पिघला हुआ विद्रोह
शुक्रवार, 4 सितंबर 2015
सूरज धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था और बेमतलब शोर करते पीपल के पत्तों से छनकर आती
उसकी किरणें सीबू के शान्त चेहरे पर पड़ने लगी थीं।उसके गालों पर दोनों ओर से बह
आयी आँसू की टेढ़ी मेढ़ी लकीरें अब भी कुछ-कुछ गीली थीं।अपनी अधमुंदी पलकों से वह
एकटक आँगन के उस दरवाजे को देख रही थी जो एक उसके लिए छोड़कर शेष सब के लिए खुला
हुआ था।रसोई में अभी-अभी छौंकी गयी सब्जी
की महक उसके कल शाम से भूखे पेट के लिए बड़ी मोहक हो सकती थी मगर इस वक्त उसका
ध्यान उधर भी बिल्कुल न था।वह कुछ सोच भी नहीं रही थी।सोचती जरूर मगर उसे कभी किसी
बात के लिए सोचना नहीं पड़ा था।इसलिए उसकी सोचने की आदत न थी।एक घड़ी पहले जब माँ ने
कंधों के पास से दोनों हाथों को पकड़ कर उसे बुरी तरह झकझोरा था और फिर उसे दरवाजे
से बाहर कर दिया था तब अवश्य एक बार उसकी आँखों में बड़ी गहराई तक आंतक उतर आया
था।मगर इस वक्त वह एकदम सहज और निर्विकार लग रही थी।
माँ की खास शिकायत थी---सीबू
अब जिद्दी और बेकाबू होती जा रही है।उस पर माँ का रोब अब कत्तई नहीं रह गया है।उसके
कहने को वह अक्सर टाल जाती है।और उसे गुमराह करने में सब से बड़ा हाथ है पड़ोस के शान्ति
बाबू की उसी की हम उम्र लड़की पप्पी का।माँ ने कोई कोशिश बाकी न रखी कि पप्पी उसके
यहाँ न आये अथवा सीबू स्कूल जाते समय पप्पी को भी अपने साथ न ले-ले। अथवा दोनों
दोपहरी के एकान्त में चुपके से सड़क पर कदरे बीनने न पहुँच जायँ।मगर माँ की हर कोशिश
नाकामयाब हुई और इस नाजुक उम्र में ही सीबू उसकी आँख में किरकिरी बन गयी।
कल शाम छोटी लड़की ने
टट्टी की तो किसी काम में हाथ फ़ंसे होने की वजह से माँ ने सीबू से कहा कि वह उसे
कागज में उठाकर नीचे की नाली में फेंक दे।बस सीबू ने बगावत कर दी।उसने हाथ में
पकड़ी हुई किताब को और भी कस कर पकड़ लिया तथा आँखें अक्षरों पर और तेजी से दौड़ाने
लगी।माँ जितना ही चीखती गयीं सीबू के कान उतने ही बहरे होते गये।और तब माँ ने
गुस्से से उसके हाथ की किताब छीनकर दूर फेंक दी तथा उसे घसीटकर टट्टी के करीब ला
पटका।सीबू न चीखी, न रोई मगर उसने धीरे से टट्टी को उठाकर बारजे के नीचे गिरा दिया।टट्टी नाली
में न जा चबूतरे पर बिखर गयी।माँ अपेक्षा करती थीं कि सीबू ही अपनी इस गलती को ठीक
करे।वह नीचे जाकर टट्टी को नाली में गिराये और चबूतरे को भी साफ कर दे।मगर सीबू---
बाल नोचवाये जाने और चाँटे पर चाँटे खाये जाने के बावजूद वह अपनी जगह बुत बनी बैठी
रही।कई बार आँसू छलके और सूखे।उसने रात का भोजन भी नहीं लिया और यों ही सो गयी।
रात दफ्तर से लौटने पर
मुझे बताया गया।सीबू इस हद तक पहुँच सकती है मुझे यकीन नहीं हो रहा था।मगर पत्नी
कह रही थी इसलिए मानना पड़ा।चूँकि मैं अपने बच्चे को क्या मुहल्ले या कहीं के किसी
भी बच्चे को इतना खतरनाक नहीं मानता इसलिए बात मेरे भीतर जम नहीं रही थी।फिर सीबू
की तो बात ही और है।उसकी भोली आँखों में एक अजीब मासूमियत घुली रहती है।लगता है कि
जरा भी जोर से बोलो तो वे छलक पड़ेंगी।उसे कोई अलग से नहीं पढ़ाया फिर भी वह इतनी
तेज है कि इस साल उसे डबल प्रमोशन मिल गया।वह दो के बाद चौथे दरजे में कर दी गयी।उसी
सीबू के बारे में इतनी बातें सुनकर मन न
जाने कैसा हो उठा।
सुबह मैंने सीबू को अपने
पास बुलाया। मेरा सोचना सच था।उसका चेहरा हमेशा की तरह मासूम था।आँखों में बीती
हुई यातना के प्रति जैसे कोई शिकायत न थी।मैंने प्यार से उसके बालों को सहलाते हुए
पूछना शुरू किया, ‘कल शाम तूने यह क्या शरारत की है? सीबू, तू तो बहुत समझदार और अच्छी लड़की है,बोल?’
