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संस्मरण---जिन्होंने मुझे रोशनी दिखाई----।

गुरुवार, 5 सितंबर 2019


जिन्होंने मुझे रोशनी दिखाई----।
                                        
डा0रघुवंश जी 
              
 
 हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी कोई न कोई ऐसा शख्स जरूर आता है जो उसकी पूरी जीवन धारा या पूरा जीवन दर्शन ही बदल देता है।वैसे तो इस बदलाव का प्रेरक कोई भी हो सकता है।मां-पिता,भाई-बहन,मित्र,शिक्षक यहां तक कि कोई अनजान व्यक्ति भी।लेकिन अक्सर बदलाव की इस प्रेरणा में शिक्षकों का बहुत बड़ा योगदान रहता है।क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने जीवन का सबसे सुनहरा यानि बचपन का समय दो ही लोगों के साथ सबसे ज्यादा बिताता है।वो हैं मां-पिता या फ़िर शिक्षक।स्कूल के समय के पहले और बाद का सारा समय अपने मां-पिता के साथ और स्कूल का समय शिक्षक के साथ।इन्हीं लोगों के द्वारा सिखाई गयी बातें बच्चे के पूरे जीवन को प्रभावित करती हैं।
         अगर मैं खुद अपने शिक्षकों की बात करूं तो मेरे जीवन को बदलने वाले दो शिक्षक हैं।पहले स्व0डा0अश्विनी कुमार चतुर्वेदीराकेशऔर दूसरे स्व0डा0रघुवंश।
मेरा सौभाग्य कि मैं इलाहाबाद युनिवर्सिटी में दोनों ही शिक्षकों का छात्र रहा हूं।डा0 राकेश चतुर्वेदी जी ने मुझे साहित्य लेखन की ओर प्रेरित किया और डा0रघुवंश जी ने मुझे जीवन में साहस,मेहनत और ईमानदारी का पाठ पढ़ाया।
   पहले मैं बात करूंगा डा0राकेश चतुर्वेदी जी की।बात लगभग 1976 की है।मैंने बस इलाहाबाद युनिवर्सिटी में बी0ए0 में दाखिला लिया ही था।और दूसरे छात्रों की ही तरह मेरा भी मकसद बी0ए0 करके प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना था।ड़ा0राकेश चतुर्वेदी जी मुझे हिन्दी में भाषा विज्ञान पढ़ाते थे।क्लास शुरू होने पर पहले दिन सबसे उन्होंने औपचारिक परिचय लेना शुरू किया।मेरा भी नम्बर आया तो मैंने अपना नाम बता दिया।उन्होंने पूछा कि हिन्दी पढ़ने के अलावा कभी कुछ लिखा भी है?(ये प्रश्न वो सबसे पूछ रहे थे पर सभी का जवाब नकारात्मक था।)मैंने यूं ही कह दिया कि हां कहानियां लिखने की कोशिश करता  हूं।डा0 राकेश जी काफ़ी खुश हुये।उन्होंने कहा चलो कोई तो निकला लिखने पढ़ने वाला।उन्होंने मुझे अगले दिन शाम को चाय पीने के लिये अपने घर बुलाया और यह भी हिदायत दी कि जो कुछ भी लिखा है साथ में लेते आना।अब मेरी हालत खराब।अभी तक मैंने कोई कहानी तो क्या छोटी सी कविता नहीं लिखी थी।खैर---रात में जाग कर काफ़ी सोच विचार कर मैंने अपनी डायरी में एक कहानी लिख मारी।आखिर सिर ओखली में तो मैंने ही डाला था।कहानी उस समय के अनुकूल थी।संक्षेप में कथानक ये था कि एक बेरोजगार बी0ए0पास युवक नौकरी की खोज में भाग कर बम्बई जाता है और काफ़ी असफ़लताएं झेलने के बाद एक दिन हत्या करके जेल पहुंच जाता है।
       युनिवर्सिटी के पास ही डा0राकेश जी का आवास था।अगले दिन मैं अपनी डायरी लेकर डा0राकेश जी के घर पहुंच गया।उन्होंने मेरे स्वागत का पूरा इन्तजाम किया था।चाय,पकौड़ी,मिठाई।मैंने जम कर नाश्ता किया और चाय पी।फ़िर बारी आई कहानियों की।मैंने डरते-डरते डायरी उन्हें पकड़ा दी।और चुपचाप बैठ गया।मन ही मन डर रहा था कि अब डांट पड़ेगी।पर राकेश जी ने तन्मयता के साथ दस-पन्द्रह मिनट में कहानी खतम कर दी।और मुझसे मुखातिब हुये।
           हां तो बाबू हेमन्त कुमार जीआगे क्या इरादा है?डा0राकेश जी ने मुस्कुराकर पूछा।
  सर---आगे कम्पटीशन---और ये कहानी तो बस ऐसे ही----।मेरी हालत खराब।
