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पिता होने का मतलब-----

रविवार, 21 जून 2015

यह लेख मैंने 2011 में हिन्दी के प्रतिष्ठित अखबार "जनसन्देश टाइम्स" की कवर स्टोरी के रूप में  लिखा था। आज पितृ दिवस के उपलक्ष्य में इसे पुनः प्रकाशित कर रहा हूं।
पिता होने का मतलब-----
 पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता हि परमम तपः।
पितृ प्रतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवताः॥
             अर्थात पिता स्वर्ग हैं,पिता ही धर्म हैं,पिता ही सबसे बड़ी तपस्या हैं।यदि हम अपने पिता को खुश और सन्तुष्ट रखेंगे तो सभी देवता भी हमसे सन्तुष्ट और प्रसन्न रहेंगे।
     फ़ादर्स डे यानि पितृ दिवस इस दिन को पूरी दुनिया में लोग अपने पिता या पिता समान अन्य व्यक्तियों को उचित सम्मान देने के लिये यह दिवस मनाते रहे हैं। इस दिन बच्चे अपने पापा,डैड,बाबू जी के लिये तरह तरह के उपहार ले कर उन्हें देते हैं ताकि वो प्रसन्न रहें।गर्व महसूस करें।खुद को सम्मानित महसूस करें।यह दिन बहुत महत्वपूर्ण है।बच्चों के लिये भी और सभी पिताओं के लिये भी।खास बात यह भी है कि फ़ादर्स डे यानि पितृ दिवस  या पिताओं को सम्मान देने का यह दिन मनाते हुये 104 वर्ष पूरे हो गये।लेकिन हममें से बहुत कम लोग ही फ़ादर्स डे के इतिहास या इसके पीछे छिपी कहानी को जानते होंगे।
                       दअस्ल फ़ादर्स डे की शुरुआत वाशिंगटन के स्पोकेन शहर की एक महिलाने की थी।सोनोरा स्मार्ट डोड नाम की इस महिला के दिमाग में पहली बार यह बात
1909 में आई।सोनोरा की मां की मृत्यु जब सोनोरा 16 साल की थी तभी हो गई।ऐसे
में उसके पिता ही उसके लिये सब कुछ थे।वह अपने पिता से ही हमेशा बातचीत करती। 1909में सोनोरा को लगा कि उसके पिता उसके जीवन के लिये कितने विशेष हैं।वो उसके पिता ही थे जिन्होंने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी बेटी का जीवन संवारने के लिये ही जीवन में कितने समझौते किये,ढेरों कष्ट उठाये,रातों की नींद हराम की।सिर्फ़ अपनी प्यारी बेटी सोनोरा के लिये।जब पिता ने अपनी बेटी के लिये इतना कुछ किया तो बेटी ने भी अपने जीवन में पिता के महत्व और भूमिका को महसूस किया।
                 चूंकि सोनोरा के पिता का जन्म जून माह में ही हुआ था इसीलिये सोनोरा ने स्पोकेन,वाशिंगटन में ही पहला फ़ादर्स डे 19जून1910 को मनाने का फ़ैसला किया।लगभग उसी समय अमेरिका के कई अन्य क्षेत्रों और राज्यों में भी फ़ादर्स डे मनाने की शुरुआत हुयी।इसके लगभग 14 सालों के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति काल्विन कोलीज(Calvin Coolidge) ने 1924 में हर जून के तीसरे रविवार को फ़ादर्स डे मनाने की विधिवत घोषणा की।और धीरे धीरे यह पितृ दिवस पूरे विश्व में मनाया जाने लगा।
                अगर हम अपने देश भारत के सन्दर्भ में पितृ दिवस मनाने की बात करें तो हमें यहां के इतिहास और सामाजिक परिवेश,सामाजिक संरचना को समझना होगा।वैदिक काल से ही हमारे समाज का आधार परिवार था।यह परिवार उस समय पितृसत्तात्मक यानि कि पिता के प्रभुत्व वाले होते थे।यही पितृसत्तात्मक परिवार हमारे यहां ही नहीं पूरे विश्व में आज भी हैं।वैदिक काल में परिवार का मुखिया पिता होता था। पिता के अधिकार असीमित थे। परिवार के किसी भी सदस्य को किसी भी गलती पर दण्ड देना उसके अधिकार में था।