से ही भाई कहते थे.इसी लिए वो जगत भाई बन गए थे.गावं का हर व्यक्ति उन्हें भाई कहता. चाहे वो बच्चा हो या बूढा.
इंतजार इसलिए की उन्हीं के दिमाग में भरा था हजारों कहानियो का खजाना.(वैसे भी उस समय तक मेरे पिता श्री प्रेम स्वरुप श्रीवास्तव जी ने एक सफल कहानीकार के रूप में हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में अपनी अच्छी ढाकाजमा ली थी.)
तो भाई के आते ही शुरू हो जाता था कहानियो और किस्सों का दौर.कभी राक्षस की कहानी तो कभी भूत की.कभी ऐतिहासिक कहानियाँ तो कभी विज्ञानं कथाएँ.सारे बच्चे बड़े ही मनोयोग से सुनते थे कहानियाँ.एक एक शब्द पर हुंकारी भरना,कोई शब्द छूट जाया तो उसे पूछना ,बगल के सोते बच्चे को ताडी मर कर जगाना…ये सब कुछ खासियतें हुआ करती थीं उस कथा महफ़िल की.
उस समय हमारे अन्दर कहानी सुनने का एक नशा होता था.अगर बीच में किसी बच्चे को घर बुला लिया जाता तो दूसरे दिन वो कहानी का वह हिस्सा किसी साथी से सुन लेता था.
पर आज के बच्चों में वो बात दिखाई ही नहीं पड़ती.एक तो बेचारों पर कोर्स की किताबों का बोझ,दूसरे चैनलों के सीरियल,वीडियो गेम्स का असर .अब अगर किसी बच्चे से आप कहिये भी की आओ बेटा/बेटी कहानी सुना दे तो वह तुंरत आपसे पीछा छुडाने की कोशिश करेगा,या फ़िर कामिक्स के किसी ऐसे पत्र की कहानी सुनाने की फरमाइश कर देगा जिसका नाम आपके पुरखों ने भी नहीं सुना होगा.
मुझे ही नहीं आप में से बहुतों को मौका मिला होगा बचपन में ऐसी कथा महफिलों में कहानियाँ सुनने का.लेकिन आप जरा गौर फरमाइए की क्या आज आपके आस पास का कोई बच्चा कहानियाँ सुनने में वैसी रूचि दिखाता है जैसी हम में थी?
सिर्फ़ बड़े लोगों द्वारा ही नहीं ,हमारी संस्कृति में तो कहानी सुनाने की परम्परा ही रही है.चाहे वो सत्यनारायण भगवन की कथा के रूप में,ललही छत की कथा,भैयादूज की कथा,करवाचौथ की कथा ,या फ़िर किसी अन्य देवी देवता की कथा के रूप में.या फ़िर पौराणिक,जातक,लोककथा,नीति कथाओं के रूप में.
और इन कहानियो के पीछे चाहे जो भी अलग अलग मकसद रहे हों,लेकिन कुछ बिन्दु तो सभी के साथ जुड़े थे.हर कहानी में एक उद्देश्य,एक मस्सेज जरूर रहता था.हर कहानी सुनने वाले को एक संस्कृति रीति रिवाज से परिचित कराती थी.कहानी मनोरंजन भी करती थी.
जहाँ तक बच्चों की कहानी की बात है,तो उन्हें कहानियाँ सुनाने के पीछे कई मकसद होते थे.
० बच्चों का मनोरंजन करना .
० बच्चों में सुनने और समझने की दक्षता बढ़ाना.
० उनकी एकाग्रता की शक्ति बढ़ाना.
० उनके शब्द ज्ञान को बढ़ाना.
० उनकी कल्पना शक्ति को बढ़ाना।
0 उन्हें कहानियो के मध्यम से कोई संदेश,सीख या नयी बात सिखाना.
और ये सभी मकसद पूरे भी होते थे उन कहानियो के मध्यम से.
परन्तु आज …?
आज तो नॅशनल बुक ट्रस्ट ,आई.सी.दी.एस.,सर्व शिक्षा अभियान……सभी को कोशिशें करनी पड़ रहीं है,की बच्चों को कहानियाँ सुनायी जायें .बड़ी बड़ी वर्कशाप,गोष्ठियां,सेमिनार किए जा रहे है इस मुद्दे को लेकर.
मैंने भी अपने लेखन की शुरुआत बच्चों की कहानियो से ही की थी.और आज भी मैं ख़ुद को मूलतः बाल कथा लेखक ही मानता हूँ .इसलिए मैं भी आप सभी ब्लोगरों से,बुद्धिजीवियों से,और खासकर माताओं पिताओं से कहूँगा की ,किस्सागोई…कहानी सुनाने और सुनने की इस ख़तम हो रही परम्परा को बचाएं.
अपने घर में छोटे बच्चों को कहानी रोज sunayen .उनसे भी सुनें.कहानी चाहे नई हो या पुरानी.
कहानी तो कहानी ही होती है.
हेमंत कुमार
और ये सभी मकसद पूरे भी होते थे उन कहानियो के मध्यम से.
परन्तु आज …?
आज तो नॅशनल बुक ट्रस्ट ,आई.सी.दी.एस.,सर्व शिक्षा अभियान……सभी को कोशिशें करनी पड़ रहीं है,की बच्चों को कहानियाँ सुनायी जायें .बड़ी बड़ी वर्कशाप,गोष्ठियां,सेमिनार किए जा रहे है इस मुद्दे को लेकर.
मैंने भी अपने लेखन की शुरुआत बच्चों की कहानियो से ही की थी.और आज भी मैं ख़ुद को मूलतः बाल कथा लेखक ही मानता हूँ .इसलिए मैं भी आप सभी ब्लोगरों से,बुद्धिजीवियों से,और खासकर माताओं पिताओं से कहूँगा की ,किस्सागोई…कहानी सुनाने और सुनने की इस ख़तम हो रही परम्परा को बचाएं.
अपने घर में छोटे बच्चों को कहानी रोज sunayen .उनसे भी सुनें.कहानी चाहे नई हो या पुरानी.
कहानी तो कहानी ही होती है.
हेमंत कुमार
2 टिप्पणियाँ:
अंकल जी , जब मेरे बच्चे होंगे तो मैं उन्हें आपके पास कहानी सुनने के लिए भेज दूँगा. :)
और हाँ एक काम तो आप तुंरत करिए ये वर्ड वेरिफिकेशन हटा दीजिये, कैसे हटेगा यह मेरे ब्लॉग का लेटेस्ट लेख आपको बता देगा.
यहाँ टिप्पणी करने में बड़ी तकलीफ होती है.
एक तो आज कल बल साहित्य का अभाव हो गया है बच्चों को भी अब कहानियो में दिलचस्पी नहीं रही ,कार्टून चाहिए उन्हें हाथ में से रिमोट छुडा लेते है /आप बालकथा लेखक है ये वर्तमान समय की महती आवश्यकता है ये साहित्यिक पत्रिकाएँ कहाँ बच्चों की कहानिया छापती हैं और छापे तो बच्चे नहीं पढ़ते /बाल कविताओ का अभाव हो चला है
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