महुअरिया की गंध
गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009
कमलेश्वर के हाथ में पेग देख मानिक चुप न रह सका—‘हम गंवई गांव का मानुस है मालिक। यह लाल रंग देखकर हमें अपने गांव का कमल ताल याद होइ आय रहा है।ऊ लाल लाल कमल ला फ़ूल,पुरवा के हिलोर पर उनका नाचना। जैसे ऊ ललाई ई बोतल में आय के बंद होय गई है।मालिक,अब गांव नाहीं चलेंगे कभी?’
कमलेश्वर के मन को जैसे किसी वासंती पवन ने छू लिया।गौरा उनका अपना वह गांव।उन्होने एक उसांस भरी। पर तभी भीतर एक तल्खापन सा भर उठा।वे बोले--- ‘हां रे, बहुत पहले गया हूं। लेकिन अब वह गौरा कहां रहा।क्या है अब वहां?क्या अब भी वैसे कमल खिलते होंगे?क्या अब भी शाम पानी में पांव लटकाये लोगों की शोख और चुलबुली हंसी गूंजती होगी?नहीं नऽब तो दुपहरिया में ताल की सूखी दरारों पर धूल का बवंडर उठता होगा।क्यों,उसी गौरा की बात कर रहा है न तू?’
लेकिन मानिक का विश्वास कहां मुरझाने वाला था।वैसे ही बोला---‘हां,वही अपना गांव मालिक।गौरा अब भी वही है।गौरा करमा के तीरे बसा है। आज करमा सूख रही है तो का उसका नाम भी बदल जायेगा? ऊ नदी नहीं कहायेगी?कमलताल की छाती भले ही दरक गई होय।लेकिन ऊ आज भी आपका रक्तबरनी अगवानी करेगा।’
कमलेश्वर मुस्करा कर बोले ---‘रक्तबरनी? अरे,तू तो कविता की भाषा बोलने लगा रे मनिकवा ।’
मानिक का पीला चेहरा अचानक जैसे कमल की ललाई से रक्ताभ हो आया।वह उत्साह से बोला ---‘खून का रंग लाल होता है ना। इसीलिये देवी देउता से भी खून का रिश्ता जोड़ने के लिये उहां का मानुस आज भी चौरा पर लाल चूनर,पताका,सेंधुर और गुड़हल का फ़ूल चढ़ाता है।महावीर जी के एंगुर टीपता है।’
‘और बदले में देवता क्या देते हैं?सूखा,अकाल,बीमारी,गरीबी।क्यों?’कमलेश्वर ने एक हल्की सी चिकोटी काटी।
मानिक निरुत्तर नहीं हुआ—‘वहां की धरती ई कहां देखती है मालिक।पानी बरसे न बरसे।बवंडर चले,चिनगारी उड़ें।तब भी ऊ धरती के करेजे पर पलाश का लाल फ़ूल खिल उठता है।रक्तबरन चादर ओढ़ लेता है पलाश वन। का आप ऊ रंग से धरती आकाश एक होत नाहीं देखे हैं।फ़िर आप गौरा काहे नहीं चलना चाह रहे हैं?मालिक,बोतल में भरा ई लाल रंग आपके करेजा का सत निचोड़ लेगा।मालकिन को नाहीं देख रहे हैं आप्।कौन सुख नाहीं है घर में ?लेकिन सूख के कंकाल होय रही हैं।बबुआ ऐसन नौकरी में है कि हवाई जहाज से सफ़र करत है।बहूरानी ऊनी वरसीटी में प्रोफ़ेसर हैं।मगर दूनों जन छटपटाय रहे हैं।कौन तकलीफ़ है।’
मानिक छोटा थ तभी से इस घर में है।इसी से वह इतना मुखर हो उठता है।पर कैसे बतायें कमलेश्वर कि आज भी वे कमलेश्वर प्रसाद सिंह हैं,लोक सेवा आयोग के रिटायर्ड चेयरमैन्।इस दंभ ने ही उनकी पूरी जिन्दगी को आपाधापी से भर दिया।उनके अपनों के लिये वक्त को छीन लीया।कार,कोठी,बागीचा ,नौकर चाकरपने इर्द गिर्द इतना हुजूम बटोरकर भी उन्होंने खुद पत्नी अमला में इतना एकाकीपन भर दिया कि वह निरीह होकर टूटती चली गई।बेटा भूपेश आई ए एस आफ़िसर,बहू प्राची पी एच डी प्रोफ़ेसर।पर सब एक दूसरे से अलग थलग होते चले गये ।नहीं रोक पाये वे बढ़ती हुयी दूरियों को।
शायद कभी इन्हीं सुख सुविधाओं का जिक्र आने पर अमला ने ही कह दिया था---‘ये सब डाक्टरी फ़ार्मूले हैं कमल। तुमने मेरे ऊपर,बहू बेटे पर इसे आजमाया।लेकिन हर घाव की दवा मलहम नहीं होती। अब तो इच्छा होती है कि एयरकन्डीशनर को बन्द करके पागल हवाओं के बीच निकल जाऊं।तुम कहते हो यह वक्त का सैलाब है।इसे रोकने के लिये कोई आकाश से नहीं उतरेगा।’
छटपटाहट से थोड़ा उबरे तो सहसा कमलेश्वर को याद आया—अरे ,आज तो बहू बेटे की शादी की सालगिरह है।पर जश्न या मातम? क्या मनायेंगे वे? बेटा सबेरे की फ़्लाइट पकड़कर बाहर जा चुका है।बहू एक जरूरी मीटिंग अटेण्ड करने यूनिवर्सिटी चली गयी।देर रात लौटेगी।कौन काटेगा केक? क्या जवाब देंगे वे मेहमानों को?मन के एक कोने से उनके दंभ ने फ़िर सिर उठाया। किसी के चले जाने से कोई काम नहीं रुकने वालाऽअफ़िसर्स के छुट्टी पर होने पर भी उन्होंने अकेले इतना बड़ा आफ़िस चलाया है। मगर मन के दूसरे कोने से आवाज उठी—यह आफ़िस नहीं घर है।रिश्तों का नाजुक बन्धन्। जिसके हर कसाव को तुम ढीला करते चले आये।दंभ की खोखली दीवार को और संभालना उसके लिये मुश्किल हो गया।
उन्होंने बड़े असहाय भाव से मानिक को सब बताया। पूरा कार्यक्रम रद्द करने के लिये कहा । मानिक क्षण भर उनकी आंखों में झांक कर बोला—‘आप का कह
रहे हैं मालिक ?घर में एक भी जन रहता है तब भी तुलसी के बिरवा तर संझौती की दिया बाती होती है ।मंदिर का कपाट नाहीं खुला होता तब भी लोगों का हाथ जुड़ता है ।
सच है कि नाहीं ? उठिये, यह संझौती की बेला है।
(शेष अगले भाग में)
हेमन्त कुमार द्वारा प्रकाशित।