युवा कवयित्री नेहा शेफाली की कविताएँ ।
मंगलवार, 7 मार्च 2017
लालटेन
जली
वो पूरी रात
हर मौसम बेबात
हर मौसम बेबात
मेरे
सपनों को रोशन करती
टकटकी लगाये
कभी कभी किताबें बांचा करती।
टकटकी लगाये
कभी कभी किताबें बांचा करती।
जल
कर काले होते तेल का रंग
मानों मेरे कल के अंधेरे खींच रहा हो
मानों मेरे कल के अंधेरे खींच रहा हो
मैं
गाहे-बगाहे जो झपकी ले लूँ
हवा के साथ चर्र-चूँ कर
मुझे जगाया करती थी।
हवा के साथ चर्र-चूँ कर
मुझे जगाया करती थी।
एक
कोने में
किसी बुढ़िया के जैसे
उकड़ू बैठी रहती
किसी बुढ़िया के जैसे
उकड़ू बैठी रहती
दीवारों
पर उभरती
डरावनी परछाइयों
से दोस्ती सिखाया करती थी।
डरावनी परछाइयों
से दोस्ती सिखाया करती थी।
मेरे
सोने तक
खुद की भी आँखें जलाये रखती थी
खुद की भी आँखें जलाये रखती थी
कुछ
कुछ मेरी नानी के जैसे ही थी
मेरी नानी की वो लालटेन।
मेरी नानी की वो लालटेन।
00000
चौका
उसकी
माई
चटनी और रोटियों के साथ परोसती थी
राजा रानी के किस्से
चाँद तारों के नक्शे
युद्ध-महात्मा की रणनीतियां
उसकी माई
जिसके पांव कभी चौके के बाहर
पड़े ही नहीं थे।
चटनी और रोटियों के साथ परोसती थी
राजा रानी के किस्से
चाँद तारों के नक्शे
युद्ध-महात्मा की रणनीतियां
उसकी माई
जिसके पांव कभी चौके के बाहर
पड़े ही नहीं थे।
000
ज़रा
ज़रा
सा और रुक लेते
तो एक शाम, सदियाँ बन जाती
तो एक शाम, सदियाँ बन जाती
ज़रा
सा कुछ कह देते
तो ग़िले-शिक़वे भूल जाती
तो ग़िले-शिक़वे भूल जाती
ज़रा
मुट्ठी कस के बाँधी होती
एक ख़ुशबू पीछे रह जाती
एक ख़ुशबू पीछे रह जाती
ज़रा
हक़ दिखाते जो तुम
मैं संग तुम्हारे आ जाती।
मैं संग तुम्हारे आ जाती।
0000
गुलमोहर
बिगड़
रहे हैं लोग
छोटी-बड़ी बातों पर
छोटी-बड़ी बातों पर
बरस
रहे हैं मुल्क
तख़्तों की पासा पलट पर।
तख़्तों की पासा पलट पर।
बिलख
रही है ज़मीं
अपने-दूजे खोने पर
अपने-दूजे खोने पर
बौरा
रहा है अंतर्मन
सपनों पर चलती कुल्हाड़ी पर।
सपनों पर चलती कुल्हाड़ी पर।
बस
बांध रहे हैं
इस आग उगलती दुनिया के ओर-छोर
अपनी आशा से, हर सुबह
घर के बाहर खिलते
गुलमोहर के कुछ फूल।
इस आग उगलती दुनिया के ओर-छोर
अपनी आशा से, हर सुबह
घर के बाहर खिलते
गुलमोहर के कुछ फूल।
000
कवयित्री:नेहा शेफ़ाली।