भयाक्रांत
शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
पुतलियों में
अब नहीं होती
कोई हलचल
सतरंगे गुब्बारों
और लाल पन्नी वाले
चश्मों को देखकर।
नहीं फ़ड़कते हैं अब
उसके होंठ
बांसुरी बजाने के लिये
नहीं मचलती हैं उसकी उंगलियां
रंगीन तितलियों के मखमली स्पर्श
को महसूस करने के लिये।
उसके पांवों में
नहीं होती है कोई हलचल
अब
गली में मदारी की
डुगडुगी की आवाज सुनकर
नहीं उठती है उसकी गुलेल
कच्ची अमियों पर निशाना
लगाने के लिये।
पिछ्ले कुछ दिनों से
उसकी आंखों में
जम गया है खून
होठों पर लग गया है ताला
लग गयी है जंग
हाथों और पांवों में।
जबसे उसने देखा है
अपने गांव की कच्ची गलियों में
फ़ौलादी मोटरों की कवायद
सगीनों की चमक
और बारूद के धमाकों के बीच
अपनी बूढ़ी दादी और बड़ी बहन
की लाशों को
खाकी वर्दी द्वारा
घसीटे जाते हुये।
0000000
हेमन्त कुमार
10 टिप्पणियाँ:
Jab rachana padhke dil aatank me doob gaya to jis pe guzarti hogi uska haal kya bayan ho sakta hai?
बहुत सुंदर कविता है आपकी।
पर शायद हम सब भी जिम्मेदार हैं ऐसी स्थितियों अतः लिखने के साथ हमे कुछ करने की आवश्यकता है।
रेखा पाण्डेय
मार्मिक संवेदना।
बहुत ही मार्मिक .... ऐसे दृश्य के बाद किसकी हलचल बाकी रहेगी .... भयभीत करती हैं ये कहानियाँ ....
बहुत सुन्दर कविता..पर मार्मिक भी.
सुन्दर
बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती रचना।
बहुत सुन्दर रचना है!
--
आपकी पोस्ट की चर्चा तो यहाँ भी है!
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http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/09/18.html
गहरी साँस छोड़ने को मजबूर करती रचना....
सजीव चित्रण!
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