पुस्तक समीक्षा : बच्चों को गुदगुदाने वाले नाटक
सोमवार, 24 जनवरी 2022
पुस्तक समीक्षा
बच्चों को गुदगुदाने वाले नाटक
पुस्तक:दिविक रमेश चुनिंदा नाटक
लेखक:दिविक रमेश
प्रकाशक:नेशनल बुक ट्रस्ट,इन्डिया
नेहरू भवन,5 इंस्टीट्युशनल एरिया,फेज-2
वसंत कुंज,नई दिल्ली-110070
वर्तमान हिंदी बाल साहित्य में सबसे अधिक कमी किसी विधा में है तो वह है बाल नाटकों की।बाल कहानियों,कविताओं,उपन्यासों और सूचनात्मक साहित्य की तुलना में अच्छे बाल नाटक बहुत कम लिखे भी जा रहे और प्रकाशित भी कम हो रहे।इसीलिए अक्सर बाल नाटकों के मंचन के समय या फिर बाल रंगमंच की कार्यशालाओं में यह बात कही भी जाती है कि मंचन के लिए अच्छे बाल नाटकों की स्क्रिप्ट्स की बहुत कमी है।
इसके पीछे कारण मुख्य रूप से कुछ ही
हैं।पहला तो यह की बाल नाटक लिखने वाले लेखक
कम हैं,दूसरे जो इस दिशा में प्रयास कर भी रहे हैं वो बाल नाटक सिर्फ नाटक
लिखने के लिए लिख देते हैं।उन नाटकों को बच्चे मंच पर प्रस्तुत कर सकेंगे या
नहीं,मंचन में नाट्य निर्देशक या बच्चों को उस नाटक की प्रस्तुति के समय क्या
दिक्कतें आयेंगी इस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं।बस उन्होंने बाल नाटक लिखा उसे
पैसे देकर छपवा दिया, उनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गयी बस
उनका काम समाप्त।उस नाटक को बच्चे रूचि से पढ़ेंगे या नहीं,उसका मंचन हो सकेगा या
नहीं इन बातों से उन्हें कोई मतलब नहीं।
इस नजरिये से कुछ ही दिनों पहले नेशनल
बुक ट्रस्ट से प्रकाशित दिविक रमेश जी के बाल नाटकों क संकलन “दिविक रमेश
चुनिंदा बाल नाटक”—बाल नाटकों और बाल रंगमंच की दिशा में एक नई आशा जगाते हैं।
दिविक
जी के इस बाल नाटक संग्रह में कुल पांच बाल नाटक हैं–“मुसीबत की हार”,“मैं
भी परी हूँ”,”बल्लू हाथी का बालघर”,“चतुराई का चमत्कार”,और “सोचूराम”।
संकलन
का पहला नाटक“मुसीबत की हार”एक छोटी बच्ची की बहादुरी की कहानी
है।बच्ची को उसकी मां बहादुरी की कहानियां सुनाती है।ऐसी ही एक कहानी चींटी और
चिड़िया की सुनाई।बच्ची की माँ गाँव की
औरतों के साथ दूर जंगल में काम करने जाती है।एक दिन बच्ची भी ज़िद करके अपनी मां के
साथ जंगल गयी और घूमते घूमते जंगल में खो गयी। पहले तो वह घने जंगल में घबरा
गयी।फिर अचानक उसे माँ द्वारा सुनायी गयी बहादुर चिड़िया और साहसी चींटे की कहानी
याद आ गयी।बच्ची उनकी बहदुरी को याद करती हुयी फूल दादा,नदी और संगीत दादी की सहायता से अपने घर वापस लौट आई।छोटे छोटे
दृश्यों और संवादों वाला यह नाटक बच्चों के साथ ही बड़ों को भी अच्छा लगेगा।नाटक को
रोचक बनाने और बच्चों को आनंदित करने के लिए लेखक ने इसके संवादों में सुन्दर
गीतों का भी प्रयोग किया है।घबराई हुयी बच्ची अपने मन की बात को फूल दादा से कुछ
इस तरह कहती है---
मां ने समझाया था
पर कहाँ मानी थी
ज़िद मैंने ठानी थी
आकर यहाँ भी
बात नहीं मानी थी
दूर दूर निकल गयी
की मनमानी थी
रह गयी अकेली हूँ
बता दो फूल दादा
मेरे घर का पता।
संकलन
का दूसरा नाटक “मैं भी परी हूँ” बच्चों के मन से रंग
भेद,सुन्दरता-कुरूपता जैसे भावों को ख़तम करने का एक अच्छा प्रयास
है।पूरा कथानक परी लोक की परियों को लेकर बुना गया है।परी लोक की कथाएं वैसे भी