जबाब में वह खामोश फर्श की ओर टुकुर-टुकुर ताकती रही।
मैंने कंठ में दूना प्यार उडेलकर पूछा,‘कहीं माँ से भी जिद की जाती है?
माँ कितना प्यार
करती हैं तुझे! उसने एक काम करने के लिए कह दिया तो उसे तूने सुना क्यों नहीं?’
लेकिन सीबू निश्चल थी जैसे मेरी
बात उसके कानों में प्रविष्ट नहीं हो रही है।मुझे अचानक डर महसूस होने लगा कि कहीं
मेरा सोचना गलत न निकले।किसी भी अवस्था में सीबू के प्रति अपनी धारणा बदलने में
मुझे बेहद कष्ट होता।
मैंने अपनी आवाज भरसक
मुलायम ही रखते हुए पूछा,‘अपनी छोटी बहन की टट्टी तो तूने और भी कई बार फेंकी है।फिर
कल क्या बात हो गयी?चबूतरे पर से टट्टी को नीचे नाली में क्यों नहीं गिराया?’
सीबू बुत बन गयी।निःशब्द
और अकम्प।मुझे लगा कि मैं अपना धैर्य खो रहा हूं और उसके लिए मुझे काफी मानसिक
परिश्रम करना पड़ रहा है।फिर भी मैने उसके बालों को पहले की तरह सहलाते हुए अपनी
बात जारी रखी, ‘तू तो रानी बिटिया है न ! इस तरह की जिद नहीं करनी चाहिए।इस बार गलती से ऐसा
हो गया।अब आगे कभी इस तरह माँ की बात नहीं टालेगी न ?’
और सीबू एकदम खामोश !
मेरा धैर्य टूटने लगा।आवाज
में अनचाहे तल्खी आ गयी, ‘बोल, चुप क्यों है? मेरी बात का जबाव क्यों नहीं देती ?’
मगर सीबू बहरी हो गयी थी।
मेरी आवाज कठोर हो गयी,
‘मुँह में ताला
लगा रखा है क्या ? बोल, तो
कभी इस तरह की शरारत नहीं करेगी ?’
‘....................................................’
‘मैं पूछता हूं तू बहरी हो गयी है क्या ?’
‘.....................................................’
‘लगाऊँ दो हाथ !कल माँ से लड़ी और आज
मेरा सामना करने के लिए तैयार है!’
‘..................................................’
चट चट चट!मैंने उसकी कनपटी पर तीन चार तमाचे जड़ दिये।सीबू के चेहरे से मासूमियत
गायब हो चुकी थी।उसमें और गंदे नाले की पुलिया पर झगड़ने वाले बच्चों में कोई फर्क
न रह गया था।उसके गिरते हुए आँसुओं में मुझे किसी खतरनाक साजिश की बू आ रही थी।साफ
जाहिर हो गया कि अभी-अभी जो इमारत ढही है वह बालू की थी !
उसी समय पत्नी ने प्रवेश करके कहा,
‘मैं एक घंटे से
तुम्हारा नाटक देख रही थी।शायद तुम्हें सुबहा था कि सारा कसूर मेरा है, तुम्हारी बच्ची तो एकदम
दूध की धुली हुई है।अब तो खुल गयीं आँखे ?’
कहने के बाद जो गुस्सा
बचा उसे सीबू के दोनों हाथ पकड़कर घर से बाहर धकेलते हुए पूरा कर दिया।‘खबरदार, जो इस घर में पैर रखा।आज
मैं तुझे दिन भर भूखी रखूँगी।देखती हूं तू कब तक मेरा सामना करती है!’