ॠगवेद में कहीं पर ऐसा भी उल्लेख है कि एक पिता ने अपने बेटे की किसी गलती पर उसे अंधा तक कर दिया था। वरुण सूक्त के शुनःशेष के आख्यान से भी कुछ ऐसा ही निष्कर्ष निकलता है कि कोई पिता अपने पुत्र को आवश्यकता पड़ने पर बेच भी सकता था।उत्तर वैदिक काल की बात करें तो ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि अजीर्गत ने अपने पुत्र को 100 गायें लेकर बलि के लिये बेच दिया था।इसी तरह महामुनि विश्वामित्र ने भी अपने 50 पुत्रों को आज्ञा न मानने के कारण घर से निकाल दिया था।
                लेकिन ये सारे उदाहरण अपवाद और परिस्थिति विशेष में लिये गये निर्णय थे।इनके आधार पर हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि पिता उस समय अपने बच्चों से प्रेम नहीं करता था।बल्कि ये उदाहरण मैंने यह बात स्पष्ट करने के लिये दिए हैं कि प्राचीन काल से ही हमारा समाज पितृसत्तात्मक रहा है।जहां पिता ही सर्वोपरि होता था।पूरे कुनबे के ऊपर उसी का एक छत्र शासन रहता था।लेकिन इसी के साथ ही पूरे परिवार बेटे,बेटी,पत्नी,मां-बाप सभी को पालने पोसने,सबके भरण पोषण,सुरक्षा की जिम्मेदारी भी पिता की होती थी।जहां पिता के ऊपर इतनी सारी जिम्मेदारियाँ थीं तो उसे दण्ड देने का अधिकार मिलना स्वाभाविक ही था। लेकिन उसी इतिहास के एक उदाहरण से यह बात भी साफ़ हो जाती है कि किसी पिता के अन्दर अपने पुत्र के लिये कितना अधिक स्नेह और प्यार होता था।आप बाबर और हुमायूं को याद करिये।जब हुमायूं भयंकर रूप से बीमार पड़ा और उसके जीवित बचने की कोई उम्मीद नहीं थी।ऐसे में बाबर हुमायूं की पलंग के 13चक्कर लगाकर ईश्वर से प्रार्थना करके खुद बीमार हो गया और हुमायूं स्वस्थ हो गया।यद्यपि वैज्ञानिक दृष्टि से यह बात सही नहीं मानी जा सकती लेकिन यदि हम मूल्यों और मानवीय प्रेम की दृष्टि से इस घटना को देखें तो बाबर के दिल में हुमायूं के प्रति उसके असीमित प्यार और ममत्व की झलक साफ़ दिखाई देगी।
      इतना ही नहीं यह घटना इस बात को भी पुष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि पिता किसी परिवार के लिये सिर्फ़ एक कठोर शासक ही नहीं होता बल्कि उस की हर विपत्ति को रोकने वाले छत्र का भी काम करता है।
            यह तो हुई बात फ़ादर्स डे की शुरुआत,हमारे पितृसत्तात्मक समाज और
पारिवारिक ढांचे की।अब विचारणीय मुद्दा यह है कि जिस पित्तृसत्तात्मक समाज में हम आज भी रह रहे हैं वहां फ़ादर्स डे मनाने का औचित्य क्या है?इस बात का सीधा जवाब है कि इसका औचित्य है।और इसके पीछे बहुत सारे कारण हैं।ये कारण भी बहुत साफ़ और स्पष्ट हैं।
          हमारी बदलती हुयी सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियां और उनके प्रभाव से बदलते जा रहे जीवन मूल्य।इसे अगर हम थोड़ा सरल ढग से कहें तो
पहले के समाज में पिता धन कमाकर लाता था।परिवार चलाता था।और मां के ऊपर बच्चों की देखभाल,उसके विकास,शिक्षा दीक्षा,बीमारी आरामी,पालन पोषण हर चीज की जिम्मेदारियाँ थीं।जबकि आज ऐसा नहीं है हमारे समाज की स्त्रियॉ भी आज घरों की चहारदीवारी से बाहर निकल चुकी हैं।वह भी विकास के हर कार्य में पुरुषों के साथ चल रही हैं। ऐसे में परिवार में दोनों की जिम्मेदारियों में भी बदलाव आना स्वाभाविक है। अब परिवार को चलाने वाला सिर्फ़ पिता ही नहीं मां भी है।जो पिता के हर कार्य में सहयोगी की भूमिका निभा रही  है।और इन दोनों के कार्यों और जिम्मेदारियों का असर बच्चों पर भी आना स्वाभाविक है।