बच्चों की पहली पसंद होती हैं।इसलिए इस नाटक के मंचन में बच्चों को काफी आनंद
आयेगा।नाटक का कथानक कुछ यूं है।परी लोक में सभी परियां,उनके परिवार के लोग,नन्हीं
परियां सभी सुन्दर हैं।उन्हीं में एक परिवार में एक कुछ सांवली बच्ची पैदा
हुयी।उसके माता पिता उसके सांवले रंग को लेकर बहुत चिंतित रहते थे।क्योंकि बच्ची
के बड़े होने के साथ ही समस्याएँ भी बढ़ रही थीं।कोई भी परिवार उस सांवली परी के साथ
अपने बच्चों को खेलने नहीं देता।मां बाप प्यार से उसे श्यामा कहने लगे।श्यामा के
पिता उसे पढ़ाने के लिए चुपके से भारत देश से एक शिक्षक को ले आते हैं।शिक्षक
श्यामा को ख़ूब पढ़ा लिखा कर शिक्षित कर देता है।श्यामा के पढी लिखी होने के कारण
ही धीरे धीरे दूसरी नन्हीं परियां उससे काफी घुल मिल गयीं।एक दिन सभी परियां उड़ कर
भारत देश पहुँच जाती हैं।वहां श्यामा ने दो बार उन नन्हीं परियों की जान
बचायी।इससे सभी उसे बहुत सम्मान देने और दीदी कहने लगीं।सबके मां बाप ने भी अपनी
बेटियों को पढ़ाने की जिम्मेदारी श्यामा को सौंप दिया।परी लोक के सभी लोग उसे ज्ञान
परी कहने लगे।इस नाटक के माध्यम से बच्चों को रंग भेद हटाने के साथ ही शिक्षा लेने
की सीख भी दी गयी है।
संकलन का तीसरा नाटक “बल्लू हाथी का
बालघर” संकलन का सबसे बेहतरीन नाटक है।नाटक एक जंगल के जीवों की पृष्ठ
भूमि पर बुना गया है जहां का राजा शेर खुद को महाराज कहलाना पसंद नहीं करता बल्कि
जीवों से कहता भी है कि वे उसे महोदय,महामहिम या फिर जंगलपति कहा करें।नाटक का
प्रमुख पात्र एक बूढा हाथी बल्लू है।अन्य पात्रों में
शेर,खरगोश,भालू,बन्दर,लोमड़ी,चीता और कुछ अन्य जानवरों
के बच्चे हैं।
नाटक की कहानी मात्र इतनी है कि एक जंगल के
जानवर इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जब वो सब दिन में अपने कम पर चले जाते हैं तो
उनके बच्चे अकेले रह जाते हैं।ऐसे में कहीं किसी दिन शिकारी आकर उनके भोले बच्चों
को पकड़ न ले जाएं।इसके लिए उनकी एक सभा चल रही थी।सभा में खरगोश उन्हें बच्चों को
एक सुरक्षित जगह रखने का सुझाव देता है।पर समस्या यह थी कि उनकी देख भाल कौन
करेगा?उनकी सभा में कहीं से भटक कर आया हुआ एक बूढा हाथी भी था।हाथी से उसकी कहानी
सुनने के बाद बल्लू हाथी को बच्चों की देखभाल की जिम्म्मेदारी सौंप दी गयी।और
बच्चों के रहने की जगह को “बल्लू हाथी का बालघर” नाम दिया गया।बल्लू हाथी
दिन भर बच्चों को कहानियां सुनाता,उन्हें खेल खिलाता,खाना देता और उन्हें गीत
सुनाता।इस नाटक में लेखक ने जगह-जगह जीवों और जंगल के प्रति मनुष्यों की क्रूरता
की भी बात उठायी है।तो दूसरी ओर बच्चों के कोमल मन और स्वभाव को भी बखूबी दर्शाया
है बच्चे चाहे मनुष्य के हों या फिर अन्य जीवों के सबका मन एक ही तरह कोमलता से
भरा होता है।यह बात नाटक में स्पष्ट हो जाती है जब बल्लू हाथी जानवरों की सभा में
उनसे बताता है कि किस तरह उसके महावत का बेटा उसके पास आकर उसकी सूंड सहलाता और
उसे प्यार से अपने खाने में से भी कुछ खिलाता था ।
संकलन का चौथे और पांचवें नाटक “चतुराई
का चमत्कार”और “सोचूराम” अपेक्षाकृत छोटे बाल नाटक हैं और इनमें भी बच्चों
