संजा पर्व–मालवा संस्कृति का अनोखा त्योहार।
मंगलवार, 19 सितंबर 2017
यादों का झरोखा
गीतांजलि गिरवाल
टिफ़िन में भिन्न भिन्न पकवान बना कर सभी लाते थे,आरती के बाद सब उसे बूझते थे कि कौन क्या लाया।जिसका टिफ़िन नहीं बूझ पाते वो विजेता और उसकी माँ सुपर माँ ।फिर सब मिलकर खाते थे।इसमें लड़कों का कोई रोल नहीं होता था फिर भी सब के भाई अपनी बहनों के पीछे घूमते थे ताकि आखरी में अच्छा अच्छा खाने को मिलेगा।वो 15 दिन पलक झपकते निकल जाते।
संजा पर्व –मालवा संस्कृति का अनोखा त्यौहार।
भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से पितृमोक्ष अमावस्या तक पितृपक्ष में कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला पर्व है।यह पर्व मुख्य रूप से मालवा-निमाड़, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र आदि में मनाया जाता है।संजा पर्व में श्राद्ध के सोलह ही दिन कुंवारी कन्याएँ शाम के समय एक स्थान पर एकत्रित होकर गोबर के मांडने मांडती हैं और संजा के गीत गाती हैं व संजा की आरती कर प्रसाद बांटती हैं।सोलह ही दिन तक कुंवारी कन्याएँ गोबर के अलग-अलग मांडने मांडती है तथा हर दिन का एक अलग गीत भी होता है।
गान
‘छोटी-सी गाड़ी गुड़कती जाए, गुड़कती जाए,
जी में बैठ्या संजा बाई, घाघरो धमकाता जाए,
चूड़लो छमकाता जाए,
बई जी की नथड़ी झोला खाए,
बताई दो वीरा पीयर जाए।’
संजा बाई, संजा बाई सांझ हुई/जाओ संझा ।
गणेश उत्सव के बाद कुँवारी कन्याओं का त्योहार आता है ‘संजा’।यूँ तो यह भारत के कई भागों में मनाया जाता है।लेकिन इसका नाम अलग होता है,जैसे- महाराष्ट्र में गुलाबाई (भूलाबाई), हरियाणा में ‘सांझी धूंधा’, ब्रज में ‘सांझी’, राजस्थान में ‘सांझाफूली’ या ‘संजया’।क्वार कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर अमावस्या तक शाम ढलने के साथ घर के दालान की दीवार के कोने को ताजे गोबर से लीपकर पतली-पतली रेखाओं पर ताजे फूल की रंग-बिरंगी पंखुड़ियाँ चिपका कर संजा तैयार की जाती है।
विभिन्न आकृतियाँ
गणेश,चाँद-सूरज,देवी-देवताओं के साथ बिजौरा,कतरयो पान,दूध,दही का वाटका (कटोरी),लाडू घेवर,घुघरो नगाड़ा, पंखा, केले का झाड़, चौपड़ दीवाली झारी, बाण्या की दुकान,बाजूर, किल्लाकोट होता है।मालवा में ‘संजा’ का क्रम पाँच (पंचमी) से आरंभ होता है।पाँच पाचे या पूनम पाटला से।दूसरे दिन इन्हें मिटाकर बिजौर, तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़ और पंचमी को ‘पाँच कुँवारे’ बनाए जाते हैं।लोक कहावत के मुताबिक जन्म से छठे दिन विधाता किस्मत का लेखा लिखते हैं ।जिसका प्रतीक है छबड़ी।सातवें दिन सात्या (स्वस्तिक) या आसमान के सितारों में सप्तऋषि, आठवे दिन ‘अठफूल’, नवें दिन ‘वृद्धातिथि’ होने से डोकरा-डोकरी और दसवें दिन वंदनवार बाँधते हैं।ग्यारहवें दिन केले का पेड़ तो बारहवें दिन मोर-मोरनी या जलेबी की जोड़ मँडती है। तेरहवें दिन शुरू होता है किलाकोट, जिसमें 12 दिन बनाई गई आकृतियों के साथ नई आकृतियों का भी समावेश होता है।
पूजा के पश्चात कच्चा दूध, कंकू तथा कसार छाँटा जाता है।प्रसाद के रूप में ककड़ी-खोपरा बँटता है और शुरू होते हैं।
संजा के गीत-
‘संजा मांग ऽ हरो हरो गोबर संजा मांग ऽ हरो हरो गोबर कासे लाऊ बहण हरो हरो गोबर संजा सहेलडी बजार में हाले वा राजाजी की बेटी।’
परम्परागत मान्यता के अनुसार गुलतेवड़ी के फूल सजावट के लिये उपयुक्त समझे जाते हैं।संजा की आकृति को और ज्यादा सुंदर बनाने के लिये हल्दी, कुकुंम, आटा, जौ, गेहूँ का भी प्रयोग किया जाता है|।मुख्या रूप से उज्जैन,आगर, महिदपुर,शाजापुर, निमाड़ , खंडवा , धार में काफी लोकप्रिय त्यौहार है संजा …।
‘संजा मांग ऽ हरो हरो गोबर संजा मांग ऽ हरो हरो गोबर कासे लाऊ बहण हरो हरो गोबर संजा सहेलडी बजार में हाले वा राजाजी की बेटी।’
परम्परागत मान्यता के अनुसार गुलतेवड़ी के फूल सजावट के लिये उपयुक्त समझे जाते हैं।संजा की आकृति को और ज्यादा सुंदर बनाने के लिये हल्दी, कुकुंम, आटा, जौ, गेहूँ का भी प्रयोग किया जाता है|।मुख्या रूप से उज्जैन,आगर, महिदपुर,शाजापुर, निमाड़ , खंडवा , धार में काफी लोकप्रिय त्यौहार है संजा …।
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लेखिका –गीतांजलि गिरवाल
युवा लेखिका गीतांजलि पिछले 15 सालों से रंगमंच में
अभिनय और निर्देशन में सक्रिय हैं।कालेज में पढाई के समय से ही साहित्य के प्रति
रुझान था तभी से लेखन में सक्रिय।ये हमेशा नारी की समस्याओं उनके जीवन उनके
हालातों की चिंता करती हैं।और नारी मन के हर भाव,अंतर्द्वंद्व और पीड़ा को शब्द देने का प्रयास भी हमेशा करती हैं।हमारे
समाज,लोक संस्कृति पर भी गीतांजलि काफी कुछ लिख रही हैं।