           इसका असर परिवार के बच्चों पर कहीं पाज़िटिव पड़ रहा है तो कहीं नेगेटिव।पाज़िटिव मतलब सीधे शब्दों में कहें तो बच्चे अच्छे बन रहे हैं।नेगेटिव का मतलब बच्चे बिगड़ रहे हैं। जहाँ असर पाज़िटिव है वहाँ तो सब ठीक ठाक है।लेकिन जहां माँ बाप दोनों के बाहर निकलने से बच्चे बिगड़ रहे है वहाँ परिवार में थोड़े बिखराव की हालत भी पैदा हो रही है।और हमें इस बिखराव को रोकना पड़ेगा। इसके लिये माँ तो पूरी तरह कमर कस कर हर मोर्चे पर तैयार है। लेकिन पिता…पिता शायद आज भी वैदिक काल से चले आ रहे अपने वजूद को छोड़ना नहीं चाहता।लेकिन पिताओं को भी ऐसा करना ही होगा परिवार के हित में।अन्यथा परिवार का ढांचा भौतिकता और आर्थिक विकास की दौड़ में कभी भी ढह सकता है। शायद 1910 में अमेरिका की सोनोरा ने सोचा भी नहीं होगा कि जिस फ़ादर्स डे का आयोजन उसने अपने भावुक,सज्जन और सहृदय पिता के जन्मदिवस पर किया था वह किसी समय पूरे समाज की ज़रूरत बन जायेगा।
           आज के बदलते परिवेश और समय में हमें परिवार रथ के दो मुख्य पहियों- पिता और माँ की भूमिका और ज़िम्मेदारियों का फ़िर से मूल्यांकन करने की ज़रूरत है। अब बच्चों को भी शायद कठोर अनुशासन,हमेशा चुप एवं गंभीर रहने वाले पिता की छवि स्वीकार्य नहीं है। जब माँ भी नौकरी करने जा रही है और पिता भी तो दोनों को ही घर की भी ज़िम्मेदारियाँ साथ साथ निभानी पड़ेंगी। चाहे वह बच्चों को नहलाना धुलाना हो, स्कूल के लिये तैयार करना हो,शिशु को बोतल से दूध पिलाना हो या फ़िर शिशु की हगीज़ डायपर धोना। यानि कि बच्चे के पैदा होने से वयस्क होने तक उसके पालन पोषण की सारी ज़िम्मेदारियों को अब पिता को भी निभाना ही पड़ेगा। और जहाँ तक मैं समझता हूँ इन कामों में कोई शर्म आने जैसी बात नहीं है।
            बहुत से पिताओं ने अपनी इन ज़िम्मेदारियों को सहर्ष स्वीकार कर लिया है। बहुतों को यह सब करने या दोस्तों को बताने में झिझक या शर्म आती है।जबकि ऐसा नहीं होना चाहिये।भाई मेरा सीधा सा प्रश्न यह है कि जब पत्नी या माँ स्कूल/बैंक की लाइन में लग कर बच्चे की फ़ीस जमा कर सकती है,उसे स्कूल पहुँचा सकती है तो आप घर पर बच्चे का कपड़ा साफ़ करने या उसका टिफ़िन तैयार करने की ज़िम्मेदारी क्यों नहीं निभा सकते?
             दूसरी बात,जब आप अपने बच्चों से ये उम्मीद करते हैं कि वे आपके हर आदर्श पर चलें,आपकी आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालें,समाज में आपकी नाक ऊँची करें,स्कूल में अव्वल आकर आपकी इज़्ज़त बढ़ाये तो आपका भी तो उनके प्रति कुछ फ़र्ज़ कुछ ज़िम्मेदारी बनती है।आज के परिवेश में आपके द्वारा पैसा कमा कर ही देना पर्याप्त नहीं होगा।आपको अपने बच्चे के विकास और बेहतरी के लिये बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।उसके ऊपर सिर्फ़ कठोर अनुशासन लागू करके ही आप उसका जीवन नहीं संवार सकेंगे। उसका जीवन संवारने के लिये पिता को भी अब उसका दोस्त,उसका रहनुमा बनना होगा।तभी पूरी दुनिया में मनाये जा रहे फ़ादर्स डे या पितृ दिवस की सार्थकता होगी।
           विलियम वरड्सवर्थ ने लिखा है कि-पिता एक ऐसा संबोधन है कि भगवान को भी हम इससे ज़्यादा पवित्र नाम से नहीं बुला सकते।यानि कि पिता का दर्जा भगवान के बराबर ही माना है वर्डस्वर्थ ने। तो इस दर्जे को,इस महानता को,इस ऊँचाई को बनाये रखने के लिये हमारे समाज में हर पिता को कम से कम इन बातों पर ज़रूर अमल करना चाहिये-
