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गीतांजलि गिरवाल की कविताएं

शुक्रवार, 26 मई 2017

(युवा रंगकर्मी और कवयित्री गीतांजलि गिरवाल  की कविताओं में एक आग है।आज की  नारी के प्रति वो हमेशा चिंतित रहती हैं।नारी के ऊपर सदियों से पुरुष प्रधान समाज द्वारा जो अत्याचार हो रहे हैं वो उनके अन्तः को उद्वेलित करते हैं और तीक्ष्ण धारदार शब्दों का आकार लेकर एक कविता का रूप लेते हैं।उन्हीं कविताओं में से आज दो कविताएं  आप सभी के लिए ।)         
(1)
भद्र-पुरुष 
कैसे तौलते हो तुम एक नारी को 
ओ भद्र पुरुष

उसके शरीर के भूगोल से 
कि उसके उन्नत उरोजों से
कि गुलाबी गाल या सुनहरे
या काले बालों से
या फिर उसकी लहराती चाल से
क्या पहचान है तुम्हारी आँखों में 
एक नारी की
ओ भद्र पुरुष

उसका सधा गठीला बदन
जो मात्र भोग्या बन तुम्हारी 
कामोत्तेजना को बढ़ा सके
या फिर ये देखते हो कि सब कुछ सह कर
भी वो मुँह ना खोले
सदा चेहरे पर चिरपरिचित मुस्कान
के साथ सुबह से शाम मजदूरी करती रहे
क्या चाहते हो तुम एक नारी से
ओ भद्र पुरूष

तुम्हारा गुणगान गाते रहना
तुम्हारे हर अत्याचार के बाद भी चुप रहना
पैसो के लिए सदा तुम्हारी कृपा पात्र बनना
"
औरतो में दिमाग कहा होता है"
ये सुन सुन कर जीवन बिताना
या तुम्हारे बच्चो की माँ बन
जीवन भर अपनी पहचान को 
तरसना
या फिर अपने मूल्यों से समझौता कर 
समय से पहले मर जाना
इससे आगे कभी जान पाए हो किसी नारी को
ओ भद्र पुरुष

बिस्तर की सलवटों के कभी ऊपर उठ पाये हो
कोशिश की है कभी उसके दिमाग को पढने की
बिना किसी शर्त के उसे बराबर से खड़ा करने की
या फिर अपने पैरों के तले कुचले उसके अस्तित्व को उठाने की
क्या कभी तुमने नारी को नारी की तरह पूरे  सम्मान से देखा है
ओ भद्र पुरुष
०००
(2)
जात 
एक औरत सिर्फ़ एक औरत होती है
ना वो हिन्दू होती है, ना वो मुस्लिम होती है
ना वो सिख होती है, ना वो ईसाई होती है

जब वो चोट खाती है अपनी छाती पर
तब वो चोट औरत की छाती पर नहीं,
पूरी औरत जात पर  लगती है
होता है दर्द एक सा, सभी औरतों का
सिसकती हैं  सभी एक ही तरह
उसमे कोई रंग नहीं होता सियासत का

बच्चा जनने वाली एक औरत ही होती है
जो बनती है औरत से माँ 
गुज़रते दर्द को सह कर एक इंसान का बच्चा जनती है
निःशब्द देखती रहती है तब भी
जब बच्चा रंग दिया जाता है
मज़हब और सियासत के रंग में
उसकी कोई जात नहीं होती 
उसे बाँट दिया जाता है कई टुकड़ो में

वो बंटती चली आ रही है सदियों से
और बंटती चली जायेगी अनंत तक
कभी हिन्दू बन कर, कभी मुस्लिम बन कर,
कभी सिख बन कर, तो कभी ईसाई बन कर
सिर मुंडवाने, दूजे घर बैठाने, चिता में जलाने,
तीन तलाकों से जो गुजरती है 
वो भी औरत ही होती है

कोठो पर जो बिकती है वो भी औरत ही होती है
बलात्कार का दंश जो सहती है वो औरत ही होती है
इस रंग बदलती दुनिया में,
एक औरत सहती है, मरती है, रहती है,
बनती है और बिगड़ती है

जब एक मर्द अत्याचारी होता है
तो वो मात्र अत्याचार का चेहरा होता है
ना वो हिन्दू होता है, ना वो मुस्लिम होता है
ना वो सिख होता है, ना वो ईसाई होता है
तब एक मर्द केवल एक मर्द होता है
और एक औरत केवल एक औरत होती है
0000
कवयित्री
गीतांजलि गिरवाल

युवा कवयित्री गीतांजलि 15 सालों से रंगमंच में अभिनय और निर्देशन में सक्रिय । कालेज में पढाई के समय से ही साहित्य के प्रति रुझान था तभी से लेखन में सक्रिय।ये हमेशा नारी की समस्याओं उनके जीवन उनके हालातों की चिंता करती हैं।और नारी मन के हर भाव,अंतर्द्वंद्व और दर्द को शब्द देने की कोशिश में संलग्न हैं ।     

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