के मनोरंजन और आनंद का पूरा ध्यान रखने के साथ उन्हें कुछ सीख भी दी गयी हैं।“चतुराई
का चमत्कार”एक सीधे साधे गरीब किसान भोलू और दो धूर्त ठगों की कहानी है जो
साधू का वेश धारण करके उसके पेड़ के सारे पके आम रोज तोड़ ले जाते हैं।बेचारा भोलू और उसकी पत्नी इमरती बहुत परेशान होते
हैं।ऐसे में एक व्यापारी उनसे एक रात के लिए घर में आश्रय मांगता है।और अगले दिन
सुबह भोलू के साथ जाकर उन ठगों की पोल खोल कर उनकी पिटाई भी करवाता है।जबकि “सोचूराम”एक
बहुत ही छोटा और एक बच्चे सुब्बू के मनोभावों को चित्रित करने वाला मजेदार नाटक
है।सुब्बू हर समय कुछ न कुछ सोचता ही रहता था।उसकी इस सोच को ही एक लड़की पात्र
“सोच”के रूप में बहुत ही कुशलता के साथ
प्रस्तुत किया गया है।नाटक के अंत में सोच
बताती है कि वह कोई परी या लड़की नहीं बल्कि सुब्बू के भीतर मन में हर वक्त चलने
वाली उठा पटक की ही प्रतिमूर्ति है जो उसकी दोस्त सोच बन कर आई है ।
दिविक
रमेश जी के इन पाँचों ही बाल नाटकों में कुछ ऐसे बिंदु या कहें तत्व हैं जो कि बाल
नाटकों के लिए बहुत ही आवश्यक और महत्वपूर्ण हैं।पहली बात है बाल मनोभावों की पकड़
और बच्चन को आनंदित करने वाला तत्व।पाँचों ही नाटकों की बुनावट ऎसी है कि हर दृश्य
के बाद बच्चों को मजा आएगा।दूसरा महत्वपूर्ण और जरूरी तत्व नाटकों के छोटे छोटे और
आसानी से मंच पर प्रस्तुत किये जाने वाले दृश्य।दृश्यों की संरचना ऎसी है कि
उन्हें नाट्य निर्देशक आसानी से मंच पर प्रस्तुत कर सकेगा और दृश्यों को बदलने में
भी ज्यादा भागदौड़ मेहनत बच्चों को नहीं करनी पड़ेगी।तीसरा महत्वपूर्ण बिंदु है
संवादों का छोटा छोटा और चुटीला होना।यह किसी भी बाल नाटक की प्रस्तुति का एक बहुत
महत्वपूर्ण बिंदु है।संवादों के छोटे रहने से बच्चों को उन्हें याद करने में आसानी
रहती है और प्रस्तुति के समय संवाद भूलने की असुविधा से बच्चे बचे रहते।चौथी और
सबसे महत्वपूर्ण खूबी इन नाटकों में गीति तत्व का मौजूद होना है जो कि बाल नाटकों
का एक महत्वपूर्ण अंग है।चूंकि दिविक जी मूलतः एक कवि हैं इसलिए उनके नाटकों में
भी जगह जगह संवादों में गीतात्मकता मौजूद है।बाल नाटकों में यदि गीत संगीत नहीं
रहेगा तो वो बच्चों को न ही आनंदित करेंगे न ही बांधे रहने में सक्षम होंगे।इन
खूबियों के साथ ही दिविक जी ने अपने इन नाटकों में बच्चों (खासकर बेटियों को)को
शिक्षित करने और बच्चों तक किसी न किसी माध्यम से अच्छी किताबें पहुंचाने
की(चतुराई का चमत्कार नाटक के अंत में) भी बात उठायी है।
इस बाल नाटक
संकलन को अपने खुबसूरत चित्रों से प्रसिद्द कार्टूनिस्ट इरशाद कप्तान ने सजाया
है।इरशाद कप्तान के चित्र निश्चित ही बच्चों को आकर्षित करेंगे ही साथ ही इनके
मंचन के समय सेट लगाने या दृश्यों को प्रस्तुत करने में नाट्य निर्देशक के लिए भी
सहायक होंगे।
कुल मिला कर हम कह सकते हैं कि दिविक जी के
नाटकों के इस संकलन का लाभ बच्चों के साथ ही बाल रंगमंच से जुड़े उन सभी
रंगकर्मियों को भी मिलेगा जिन्हें मंचन के लिए अच्छे बाल नाटकों की स्क्रिप्ट्स की
तलाश रहती है।
००००००
समीक्षक: हेमन्त कुमार
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