  • बेटा बेटी दोनों बराबर: सबसे पहले अपने परिवार में बेटे और बेटी को एक समान अधिकार और दर्जा दें।ऐसा करके आप स्वयं तो दोनों की आंखों का तारा बनेंगे ही,सामाजिक बदलाव की दिशा में भी पहल करेंगे।
  • बच्चों के दोस्त बनें शासक नहीं: बच्चों के मन तक पहुंचने के लिये आप उनसे दोस्ताना व्यवहार करें न कि उनके प्रति हमेशा अनुशासनात्मक रवैया अपनाएं। यदि कहीं वे गलती कर भी दें तो पहले उन्हें प्यार से समझाएं फ़िर दण्ड के बारे में सोचें।ऐसा करके आप उनका सम्मान तो करेंगे ही उनका विश्वास भी जीतेंगे और बच्चे खुलकर अपने दु:ख सुख आपके साथ बांट सकेंगे।
  • बच्चों से बराबर बातचीत करें: बच्चों के साथ बहुत गंभीरता पूर्ण वातावरण में न रहें।उनसे हमेशा बातचीत करते रहें क्योंकि आपका मौन उन्हें भी चुप रहने पर मजबूर करेगा।और वे अपने मन की बातें आपके सामने कहने में डरेंगे।जबकि उनसे लगातार बातचीत करते रहने पर वे अपनी गंभीर से गंभीर समस्याएं(यहां तक कि गलतियां भी) आपसे खुलकर निःसंकोच साझा कर सकेंगे।
  • घरेलू काम काज में हाथ बटाएं: आपको घरेलू काम काज में माँ की मदद करते देख कर बच्चों को बहुत खुशी होगी।उन्हें यह महसूस होगा कि आप बच्चों के साथ ही उनकी माँ को भी उतना ही स्नेह और सम्मान देते हैं जितना कि उन बच्चों को।और इससे वे संवेदनात्मक  और भावनात्मक रूप से आपसे और भी जुड़ जाएंगे।
  • बच्चों से कभी कभी अपनी समस्या साझा करें: बच्चों से कभी कभी अपनी कोई छोटी मोटी समस्याएं भी साझा करें(गंभीर नहीं)।इससे उन्हें लगेगा कि आप उन बच्चों की बातों को भी महत्व देते हैं और वे गौरवान्वित महसूस करेंगे।साथ ही आप भी अपनी समस्याओं के बोझ को कुछ कम महसूस करेंगे।
  • कुछ निर्णय बच्चों को करने दें: घर के कुछ निर्णय (मसलन दीवारों के रंग, गमलों के पौधे) बच्चों के ऊपर भी छोड़ दें।इससे उनकी निर्णय क्षमता के साथ की आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।
  • बच्चों के साथ खेलिए: अपने बच्चों के साथ कभी कभी उनकी रूचि के खेल भी खेलिए।देखिये आपको अपना बचपन तो याद आयेगा ही,आपके बच्चों को कितनी अधिक खुशी मिलेगी।
  • बच्चों के साथ सुबह/शाम चाय पीजिए: आपकी यह आदत या नियम बच्चों को एक अवसर देगा खुलकर अपने मन की बातें कहने का,आपसे सलाह मशवरा लेने का।बच्चे पूरे परिवार के साथ बैठ कर चाय नाश्ता करने में खुशी महसूस करेंगे।
  • बच्चों के साथ रसोई संभालिए: कभी कभी आप अपनी पत्नी को रसोई से हटाकर बच्चों के साथ खाना बनाइए।देखिये इससे आप की पत्नी,बच्चे सभी कितने खुश होंगे।उन्हें लगेगा कि आप माँ को उतना ही सम्मान देते हैं जितना अपने बच्चों को।
ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनपर ध्यान देकर,इन्हें अपना कर आप हिन्दी के मशहूर कवि भास्कर चौधरी की इन पंक्तियों को साकार कर सकते हैं-
     मुझे लगता है
     पिता पर
     लिखी जा सकती है
     लम्बी कविता
     रामायण महाभारत से लम्बी
     पृथ्वी की परिधि से भी
     आसमान से ऊँची…
                   और तभी उस फ़ादर्स डे का भी मनाया जाना सार्थक हो सकेगा जिसकी शुरूआत 1910 में सोनोरा स्मार्ट डोड ने की थी।
                                      000
                     
डा0हेमन्त कुमार

