पराया धन
बुधवार, 7 जनवरी 2009
भाई के जन्मदिन पर
कितने उत्साह में होती हैं बहनें
भाई को नहलातीं
साबुन से मल-मल कर।
कपड़े पहनातीं स्वच्छ-सबसे सुंदर
तेल , कंघी , क्रीम , पाउडर
तिलक लगातीं और टीका काजल का
बेमिसाल होती हैं बहनें
मां रसोई संभाल रही होती हैं
और बहन हुक्म बजाने को तत्पर।
बिस्तर ठीक किया , परदे बदले
टेबुल , कुर्सी ,मेजें
कापी ,किताबें ,पत्र-पत्रिकाएं
ओर जाने क्या क्या
करीने से सजाये।
भाई निश्चिंत
खेल मैं मस्त
कैसे इतनी समझदार
हो जाती हैं बहनें।
भाई से पूछो
तो वो कहेगा-
‘पता नहीं’
पिता से पूछो
तो वो कहेंगे-
‘मैं कैसे बताऊँ’।
माँ से पूछो
तो वह कहेंगी-
काम काज तो सीखना ही होगा
धीरे धीरे
बिटिया जो ठहरी
‘पराया धन!’
और तभी
भीग उठेंगे
सबकी आँखों के कोर।
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कवि :शैलेन्द्र
प्रभारी संपादक
जनसत्ता
(कोलकाता संस्करण)
हेमंत कुमार द्वारा प्रकाशित