एहसास
सोमवार, 20 जुलाई 2009
कब तक खेलते रहोगे
तुम
लुका छिपी का यह खेल
मुझसे
कब तक भटकते रहोगे
इस सूखे रेगिस्तान में
बरसने को आतुर
बादलों की प्रतीक्षा में।
क्या नहीं उठती
कोई हलचल
तुम्हारे अन्तः में
बारिश की रेशमी फ़ुहारों के
स्पर्श को
अपने होठों पर
महसूस करने की।
विश्वास करो मुझ पर
मैं ध्वस्त तो नहीं कर सकता
इस रेगिस्तान को
पर महसूस करा सकता हूं
बारिश की रेशमी फ़ुहारों का स्पर्श
तुम्हारे अन्तः में
तुम एक बार
अपनी आंखों की गहराई में
झांकने का अवसर तो दो।
*****
हेमन्त कुमार
Read more...
तुम
लुका छिपी का यह खेल
मुझसे
कब तक भटकते रहोगे
इस सूखे रेगिस्तान में
बरसने को आतुर
बादलों की प्रतीक्षा में।
क्या नहीं उठती
कोई हलचल
तुम्हारे अन्तः में
बारिश की रेशमी फ़ुहारों के
स्पर्श को
अपने होठों पर
महसूस करने की।
विश्वास करो मुझ पर
मैं ध्वस्त तो नहीं कर सकता
इस रेगिस्तान को
पर महसूस करा सकता हूं
बारिश की रेशमी फ़ुहारों का स्पर्श
तुम्हारे अन्तः में
तुम एक बार
अपनी आंखों की गहराई में
झांकने का अवसर तो दो।
*****
हेमन्त कुमार