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पुस्तक समीक्षा-- बच्चे पढ़ें—मम्मी पापा को भी पढ़ाएं—“लू लू की सनक”

मंगलवार, 9 जून 2015

पुस्तक-लू लू ली सनक
(बाल कहानी संग्रह)
लेखक-दिविक रमेश
चित्र-अतुल वर्धन
प्रकाशक-नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया
नेहरू भवन,5,इंस्टीट्युशनल एरिया,फ़ेज-2
वसंत कुंज,नई दिल्ली-110070

संस्करण-2014 मूल्य-रू075/मात्र।

        हिन्दी में बाल साहित्य लिखा तो खूब जा रहा है,प्रकाशित भी हो रहा है।लेकिन इसमें नये प्रयोग बहुत कम हो रहे हैं।प्रयोग से यहां मेरा तात्पर्य रचनात्मक खिलन्दड़ेपन से है।मतलब रचनाओं से रचनाकार कुछ इस तरह खेले जो बाल मन को भाए,आकर्षित करे।उनके अंदर किताब को पढ़ने की ललक बढ़ाए।
     अभी कुछ ही दिनों पहले(2014) नेशनल बुक ट्र्स्ट से प्रकाशित दिविक रमेश जी का बाल कहानी संग्रह लू लू की सनक एक ऐसा ही प्रयोगधर्मी बाल कहानियों का संकलन है।इस संकलन में दिविक जी की कुल छः कहानियां संकलित हैं।लू लू की मां,लू लू की सनक,लू लू बड़ा हो गया,लू लू की बातें,लू लू का गुस्सा,और लाल बत्ती पर।संकलन की खास बात यह है कि इसकी सभी कहानियों का नुख्य पात्र लू लू नाम का स्कूल जाने वाला एक बच्चा है।हर कहानी में लू लू के साथ ही ्घटने वाली घटनाओं,उसके मन में उठने वाले प्रश्नों,उसकी मां द्वारा दिये गये उत्तरों और उसके आस-पास के वातावरण के माध्यम से दिविक जी ने सारी कहानियों का ताना बाना बुना है।
   एक ही पात्र को लेकर कई कहानियां लिखना किसी भी लेखक के लिये एक रचनात्मक प्रयोग तो है पर इसमें एक बड़ा खतरा भी है।खास तौर से तब जब कहानियां छोटे बच्चों के लिये लिखी जा रही हों।खतराघटनाओं,दृश्यों,शब्दों के दुहराव काखतरा रोचकता की कमी आने से पाठकों की ऊब कामुख्य पात्र के अतिरिक्त अन्य पात्रों से पकड़ छूट जाने का।लेकिन बाल मनोविज्ञान पर अच्छी पकड़ और बाल मनोभावों की गहराई तक पैठ बनाने वाले दिविक रमेश जी ने  यह प्रयोग बहुत सफ़लता पूर्वक किया है।
       संकलन की पहली कहानीलू लू की मां।इसमें लू लू के माध्यम से लेखक ने उन बच्चों को रिप्रजेण्ट किया है जो आलसी होते हैं।अपना काम खुद नहीं करना चाहते्।दूसरों पर आश्रित हो जाते हैं।जैसे कहानी का मुख्य पात्र लू लू अपना हर काम अपनी मां से करवाता है।क्योंकि यह उसे अच्छ लगता है।मां परेशान।पर लू लू के पड़ोसी टी लू की मां ने लू लू की मां को जो मन्त्र दिया उससे लू लू पूरी तरह बदल गया। और अपना हर काम खुद करने लगा।
      दूसरी कहानी—“लू लू ली सनकउन बच्चों के ऊपर आधारित है जो खाने पीने में आनाकानी करते हैं।सिर्फ़ किसी एक चीज को खाने के लिये अपने मां बाप से जिद करते हैं।कहानी में लू लू रोज स्कूल के टिफ़िन में सिर्फ़ चिप्स ले जाता है।कोई और चीज उसे पसंद नहीं।पर टी लू की मां और स्कूल की शिक्षिका ने जो मजेदार योजना उसे सुधारने की बनायी यह कहानी पढ़ कर ही समझा जा सकता है। और अन्ततः लू लू सुधर गया।
   संकलन की तीसरी कहानी लू लू बड़ा हो गयामें लू लू के माध्यम से लेखक ने ऐसे बच्चों के जीवन को दिखाने की कोशिश की है जो सिर्फ़ अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं और किसी से कोई मतलब नहीं रखना चाहते।लू लू अपने जन्म दिवस के उपहारों के लिये इतनी बेसब्री दिखाता है कि अगले जन्मदिन के इन्तजार का एक एक दिन उसके लिये काटना मुश्किल।लेकिन मां द्वारा ढंग से समझाने पर उसे यह समझ में आ गया कि जितनी खुशी उपहार पाने पर है उससे कहीन अधिक खुशी उपहार देने पर होती है।जिस दिन उसने अपने घर की कमवाली के बेटे को उसके जन्मदिवस पर अपना प्यारा पिग्गी बाक्स उपहार में दे दिया उस दिन उसे सच्ची खुशी मिली।