कल ही लिखी है न?
सर---क्या बताऊंमैंने तो बस क्लास में वाह वाही पाने के लिये कह दिया था---कभी कहानी लिखी नहीं थी---इसी लिये कल रात जाग कर लिखी।मैं लगभग हकलाते हुये बोला।
    बर्खुरदारये बताओ इतनी शानदार कहानी लिखी है तुमने ---और वो भी पहली कहानी।और ऊपर से घबरा रहे।क्यों तुम कम्पटीशन देने के चक्कर में हो?कहानियां क्यों नहीं लिखते भाई?डा राकेश की बातों पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।मैं अपलक उनकी ओर देख रहा था।
        देखो मैं ये नहीं कह रहा कि तुम कम्पटीटिव एक्जाम्स मत दो तैयारी करो--पढ़ो लिखो--लेकिन तुम एक अच्छे कहानीकार भी बन सकते हो।तुम्हारे पास शब्द,भाषा,विचार,भावनाएं सभी गुण हैं एक कहानीकार के।---और इसे ले जाओ थोड़ा और संशोधन करके युनिवर्सिटी की मैगज़ीन में दे देना।कहकर उठते हुये उन्होंने मुझे डायरी पकड़ा दी।
   मेरी वो कहानी जंजीरें युनिवर्सिटी पत्रिका में तो छपी ही उसे युनिवर्सिटी की ही एक कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कार भी मिला।फ़िर तो मेरे पंख से लग गये।रोज एक नयी कहानी।और डा0राकेश जी का साथ।एम0ए0 फ़ाइनल में आने के पहले मेरा एक बाल कहानी संग्रह आ चुका था।और मैंने इसी दिशा में आगे बढ़ना अपना लक्ष्य बना लिया।
         मेरे दूसरे प्रेरक थे मेरे रिसर्च गाइड डा0 रघुवंश।मैंने 1979 में रघुवंश जी के निर्देशन में रिसर्च ज्वाइन किया था।रघुवंश जी हाथों की दिक्कत(उनके हाथ बचपन से ही बहुत पतले और अंदर की ओर मुड़े हुए थे।)के कारण अक्सर अपनी यात्राओं के दौरान मुझे सहायक के रूप में साथ ले जाते थे।
       मैं अक्सर यात्राओं के दौरान अपना भारी  सामान खुद उठाने के बजाए कुलियों के भरोसे रहता था।क्योंकि मुझे लगता था कि जब यू0जी0सी0वाले पैसा दे रहे तो अपने सामान मैं क्यों उठाऊं।पर रघुवंश जी के साथ की गयी एक यात्रा ने इस मामले में मेरी विचारधारा ही बदल दी।
       मुझे रघुवंश जी के साथ इलाहाबाद से गोरखपुर किसी सेमिनार में जाना था।उन दिनों भटनी से आगे की यात्रा छोटी लाइन(नैरो गेज)की ट्रेन से होती थी।ट्रेन बदलने हमें दूसरे प्लेटफ़ार्म पर जाना था।सिर्फ़ दो मिनट थे ट्रेन छूटने में।कुली दिख नहीं रहे थे।मैंने कहा सर ट्रेन छूट जायेगी क्या?रघुवंश जी ने कहा ---अरे ऐसे कैसे छूटेगी ट्रेन।अभी देखो ---।और अपने मुड़े हुये हाथों में ही एक में बैग और एक में छोटी अटैची उठा कर रघुवंश जी दौड़ पड़े दूसरे प्लेटफ़ार्म की ओर---उनकी इस हिम्मत और जज्बे को देख मुझे खुद पर बड़ी शर्म आयी।एक वृद्ध और हाथों से अशक्त व्यक्ति मेरे सामने सामान उठा कर दौड़ रहा और मैं कुली का इन्तजार कर रहा हूं।मैंने खुद को धिक्कारा और जल्दी से मैं भी पीछे पीछे दो भारी वाली अटैचियां लेकर दौड़ा---और अन्ततः हमें गाड़ी मिल गयी।उसी दिन से मैंने निर्णय किया कि अपने सारे काम खुद करूंगा।किसी के भरोसे नहीं रहूंगा।
     वो दिन था और आज का दिन मैं यथा संभव अपने सारे काम खुद ही करने की कोशिश करता हूं।यहां तक कि अपने घर का फ़्लश बेसिन तक खुद साफ़ करता हूं।और इससे मुझे जो आत्म सन्तोष मिलता है उसे मैं शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता।
          मैं आज जो कुछ भी हूं उसके प्रेरक आदरणीय डा0राकेश चतुर्वेदी और डा0रघुवंश जी दोनों ही लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा दी गयी सीखें आज भी मुझे प्रेरणा देती हैं।दोनों ही गुरुओं को मेरा हार्दिक नमन और अभिनन्दन।
     00000
डा0हेमन्त कुमार

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