बचपन के दिन-(1) वह दालमोट की चोरी और बेंत की पिटाई----
मंगलवार, 7 अप्रैल 2015
अब वो मजेदार घटना।हम सभी नगर महा पालिका के
स्कूलों में पढ़े हुये हैं।इलाहाबाद के मम्फ़ोर्डगंज मुहल्ले में हम रहते थे।मुश्किल
से दो सौ मीटर की दूरी पर मेरा स्कूल था।मेरा दखिला मेरी काबिलियत को देख कर सीधे
दर्जा चार में हुआ था।तिमाही परीक्षा के समय की घटना है।गणित का पर्चा था---और वो
भी पहले दिन।मैं गणित में वैसे ही
कमजोर(फ़िसड्डी)था।चूंकि गांव से शहर आये हम लोगों को बमुश्किल तीन चार माह बीते
थे।इसलिये मैं ठहरा निपट गंवई गंवार।स्कूल में परीक्षा में सही उत्तर लिखने हैं ये
बात तो मुझे मेरी अम्मा और भाई( अपने पिता जी
को हम लोग बुआ की देखा देखी भाई कहते थे।)ने अच्छी तरह समझाया था।पर उसके
बाद क्या करना होता है ये मुझे नहीं बताया गया था।नतीजतन ---जैसे ही अंकगणित का
परचा खतम हुआ और छुट्टी की घण्टी बजी।मैं
बिना रुके और ये जाने कि बाकी बच्चे क्या कर रहे---अपनी कापी और परचा लेकर
घर भाग आया।
थोड़ी देर बाद ही मेरे भाई साहब भी आ गये।पिता
जी भी।और मेरे हाथों में कापी परचा देख कर दोनों दंग----।अब सोच लीजिये ऐसी स्थिति
में क्या होना चाहिये।मार तो नहीं हां डांट जरूर पड़ी।बड़े भाई साहब,पिता जी और
अम्मा तीनों की। फ़िर भाई साहब वापस स्कूल गये और मेरी कापी जमा करके आये।खैर गनीमत
थी कि कापी ले ली गयी।हमारे पिता जी का उस स्कूल में बहुत सम्मान था---क्योंकि
वहां का हर अध्यापक मेरे पिता जी की लिखी कहानियों को अखबारों,पत्रिकाओं में पढ़ता
था।
दूसरी
घटना और मजेदार।हमारे स्कूल में तब संगीत की भी कक्षा सभी के लिये होती थी और
उसमें संगीत के एक मास्टर साहब हमें भजन ही गाना सिखाते थे।शायद उन्हें भजन के
अलावा कुछ आता भी नहीं था।उनका गेट-अप—एक सफ़ेद कुर्ता पायजामा(शायद 15 दिनों में
धुलने वाला),एक हाथ में बेंत,दूसरे में एक चीकट सा थैला। जिसमें चने की दालमोठ
रहती थी।मास्टर जी रोज आते---अपनी बेंत,कुर्सी के सहारे टिकाते,दालमोट का झोला
कुर्सी के हत्थे पर टांगते,और अपनी आलमारी से हारमोनियम निकाल मेज पर रखते,कुर्सी
पर बैठते और दो मिनट बाद ही उनकी नाक कई तरह के ड्रम और भोंपू बजाने लगती।और हम
जुट जाते उनकी दालमोट पर हाथ साफ़ करने में।पर उतनी ही निकालते कि उन्हें पता न
लगे।बीच में जब उनकी नींद टूटती वो भी चने की दालमोट की एक फ़ंकी मारते और चबाते
हुये हरमोनियम के सुर मिलाने लगते और फ़िर वही खर्राटे।
एक दिन दालमोट निकालने का नम्बर मेरा।मैं
चुपके से उनके पास पहुंचा—उनकी नाक बज रही थी –आंखें बंद।बस मैंने धीरे से दालमोट
की एक मुट्ठी भरी और पीछे घूमा---अचानक मेरे मन में लालच समायी—चल बेटा एक मुट्ठी
और ले ले---बस यही लालच थी जिसने मुझे रंगे हाथों पकड़वाया।मैं उनके थैले की तरफ़
हाथ बढ़ा ही रहा था कि चटाक---और मेरा गाल झनझना उठा।---फ़िर तो मुझे याद भी नहीं
कितनी बेंत पड़ी मुझे ---बस मैं हाथों पर उन्हे रोक रहा था चीख रहा था---और मास्टर
जी का चीखना सुन रहा था---चोट्टे—बदमाश दालमोट चुरा कर खा रहा था।और आप यकीन
मानिये कोई भी लड़का उस संकट की घड़ी में मेरी रक्षा करने नहीं आया।बस तबसे मैंने
कसम खायी कि किसी के उकसाने पर कोई काम नहीं करूंगा।बस वही करूंगा जो मेरी
आत्मा,मन,दिल कहेगा।और मेरी ये कसम आज भी टूटी नहीं है।
00000
डा0 हेमन्त कुमार
1 टिप्पणियाँ:
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (10-04-2015) को "अरमान एक हँसी सौ अफ़साने" {चर्चा - 1943} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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