    संकलन की चौथी कहानी लू लू की बातें,पांचवीं लू लू का गुस्सा,और अंतिम रेड लाइट पर”—में भी दिविक लेखक ने एक छोटे बच्चे के मनोभावों को बड़ी सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत किया है।लू लू के मन में उठने वाले तरह तरह के सवालों के मां द्वारा दिए जाने वाले उत्तर उसे संतुष्ट करते हैं।लू लू का मेढक की तरह उचक उचक कर चलना फ़िर सोचना कि मेढक इस तरह उचक उचक कर चलते हुये क्या सोचता होगा?ये बातें बाल मन का कोई बहुत सूक्ष्म पारखी ही लिख सकता है। और यह काम लेखक ने बखूबी किया है।
   संकलन की सभी कहानियों की भाषा इतनी सरल और सहज है कि बच्चा इन कहानियों को बहुत ही आसानी से समझ सकेगा।सबसे बड़ी बात कथानक को शब्दों में इस तरह से बांधा गया है कि बच्चे के मन में बराबर ये उत्सुकता भी बनी रहेगी  कि लू लू अगली कहानी में क्या गुल खिलाने वाला है?वह अपनी मां से क्या बातें पूछेगा?
    एक बात औरयह संकलन जितनाबच्चों के लिये रोचक,मनोरंजक प्रेरणापद और पठनीय है उतना ही यह अभिभावकों के लिये भी महत्वपूर्ण है।क्योंकि हर कहानी में लू लू की मां को जिस ढंग से लू लू को हैण्डिल करते दिखाया गया है वह काबिले तारीफ़ है।लू लू की मां लू लू की हर सनक को,उसके हर प्रश्न को बिना गुस्सा हुये बहुत ही सहजता के साथ हैण्डिल करती है,उसका समाधान निकालती है। जबकि आज की तारीख में ज्यादा संख्या ऐसे अभिभावकों की है जो बच्चों के प्रश्नों पर या तो खीझते हैं या फ़िर उन्हें टाल देते हैं। ऐसे अभिभावकों को लू लू की सनक से निश्चित ही प्रेरणा मिलेगी। और यह इस संकलन की सबसे बड़ी सफ़लता होगी।
     पुस्तक में अतुल वर्धन द्वारा बनाए गये चित्रों ने पात्रों को सजीव तो किया ही है कथानक को औअ सुसज्जित कर दिया है।इस पठनीय और अच्छी पुस्तक के प्रकाशन के लिये दिविक जी के साथ ही नेशनल बुक ट्रस्ट को भी बधाई।
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समीक्षक-डा0हेमन्त कुमार

डा0दिविक रमेश
डा0 दिविक रमेश हिन्दी साहित्य  के प्रतिष्ठित कथाकार,कवि, एवम बाल साहित्यकार हैं।
आपकी अब तक कविता,आलोचनात्मक निबन्धों,बाल कहानियों,बालगीतों की 50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।तथा आप कई राष्ट्रीय एवम अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किये जा चुके हैं।पिछले वर्ष आपको उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा बाल साहित्य भारती सम्मान से नवाजा गया है।फ़िलवक्त आप दिल्ली में रह कर स्वतन्त्र लेखन कर रहे हैं।

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. ‘देख लूं तो चलूं’ "आदिज्ञान" का जुलाई-सितम्बर “देश भीतर देश”--के बहाने नार्थ ईस्ट की पड़ताल “बखेड़ापुर” के बहाने “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक। “मेरे आंगन में आओ” ११मर्च २०१९ ११मार्च 1mai 2011 2019 अंक 48 घण्टों का सफ़र----- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अण्डमान का लड़का अनुरोध अनुवाद अभिनव पाण्डेय अभिभावक अम्मा अरुणpriya अर्पणा पाण्डेय। अशोक