निवेदिता मिश्र झा की कविताएं।
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015
तुम
पहचानते हो
बेला,जूही,कचनार
या
सखुए की डाली
देवदार,चीड़
तो दूर की बात…।
चलो
नेट में ढूंढते हैं
गूगल
सही बताता है बात।
ये
है तुम्हारा या मेरा हाल
निहारते
हम दूर आकाश
तरसती
दरार पड़ी धरती
रिसता
रहा मन…।
कहीं
हरा सा,सूखा कहीं
कारण
तुम और मैं
स्वयं
को तराशने में लगे
काटो
वृक्ष
गर्मी
में ढूंढते ठंढ
पूरा
विश्व…।
जूझता
सा हर ओर,मन विह्वल
कहां
से आए वो नजराना
तुमने
सुना सिसकियों की आवाज़?
रोते
जानवर,कराहता पेड़
महलों
से निकल सड़क पर आओ
वृक्ष
बचाओ।
000
भाई
ये नहीं है मात्र
धागा
रक्षा सूत्र
द्रौपदी कृष्ण
हुमायूँ कर्णवती
के उदाहरण को
करता ही तो है
सार्थकता प्रदान
आज नहीं देना २१ या ५०१ नेग
देना सरहद पर खड़े प्रहरियों की तरह
हिमालय की तरह
थोड़ी सी महँगी है
बात,,,,
शहर में खिलखिलाती
वो मासूम बेटियाँ
प्यारी सी हैं
कोई दुर्घटना
नहीं नहीं---नहीं
वो भी बहन है
और बाँधा होगा उसने भी
किसी कलाई पर मेरी
तरह
राखी
पवित्रता क़ायम
रहे
आश्वासन या नेग
जो भी समझो या निवेदन।
000
प्रेम
इकतरफ़ा प्रेम
निरन्तर मन की
गतिशीलता
समय,उम्र ,तप,मर्यादा से अनजान
मात्र अपनी ही
मनमानी है
अनायास
मृत्यु को बुलाना,
उड़ान भरने में
नैतिकता को परे हटाना
चूप्पी की घोर
अन्तरंग अव्यवस्था
छोड़ो इन बातों को
प्रेम तो प्रेम है
माथे पर की लकीर या....
हाथ पर की वो आड़ी
तिरछी
दोष किसको
प्रेम एक बार ही
होता है
क़िस्मत वाले को
ही मिल पाता है
अपना ......
वैसे शहर में शायद
कई बार होता है
कितने को
मगर इकतरफ़ा नहीं
होता---।
000
वो चर्च
मेरी भीड़ वाली उस
गली के बाद था
वो चर्च
अकेला मानों भीड़
से नाराज़गी
दीवारों पर
सान्तवना के शब्द
मगर मौन
रविवार के बाद का
दिन मेरा
कई मुरादें ,प्रार्थना से व्यस्त
मगर दूसरे दिन वही
सीढ़ियाँ
और मेरे छूटते
बचपन की दूर जाने की जिद्द !
मेरे एकतरफे प्रेम
का मात्र वही गवाह
पत्थर बोलते हैं
हँसाते हैं
आज जाना चाहती हूँ
मेरे छुपाए बातों
की अवधि ख़त्म है
शायद
पादरी बदलें होगें
मगर स्वप्न में
पुराने दोस्त नें बताया
जीर्णोद्धार होने
को है
मिल आऊँ
क्योंकि अब
उम्र ने फिर बढ़ने
की जिद्द की है
ले आँऊ वो पोटली,
जो उसके पास है !
000000
कवियत्री---
निवेदिता मिश्र झा
सम्प्रति – दिल्ली में निवास।पत्रकार व काउन्सलर।तीन पुस्तक
प्रकाशित,चार साझा संग्रह।नीरा मेरी माँ है ,मैं नदी हूँ, देवदार के आँसू ।
मोबाइल--9811783898
8 टिप्पणियाँ:
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल रविवार (12-04-2015) को "झिलमिल करतीं सूर्य रश्मियाँ.." {चर्चा - 1945} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
achchhee rachnaa hai
सुन्दर रचनाएँ
सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर और सार्थक...
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
शुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
Nice Article sir, Keep Going on... I am really impressed by read this. Thanks for sharing with us.. Happy Independence Day 2015, Latest Government Jobs.Top 10 Website
सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं। बहुत सुंदर प्रस्तुति।
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