जाड़े के दोहे
रविवार, 11 जनवरी 2009
अलसाये से दिन हुए , कुम्हलाई अब शाम।
शरमाई सी चांदनी , नाचे अपने धाम॥
चौपालों में चल रही , चर्चा सुबहो शाम।
सूरज जम गया शीत से , कैसे निकले घाम॥
बुढऊ तापनी बारते , बुढिया जपती राम।
बूढा सुग्गा टेरता , बस अपना ही नाम॥
बिरहिन का दुःख देख के , रातें हुईं उदास।
चिठिया ढाढस दे रही , जिन छोड़ मिलन की आस॥
००००००००००००
शरमाई सी चांदनी , नाचे अपने धाम॥
चौपालों में चल रही , चर्चा सुबहो शाम।
सूरज जम गया शीत से , कैसे निकले घाम॥
बुढऊ तापनी बारते , बुढिया जपती राम।
बूढा सुग्गा टेरता , बस अपना ही नाम॥
बिरहिन का दुःख देख के , रातें हुईं उदास।
चिठिया ढाढस दे रही , जिन छोड़ मिलन की आस॥
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हेमंत कुमार