और अब गरमी का सूरज काफी
ऊपर चढ़ आया है।सीबू पीपल के नीचे उसी तरह उकडूं होकर निश्चल लेटी हुई है।धूप पहले
से तेज हो गयी है और उसके गालों पर से आंसू की लकीरें शायद अब सूख चुकी हैं।
मैं आफिस जाने के लिए साइकिल
पर बैठता हुआ एक बार उस ओर देखता हूँ।पता नहीं किस कोने से एक इच्छा झांकने लगती
है--सीबू एक नजर मुझे देख लेती।मुझे भ्रम हुआ--शायद वह मुझे देख रहीं है! मगर नहीं,
उसकी पलकें अधमुंदी
हैं जिनके नीचे से वह केवल सामने के कुछ खुले दरवाजे में जाते आते पैरों को ही देख
सकती हैं।
मैं खाँसता हूँ, शायद उसे मेरे वहां खड़े
होने का अहसास हो जाय और अचानक उसकी पलकें कुछ और खुल जाएं।लेकिन उसकी समाधि की
अखंडता तो एक चुनौती बनी हुई है।और मैं पैडिल पर धीरे-धीरे पैर मारता हुआ आगे
बढ़ने लगता हूं।
पता नहीं कहां से सामने
रैक पर रखी हुई फाइल पर एक कीड़ा आ गिरा है।वह निश्चल है, जिन्दगी की कोई हरकत नहीं नजर
आती, जैसे
मुर्दा हो।अचानक वह कीड़ा धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है।वह एक लाल बूटों वाली फ्राक
पहन लेता है।उसकी अधमुंदी पलकों के नीचे से मटमैली सी कुछ पतली लकीरें बह निकलती हैं।
मैं अपनी दोनों कोहनियों
को थोड़ा झटकता हूं।वह फिर कीड़ा बन गया है और उसी तरह निश्चल पड़ा हुआ है।मैं
क्षण भर के लिए उस पर से अपनी आँखें हटाता हूँ कि पता नहीं किधर से एक छिपकली
निकलती है और उसक कीड़े को चट कर जाती है।मैं सिहर उठता हूँ।अपने चकराते हुए सिर
को दोनों हथेलियों में थामने को कोशिश करता हूं।यह क्या हो रहा है।
आज मैं कितना प्यासा हो
उठा हूं।गिलास पर गिलास खाली करता चल रह हूं।पर खुश्की खत्म होने का नाम नहीं ले
रही है।दिन काटे नहीं कट रहा है।सेकंड की सूइयाँ इतना सुस्त क्यों हो गयी हैं।लोग
कितना गलत कहते हैं कि वक्त बहुत तेजी से भागता है।
शाम घर पहुँचते ही पत्नी
खुशखबरी देती है, ‘सीबू अब फिर एक अच्छी लड़की बन गयी है।उसने अपनी गलती मान ली है और अपने कान पकड़
कर तीन बार कहा है कि अब ऐसी हरकत वह कभी नहीं करेगी।उसने मेरे और बड़े भइया के
पैर छुए हैं।’
मन पर से जैसे एक बड़ा
बोझ हट जाता है।सब कुछ इतने सहज ढंग से हो
जायेगा मैं सोच भी नहीं सकता था।
मै अपने कमरे में लौटने
को होता हूं कि पीछे से आकर सीबू मेरे पैर छू लेती है।मैं गदगद हो उठता हूं।और प्यार
से उसका चेहरा ऊपर उठता हूं।
मगर यह क्या है!मैं उसका
चेहरा देखकर कांप उठता हूं।मैं यह नहीं चाहता।मुझे तो पीपल के नीचे लेटी हुई अपनी
वही सीबू चाहिए। धूप की तेजी से जिसके दोनों गाल तमतमा आये हों और
जिन पर फैली हुई आंसुओं की लकीरें मुझे खामोशी के साथ आवाज देती हों।नहीं, सीबू की माँ, तुम्हें धोखा हुआ है।तुमने आज एक
बड़ी कीमती चीज खो दी और तुम्हें उसका जरा भी अहसास नहीं है।
मैं सीबू के शान्त चेहरे
को अपनी काँपती उँगलियों से सहलाता हुआ पीड़ा से कराह उठता हूँ।
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लेखक—
प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने
के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा
विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे संलग्न।देश
की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना,प्रसाद,ज्ञानोदय,साप्ताहिक
हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी,नई कहानी,विशाल भारत, आदि में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों,रूपकों
के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र
से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक
पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।“वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा
पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म
लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का तारा”आदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा
विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के
आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र आज 86 वर्ष की उम्र में भी जारी है। अभी हाल में ही
नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यास “मौत के
चंगुल में” प्रकाशित।
सम्पर्क---
प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
mobile---07376627886
3 टिप्पणियाँ:
अनुपम ..............
.. सीबू जैसे बच्चो को समझाना कतई सरल नहीं होता ... कहानी मुझे जैसे अपनी से लगी ... मैं भी बच्चों को बहुत प्यार से समझाती हूँ लेकिन बच्चे सब्र की इंतहा कर देते हैं तो दो चार लपाडे पड़ ही जाते हैं ..बाद में उनका रोना सुबकना चलता रहता है .. बहुत सोचती हूँ की आगे से हाथ नहीं उठाऊंगी लेकिन कभी कभार नौबत आ ही जाती हैं ..आजकल के बच्चे बहुत जिद्दी लगते हैं ... दूसरों के बच्चों को समझाना आसान लगता है मुझे लेकिन अपने बच्चों को ..टेढ़ी खीर ....
प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी की कहानी "पिघला हुआ विद्रोह" मर्म को छू गयी ...
प्रस्तुति हेतु आपका आभार!
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