पत्थरों की माँ
रविवार, 31 जुलाई 2022
(आज प्रतिष्ठित कहानीकार,रेडियो नाट्य लेखक,बाल साहित्यकार,मेरे स्व०पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी 7वीं पुण्य तिथि है।उन्होंने प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य,रेडियो नाटकों के साथ ही साहित्य की मुख्यधारा में बड़ों के लिए भी 300से ज्यादा कहानियां लिखी हैं जो अपने समय की प्रतिष्ठित पात्र-पत्रिकाओं—सरस्वती,कल्पना,ज्ञानोदय, कहानी,नई कहानी,प्रसाद आदि में प्रकाशित हुयी थीं।पिता जी को स्मरण करते हुए आज मैं यहाँ उनकी एक कहानी “पत्थरों की मां” पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहा हूं।)
स्व०पिता जी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
प्रेम स्वरूप
श्रीवास्तव
बल्लो के शरीर और एक सूखी पतली डाल में कोई विशेष अंतर न था।दूर से उसके चेहरे पर आँख, नाक ओर मुँह की पहचान कर पाना बहुत मु्श्किल था।सब बैठ से गए थे।मुठ्ठी में आ जाने वाली उसकी कमजोर गर्दन सर के बोझ से हर वक्त हिलती रहती थी।सुबह होती सूरज निकलता और पेड़ चिड़ियों की मीठी आवाज से गूँज उठते थे।शाम होती, चाँद निकलता और उसकी जादूभरी चाँदनी जंगल के सीने पर फैल जाती।गाँव में बच्चे पैदा होते, खुशी के बाजे बजते, अर्थियाँ उठतीं मातम होते।मगर बल्लो-सुखबीर की माँ वीतराग हो चुकी थी। खुले हुए आकाश और फैली हुई धरती को वह सूनी आंखों से देखा करती। जीवन और मरण में अब उसके लिए कोई अंतर न था।
बेला रानी--- हाँ अब बल्लो कहलाने वाली सुखबीर की माँ का पहले यही नाम था। सचमुच कोई तीस बरस पहले अपने मायके में यह बेला की तरह खिली रहती थी और ससुराल में रानी की तरह सम्मानित थी। तब वह अपने पति के साथ कलकत्ता रहती थी। उसका पति काली चरण दवा की किसी बड़ी कम्पनी का एजेन्ट था और प्रचार एवं बिक्री के लिए अक्सर ही बाहर-बाहर रहता था। मगर बेला को किसी तरह का अकेलापन न महसूस होता। अपने मकान की खिड़की से वह मेले की तरह गुजरते विशाल जनसमूह को देखा करती या जब भी जी में आता बाजार घूमने या चिड़ियाघर की सैर को निकल पड़ती थी। खाने पीने की कोई कमी न थी। मन की मौज थी, कभी खुद पका लेती कभी काली चरण के साथ किसी अच्छे होटल में पहुँच जाती।
बेला को बल्लो तक पहुँच ने का रास्ता इतना बीह़ड़ था कि हिम्मत करने पर भी वह कभी पीछे मुड़कर न देख पाती।आँखों की सूखी हुई पुतलियाँ, चेहरे पर जीवन के सतत संघर्षो की दर्द भरी कहानी कहती झुर्रियाँ, हिलता हुआ सर, काँपते हुए हाथ और लाठी के सहारे आगे उठ सकने वाले डगमगाते हुए पांव--- बोला की तस्वीर की एक धुंध भर रह गई। बल्लो तो अब उस पेड़ के ठूंठ जैसी थी जो जीवन की पता नहीं कितनी सर्दी, गर्मी और बरसातें खाने के बाद किसी वीराने में चुपचाप खड़ा सूने आकाश को देखा करता है।
