पहाडों के बीच
रविवार, 22 मार्च 2009
काले पहाडों के बीच
खड़ा है
आदमियों का एक लंबा हुजूम
पागल आदमियों का हुजूम।
हर व्यक्ति
कोशिश कर रहा है
अपनी ऊँचाई को नापने की
अपने बौनेपन को भूल कर।
हर आदमी फैला रहा है
अपने हाथों को
कभी ऊपर कभी नीचे
झटक रहा है
अपने पांवों को
कभी दांये कभी बांये।
खींच रहा है अपने
स्नायुओं को
फुला रहा है अपनी
मांसपेशियों को
छोड़ रहा है अपनी साँस को
कभी तेज कभी धीमी गति से
अपने शरीर को फैलाने के लिए।
वह भूल गया है कि
इन पहाडों के पीछे
कितने और भी पहाड़ हैं
जिनकी ऊंचाइयों को
नापने के लिए
पहले उसे
अपने स्वयं के
बौनेपन को पहचानना होगा।
देखना होगा झांक कर
अपने स्वयं के अन्दर
देना होगा विस्तार
देनी होगी ऊँचाई
अपने बौनेपन और
संकुचित दृष्टिकोणों को
सिद्धांतों को
इन ऊंचे पहाडों जैसी।
-------
हेमंत कुमार
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खड़ा है
आदमियों का एक लंबा हुजूम
पागल आदमियों का हुजूम।
हर व्यक्ति
कोशिश कर रहा है
अपनी ऊँचाई को नापने की
अपने बौनेपन को भूल कर।
हर आदमी फैला रहा है
अपने हाथों को
कभी ऊपर कभी नीचे
झटक रहा है
अपने पांवों को
कभी दांये कभी बांये।
खींच रहा है अपने
स्नायुओं को
फुला रहा है अपनी
मांसपेशियों को
छोड़ रहा है अपनी साँस को
कभी तेज कभी धीमी गति से
अपने शरीर को फैलाने के लिए।
वह भूल गया है कि
इन पहाडों के पीछे
कितने और भी पहाड़ हैं
जिनकी ऊंचाइयों को
नापने के लिए
पहले उसे
अपने स्वयं के
बौनेपन को पहचानना होगा।
देखना होगा झांक कर
अपने स्वयं के अन्दर
देना होगा विस्तार
देनी होगी ऊँचाई
अपने बौनेपन और
संकुचित दृष्टिकोणों को
सिद्धांतों को
इन ऊंचे पहाडों जैसी।
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हेमंत कुमार