वाटिका प्रसंग अस्तित्व आज के संदर्भ में कल आतंक। आतंकवाद आत्मकथा आनन्द नगर” आने वाली किताब आबिद सुरती आभासी दुनिया आश्वासन इंतजार इण्टरनेट ईमान उत्तराधिकारी उनकी दुनिया उन्मेष उपन्यास उपन्यास। उम्मीद के रंग उलझन ऊँचाई ॠतु गुप्ता। एक टिपण्णी एक ठहरा दिन एक तमाशा ऐसा भी एक बच्चे की चिट्ठी सभी प्रत्याशियों के नाम एक भूख -- तीन प्रतिक्रियायें एक महत्वपूर्ण समीक्षा एक महान व्यक्तित्व। एक संवाद अपनी अम्मा से एल0ए0शेरमन एहसास ओ मां ओडिया कविता ओड़िया कविता औरत औरत की बोली कंचन पाठक। कटघरे के भीतर कटघरे के भीतर्। कठपुतलियाँ कथा साहित्य कथावाचन कर्मभूमि कला समीक्षा कविता कविता। कविताएँ कवितायेँ कहां खो गया बचपन कहां पर बिखरे सपने--।बाल श्रमिक कहानी कहानी कहना कहानी कहना भाग -५ कहानी सुनाना कहानी। काफिला नाट्य संस्थान काल चक्र काव्य काव्य संग्रह किताबें किताबों में चित्रांकन किशोर किशोर शिक्षक किश्प्र किस्सागोई कीमत कुछ अलग करने की चाहत कुछ लघु कविताएं कुपोषण कैंसर-दर-कैंसर कैमरे. कैसे कैसे बढ़ता बच्चा कौशल पाण्डेय कौशल पाण्डेय. कौशल पाण्डेय। क्षणिकाएं क्षणिकाएँ खतरा खेत आज उदास है खोजें और जानें गजल ग़ज़ल गर्मी गाँव गीत गीतांजलि गिरवाल गीतांजलि गिरवाल की कविताएं गीताश्री गुलमोहर गौरैया गौरैया दिवस घर में बनाएं माहौल कुछ पढ़ने और पढ़ाने का घोसले की ओर चिक्कामुनियप्पा चिडिया चिड़िया चित्रकार चुनाव चुनाव और बच्चे। चौपाल छिपकली छोटे बच्चे ---जिम्मेदारियां बड़ी बड़ी जज्बा जज्बा। जन्मदिन जन्मदिवस जयश्री राय। जयश्री रॉय। जागो लड़कियों जाडा जात। जाने क्यों ? जेठ की दुपहरी टिक्कू का फैसला टोपी ठहराव ठेंगे से डा० शिवभूषण त्रिपाठी डा0 हेमन्त कुमार डा०दिविक रमेश डा0दिविक रमेश। डा0रघुवंश डा०रूप चन्द्र शास्त्री डा0सुरेन्द्र विक्रम के बहाने डा0हेमन्त कुमार डा0हेमन्त कुमार। डा0हेमन्त कुमार्। डॉ.ममता धवन डोमनिक लापियर तकनीकी विकास और बच्चे। तपस्या तलाश एक द्रोण की तितलियां तीसरी ताली तुम आए तो थियेटर दरख्त दरवाजा दशरथ प्रकरण दस्तक दिशा ग्रोवर दुनिया का मेला दुनियादार दूरदर्शी देश दोहे द्वीप लहरी नई किताब नदी किनारे नया अंक नया तमाशा नयी कहानी नववर्ष नवोदित रचनाकार। नागफ़नियों के बीच नारी अधिकार नारी विमर्श निकट नियति निवेदिता मिश्र झा निषाद प्रकरण। नेता जी नेता जी के नाम एक बच्चे का पत्र(भाग-2) नेहा शेफाली नेहा शेफ़ाली। पढ़ना पतवार पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप पत्रिका पत्रिका समीक्षा परम्परा परिवार पर्यावरण पहली बारिश में पहले कभी पहले खुद करें–फ़िर कहें बच्चों से पहाड़ पाठ्यक्रम में रंगमंच पार रूप के पिघला हुआ विद्रोह पिता पिता हो गये मां पिताजी. पितृ दिवस पुण्य तिथि पुण्यतिथि पुनर्पाठ पुरस्कार पुस्तक चर्चा पुस्तक समीक्षा पुस्तक समीक्षा। पुस्तकसमीक्षा पूनम श्रीवास्तव पेड़ पेड़ बनाम आदमी पेड़ों में आकृतियां पेण्टिंग प्यारा कुनबा प्यारी टिप्पणियां प्यारी लड़की प्यारे कुनबे की प्यारी कहानी प्रकृति प्रताप सहगल प्रतिनिधि बाल कविता -संचयन प्रथामिका शिक्षा प्रदीप सौरभ प्रदीप सौरभ। प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक शिक्षा। प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव। प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव. प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव। प्रेरक कहानी फ़ादर्स डे।