वहीं कलकत्ता में सुखबीर पैदा हुआ था।
सुखबीर--जो अब अट्ठारह बरस का है और जिसे बचपन की सारी बातें अच्छी तरह याद हैं। अपने स्वर्गीय पिता की अनोखी मुहब्बत, उनका हर वक्त मुस्कराता हुआ चेहरा वह आज भी नहीं भूल सका है। काली चरण को घूमने और घुमाने का काफी शौक था। जब भी वह दूर किसी अच्छी जगह के लिए जाता तो बेला और सुखबीर को भी साथ ले लेता। वह सारा हिन्दुस्तान घूम आया था। और इस तरह बेला ने अपने पति और पुत्र के साथ देश की जी भर का झांकी ली थी।
दार्जिलिंग में बेला रानी ने प्रातः किरणों में पुखराज सी चमकती हिमालय की चोटियाँ देखी थीं।बंगाल की शस्यश्यामल धरती का आकर्षण सौन्दर्य तो सदा से ही उसके मन को बांधता आया था, दूर दक्षिण में कन्याकुमारी के चरण पखारती हिन्द महासागर की फेनिल लहरों पर थिरकती सूर्यास्त की स्वर्णरश्मियों पर उसने अपना हृदय न्योछावर किया था, केरल के गर्वोन्नत नारियल कुंजों को वह जल्दी नहीं भूल सकी, मीनाक्षी के मंदिरों से झाकता शिल्प का विराट वैभव स्वप्न में भी उसे मोहित करता रहा।
आज जब चमकते हुए लैम्प पर अपनी आँखें गड़ाकर सुखबीर की माँ स्मृतियों की एकाध परत उधेड़ती है तो उसका हृदय न जाने कैसा हो आता है। ताज और अजन्ता की गुफाएं एक लम्बे अरसे तक दर्पण के बिम्बसमान उसके हृदय में जीवित रहे। यदि कालरात्रि के समान उसके जीवन में वह रहस्यमय घटना न घटी होती तो शायद वह अपने देश की इन अलौकिक विभूतियों को जीवन की अन्तिम घड़ी तक न भुला सकती। मगर अब तो इन सबका नाम कर सुनकर उसका हृदय विद्रोह और क्षोभ से भर उठता है। वह स्वाभाविक था। जो चीज किसी के जीवन में आग लगा दे फिर उससे हमेशा के लिए विरक्ति पैदा हो जाती है।
कोणार्क का सूर्य मंदिर देखकर बेला सुखबीर और काली चरण के साथ बाहर निकल रही थी। सहसा द्वार पर स्थापित घड़ियाल की दोनों मूर्तियो को देखकर काली चरण ठिठक गया। उसने उनकी ओर विमुग्ध दृष्टि से देखते हुए बेला से कहा---देखती हो, लगता है जैसे दोनों अभी-अभी चन्द्रभागा से निकल कर आए हों।’
बेला ने अभी उन्हें ध्यान से नहीं देखा था। काली चरण की बात सुनकर वह उनके बिल्कुल निकट चली आई। काली चरण उससे भी आगे था। दोनों अपलक नेत्रों से पत्थर में छेनी ओर हथौड़ी की सजीवता अनुभव करते रहे।
‘सचमुच कला का बेजोड़ नमूना है।’ बेला के कंठ से निकला। मगर अब अनुमोदन पाने के भाव से उसने अपनी नजर काली चरण पर उठाई तो उसका हृदय धक्क से रह गया।
काली चरण स्वयं एक पाषाण प्रतिमा बना खड़ा था। घड़ियाल के मुख पर टिकी हुई उसकी आँखे पथरायी हुई सी थीं। उसका चेहरा पूर्णतः चेतना शून्य प्रतीत हो रहा था। जीवन के चिह्न स्वरूप केवल उसकी साँस आ जा रही थी।