बदलते चेहरे के समय आज का पिता। फिल्म फिल्म ‘दंगल’ के गीत : भाव और अनुभूति फ़ेसबुक बंधु कुशावर्ती बखेड़ापुर बचपन बचपन के दिन बच्चे बच्चे और कला बच्चे का नाम बच्चे का स्वास्थ्य। बच्चे पढ़ें-मम्मी पापा को भी पढ़ाएं बच्चे। बच्चों का विकास और बड़ों की जिम्मेदारियां बच्चों का आहार बच्चों का विकास बच्चों को गुदगुदाने वाले नाटक बदलाव बया बहनें बाघू के किस्से बाजू वाले प्लाट पर बादल बारिश बारिश का मतलब बारिश। बाल अधिकार बाल अपराधी बाल दिवस बाल नाटक बाल पत्रिका बाल मजदूरी बाल मन बाल रंगमंच बाल विकास बाल साहित्य बाल साहित्य प्रेमियों के लिये बेहतरीन पुस्तक बाल साहित्य समीक्षा। बाल साहित्यकार बालवाटिका बालवाणी बालश्रम बालिका दिवस बालिका दिवस-24 सितम्बर। बीसवीं सदी का जीता-जागता मेघदूत बूढ़ी नानी बेंगाली गर्ल्स डोण्ट बेटियां बैग में क्या है ब्लाइंड स्ट्रीट ब्लाग चर्चा भजन भजन-(7) भजन-(8) भजन(4) भजन(5) भजनः (2) भद्र पुरुष भयाक्रांत भारतीय रेल मंथन मजदूर दिवस्। मदर्स डे मनीषियों से संवाद--एक अनवरत सिलसिला कौशल पाण्डेय मनोविज्ञान महुअरिया की गंध मां माँ मां का दूध मां का दूध अमृत समान माझी माझी गीत मातृ दिवस मानस मानस रंजन महापात्र की कविताएँ मानस रंजन महापात्र की कवितायेँ मानसी। मानोशी मासूम पेंडुकी मासूम लड़की मुंशी जी मुद्दा मुन्नी मोबाइल मूल्यांकन मेरा नाम है मेराज आलम मेरी अम्मा। मेरी कविता मेरी रचनाएँ मेरे मन में मोइन और राक्षस मोनिका अग्रवाल मौत के चंगुल में मौत। मौसम यात्रा यादें झीनी झीनी रे युवा रंगबाजी करते राजीव जी रस्म मे दफन इंसानियत राजीव मिश्र राजेश्वर मधुकर राजेश्वर मधुकर। राधू मिश्र रामकली रामकिशोर रिपोर्ट रिमझिम पड़ी फ़ुहार रूचि लगन लघुकथा लघुकथा। लड़कियां लड़कियां। लड़की लालटेन चौका। लिट्रेसी हाउस लू लू की सनक लेख लेख। लेखसमय की आवश्यकता लोक चेतना और टूटते सपनों की कवितायें लोक संस्कृति लोकार्पण लौटना वनभोज वनवास या़त्रा प्रकरण वरदान वर्कशाप वर्ष २००९ वह दालमोट की चोरी और बेंत की पिटाई वह सांवली लड़की वाल्मीकि आश्रम प्रकरण विकास विचार विमर्श। विश्व पुतुल दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस. विश्व रंगमंच दिवस व्यंग्य व्यक्तित्व व्यन्ग्य शक्ति बाण प्रकरण शब्दों की शरारत शाम शायद चाँद से मिली है शिक्षक शिक्षक दिवस शिक्षक। शिक्षा शिक्षालय शैलजा पाठक। शैलेन्द्र श्र प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव स्मृति साहित्य प्रतियोगिता श्रीमती सरोजनी देवी संजा पर्व–मालवा संस्कृति का अनोखा त्योहार संदेश संध्या आर्या। संवाद जारी है संसद संस्मरण संस्मरण। सड़क दुर्घटनाएं सन्ध्या आर्य सन्नाटा सपने दर सपने सफ़लता का रहस्य सबरी प्रसंग सभ्यता समय समर कैम्प समाज समीक्षा। समीर लाल। सर्दियाँ सांता क्लाज़ साक्षरता निकेतन साधना। सामायिक सारी रात साहित्य अमृत सीता का त्याग.राजेश्वर मधुकर। सुनीता कोमल सुरक्षा सूनापन सूरज सी हैं तेज बेटियां सोन मछरिया गहरा पानी सोशल साइट्स स्तनपान स्त्री विमर्श। स्मरण स्मृति स्वतन्त्रता। हंस रे निर्मोही हक़ हादसा। हाशिये पर हिन्दी का बाल साहित्य हिंदी कविता हिंदी बाल साहित्य हिन्दी ब्लाग हिन्दी ब्लाग के स्तंभ हिम्मत हिरिया होलीनामा हौसला accidents. 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