‘चलो, अब लौट चलें।बड़ी देर हो गई है।’ बेला ने घबड़ा कर कहा और पति के दाहिने हाथ की कलाई पकड़ ली। मगर कलाई छूते ही वह चीख सी पड़ी। काली चरण का हाथ बर्फ की तरह ठंडा था। उसने उसे अपनी ओर खीचना चाहा। लेकिन वह तो जैसे लोहे का खम्भा हो गया था। अपने स्थन से इंच भर भी नहीं हिला।
बेला ने एक दम असहाय होकर अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। बालू में खेलते हुए सुखबीर के सिवा वहां और कोई नहीं था। अंधेरा बढ़ता जा रहा था।
सहसा काली चरण के होठ हिले। बेला ने सुना, वह आवाज आज की नहीं थी। जैसे हजारों वर्ष पूर्व का कोई प्राणी भूगर्भ से बोल रहा हो। कोई कम्पन नहीं, कोई झिझक नहीं।
‘युग-युग से मैं तुम्हें ढूँढ रहा था। मेरे प्राण तुम्हारे प्यासे थे। तुम्हें बनाने के बाद मैंने अनुभव किया कि मैं तुमसे एक प्रश्न का उत्तर पाना भूल गया हूँ। इसी से आज तक भटकता रहा। बोलो, दोगे मेरे प्रश्न का उत्तर !’ काली चरण के चेहरे पर पता नहीं कहां की दीनता उमड़ आई, एक बच्चे की अधीरता से भर उठा वह। मगर पत्थर के घडि़यालों को तो मौन रहना था, वे मौन रहे।
काली चरण का कंठ कुछ प्रखर हुआ-‘इन हाथों ने तुम्हें इस रूप में गढ़ा कि हजारों साल तक देखने वाली आँखें तुम्हारा रूप रस पीते न थकें।आज भी तुम उतने ही सजीव और ताजे हो जितना शताब्दियों पूर्व थे। मगर जिस वक्त मैं तुम्हें हृदय प्रदान करने चला मेरी छेनी टूट गई। उस समय तो बात बहुत मामूली लगी।लेकिन उजली रातों और खूनी दिनों के ताने बाने से इस दुनिया को ढँकते और उघड़ते देखकर भी अब तुम्हारी आंखें निर्विकार रहीं, मुझे अपनी छेनी के टूटने का अफसोस हुआ। यह सब अकस्मात की कोई घटना न थी। तब फिर यह क्यों हुआ, कैसे हुआ ? बोलो, युगों से मेरे प्राण को घोंटते चले आ रहे इस प्रश्न का क्या उत्तर देते हो तुम ?’ काली चरण करीब-करीब चीख सा पड़ा।
बेला ने अपने पति के चेतना शून्य होकर गिरते हुए शरीर को संभालने का प्रयत्न किया। मगर उतने भारी शरीर का बोझ वह न वहन कर सकी और दोनों ही जमीन पर आ रहे।
अगले दिन कोणार्क दर्शन के लिए आये हुए यात्रियों ने तीन व्यक्तियों को अस्पताल पहुँचाया। बेला बेहोश थी मगर काली चरण की दिव्य आत्मा सूर्य मंडल की ओर प्रस्थान कर चुकी थी।
और आज ? बेला से बल्लो बनी हुई सुखबीर की माँ!
सुखबीर रात ग्यारह बजे के बाद लौटा। उसका चेहरा बड़ा उदास था। हमेशा की तरह हँसकर उसने अपनी माँ को चिढ़ाया नहीं, उसकी हथेलियों को फैलाकर उस पर अपना सर नहीं रखा। बड़ा अस्वाभाविक था। माँ आँखें फ़ाडकर बदले हुए सुखबीर को देख रही थी। क्या हो गया है उसे ?
‘तबीयत तो ठीक है?’ माँ ने डरकर उसके माथे पर हाथ रखा। ज्वर नहीं था। मगर मन को इससे पूरा संतोष न हुआ।
‘माँ, तूने बाबू के साथ देश का कोना-कोना देखा है। मुझे भी उसकी कुछ कुछ यादें हैं। जिन चीजों ने बार-बार तेरे हृदय को खींचा है और जिन्हें एक बार फिर से देखने की तू बापू की मिंन्नतें किया करती थी आज उन पर एक काली छाया मंडरा रही है।’ सुखबीर बोला ।
बल्लो चुपचाप
उसका मुंह देखती रही।क्या कह रहा है सुखबीर, उसकी समझ में नहीं आया। इतना भर अवश्य हुआ कि उसके चेतन
मे बिजली सी कौंध उठी कि ठीक ऐसी ही थी आवाज उनके पति की भी हो आई थी जब वह कोणार्क
के सूर्य मंदिर में घडि़यालों के सामने पहुंचा था।
सुखबीर बोलता रहा-सैकड़ों वर्ष पुरानी प्रेम की अमिट यादगार ताजमहल हो ---चाहे आने वाली पीढि़यों में मानव श्रम और लगन की झंकार भरने वाला भाखड़ा नांगल बाँध हो--हम उनके एकमात्र स्वामी हैं। आज वे दूसरे के होने जा रहे हैं माँ। जिसके पास न्याय के नाम पर अन्याय है और जिसे अपने लाखों सैनिकों को युद्ध की ज्वाला में झोंक देने में जरा भी हिचक नहीं आई, एक ऐसे बर्बर क्रूर लुटेरे ने हमारी इन विभूतियों पर अपनी आँखें उठाईं हैं।’
‘विभूतियां’ शब्द माँ के हृदय पर काँटे की तरह चुभ गया। तेजी से दौड़ाई गई फिल्म के दृश्य जैसी कोणार्क के मंदिर की वह रहस्यमय दुर्घटना बल्लो के मानस पलट पर से गुजर गई। उसकी अन्तरात्मा प्रतिशोध की भावना से चीख पड़ी---‘यदि आज देश की इन सारी विभूतियों के खंडहर हो जाने का क्षण आ गया है तो इससे बढ़कर तुष्टि देने वाली बात उसके लिये और क्या होगी। उसके पति ने ठीक ही कहा था- इन पत्थरों में हृदय नहीं है। यही शिल्पी की एकमात्र असफलता है। काली चरण भी शिल्पी था, भावुक हृदय था, भले ही वह किसी कम्पनी की दवाओं का प्रचार करता रहा हो। इसी से बात उसके मर्म में यहाँ तक चुभ गई कि उसके प्राण ही ले बैठी। फिर इन हृदय शून्य पत्थरों के थोड़े से सजे सजाए ढेरों का महत्व क्या ?
सुखबीर जैसे माँ के दिल की भाषा पढ़ गया। बोला- ‘तू चूप क्यों है माँ? एक ही बात को लेकर क्यों सारा जीवन जहर से भर उठे।’
‘यह पत्थर तो किसी के भी होकर रह सकते हैं सुखबीर !’
इन नपे तुले शब्दों में जो मार्मिक व्यंग्य था, वेदना का जो अथाह सागर छिपा हुआ था वह सुखबीर से न छिप सका। वह बोला-‘माँ, तू ऐसा क्यों सोचती है। इस देश के करोड़-करोड़ प्राण ही तो इन पत्थरों के हृदय हैं। युग-युग से वे अविभाज्य रहे हैं।अपना हृदय अपना है, जिस दिन वह पराया हो जाएगा, तू देखना माँ ये पत्थर टुकड़े-टुकड़े होकर छितरा जायेंगे। मीनाक्षी हो चाहे अजन्ता, केसर भरी कश्मीर की घाटी हो या चांदी के शिखरों वाला हिमालय, परदेसी उनकी प्रशंसा भर कर सकता है, मुहब्बत तो हम ही करेंगे। आज उस मुहब्बत को तार तार कर देने वाली आँखें हिमालय के उस पार से हम पर लगी हुई हैं।’
‘तेरे बापू का खून इन पत्थरों पर लगा हुआ है, इसे तू भूल सकता है सुखबीर, मगर......।’ आगे माँ सिसकियों में डूब गईं।
‘इसी से तो वे आज बिल्कुल अपने हो गए हैं माँ !’ सुखबीर ने तड़प कर कहा और माँ को करीब-करीब अपनी बाहों के घेरे में ले लिया! ‘बापू के भीतर युग शिल्पी की आत्मा बिराजती थी। इन पाषाणों के प्रति अटूट स्नेह ने उनको अपनी गोद में ले लिया।आज वे होते तो हम देश की इंच-इंच भर धरती की रक्षा के लिए अपने को जिन्दा रखते। देख, हिमालय मुझे बुला रहा है। आज तेरे मान अपमान का प्रश्न है माँ!’
बल्लो ने अपनी आँखें धीरे-धीरे ऊपर उठाईं उसे सुखबीर के चेहरे पर काली चरण का बिम्ब दिखाई पड़ा। आँखों का वही आकर्षण, कंठ का वही जादू।उसे अपना अतीत लौटता सा लगा। बल्लो नहीं, बेला थी वह। उसने अपने खून में तेजी से बढ़ती हुई गर्मी में महसूस किया-- अनजाने ही जिस संकुचित घेरे में उसने पैर रख दिए थे यह टूट गया है। केशर वाले कश्मीर से पवित्र हृदया कन्याकुमारी तक और पंचनद की स्वर्ण भूमि से बंग की शस्य स्यामल धरित्री तक की स्वामिनी है वह।यह विराट सौन्दर्य, यह अपार वैभव कभी किसी आक्रामक के होकर न रहेंगे!
सीमा प्रदेश की बर्फ से ढँकी धरती पर खराब मौसम में जब लान्सनायक सुखबीर अपनी दूरबीन के शीशे पर बार-बार आ लगती बर्फ की नमी को कपड़े से पोंछ रहा था तो उसे अपनी माँ का पत्र मिला-
‘प्रिय बेटा,
सुना है कि वहां अब शान्ति है और चीन वाले पीछे हट गए हैं।यहाँ अब लड़ाई की कोई चर्चा नहीं है। लोग अब रेडियो के पास भीड़ लगाए नहीं दिखाई पड़ते, किसी में अभी कुछ दिनों पहले वाली उद्विग्नता नहीं रह गई है। मगर मेरा हृदय पता नहीं क्यों अशान्त है। उसे बाहर का यह वातावरण किसी आने वाले तूफान का पूर्वाभास लग रहा है। मेरा मन कहता है कि मैं देश की किसी सबसे ऊँची इमारत पर खड़ी होकर चिल्लाऊँ और लोगों को सावधान कर दूँ। हमारे संघर्ष की जरा सी ढील हमारा विनाश कर देगी। मैं बरसते हुए मेघों के नीचे आकर खड़ी हो जाती हूं और तुम्हारे कष्टों का थोड़ा अनुमान लगाने का प्रयत्न करती हूँ।माँ हूँ, इसी से जब तब विचलित हो जाना स्वभाविक है। मगर अब मेरी आँखों में चमक है जो तुम्हें रोशनी देगी, मेरे कंठ में अब बिजली की कड़क है जो तुम्हें शक्ति देगी। एक दिन मैंने अपने देश के जिन पत्थरो से प्यार किया था आज वे मुझे अपने बेटे लग रहे हैं। उन बेटों को अपने वक्ष पर धारण करने वाली धरती में मेरे प्राण समाए हुए हैं।
मैं घर-घर घूमकर आग की लपटें फैला रही हूँ---वह आग जिसमें हमारी सारी कमजोरियां जलकर राख हो जाएंगी। इस समय देश को केवल शक्ति चाहिए, तुम उस शक्ति के मेरुदंड़ हो सुखबीर!
माँ का आशीर्वाद
उस गजब की ठंड में
भी सुखबीर का गात गरम हो उठा। माँ की यह भावना निश्चय ही देश के उन पत्थरों की रक्षा
करेगी जो नाम के पत्थर हैं मगर जिनमें देश की हजार-हजार साल पुरानी संस्कृति और कला
मुखरित है। उसने अपनी रायफल उठाई और प्यार के साथ उसकी नाल चूम ली। इस्पात या कठोरता
ही आज कोमल अनुभूतियों की रक्षा कर सकती थी।
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लेखक-प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11
मार्च, 1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म। 31 जुलाई
2016 को लखनऊ कमें आकस्मि निधन।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद
बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न
पदों पर सरकारी नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना, प्रसाद,ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी,नई कहानी, विशाल भारत,आदि में कहानियों, नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों, रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य
का प्रकाशन।
आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित
नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों, नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें
प्रकाशित।2012में नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया
से बाल उपन्यास“मौत के चंगुल में” तथा 2018 में बाल नाटकों का संग्रह एक तमाशा ऐसा
भी” प्रकाशित। इसके पूर्व कई प्रतिष्ठित
प्रकशन संस्थानों से प्रकाशित “वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस
देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर
बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर
का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों
का तारा”आदि
बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के शिक्षा प्रसार विभाग में
नौकरी के दौरान ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त
चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस-पास शुरू हुआ लेखन का यह क्रम जीवन पर्यंत जारी
रहा।
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बहुत सुंदर
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