त्याग,सेवा,समर्पण और रचनात्मकता का अनोखा संगम है:साक्षरता निकेतन
मंगलवार, 10 सितंबर 2019
संस्मरण
त्याग,सेवा,समर्पण और
रचनात्मकता का
अनोखा संगम है
साक्षरता निकेतन
किसी प्रतिष्ठान
से या संस्थान से जुड़ना और वहां के लिए लम्बे
समय तक काम करना अपने आप में एक अलग अनुभव होता है।इस प्रक्रिया में आपके खजाने में खट्टे मीठे दोनों तरह अनुभव आते हैं।मीठे
अनुभव आपको जीवन भर खुशी से आह्लादित करते हैं तो खट्टे अनुभव कई तरह की सीख देते
हैं।कहीं कहीं जाकर आपको ऐसा भी लगता है कि आप किसी संस्थान में नहीं बल्कि अपने
घर परिवार में ही काम करने के लिये आ गये हों।ऐसे ही कुछ सुखद अनुभवों का खजाना
मुझे मिला लखनऊ के प्रसिद्ध संस्थान लिट्रेसी हाउस या साक्षरता निकेतन से जुड़ कर।
लिट्रेसी हाउस का नाम मैं अपने
पिता श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी से बराबर सुनता था।बचपन में भी और बड़े होने
पर भी।वो अक्सर इस प्रतिष्ठान की तारीफ़ करते हुये मुझसे कहते भी थे कि कभी लखनऊ
जाना तो वहां एक बार लिट्रेसी हाउस जरूर जाना।कारण था कि मेरे पिता श्री भी लिट्रेसी हाउस से बतौर लेखक काफ़ी समय तक जुड़े
रहे थे।
मार्च 1986 में जब मैंने लखनऊ
में नौकरी ज्वाइन करने आया तो मैंने यहां
के क्रियेटीविटी और लेखन से जुड़े हर अड्डों पर जाना शुरू किया।इसी क्रम में
आकाशवाणी,दूरदर्शन,उ0प्र0हिन्दी संस्थान,संगीत नाटक एकेडेमी,रवीन्द्रालय आदि मुख्य
थे।इन सब जगहों पर जाने के दो ही मकसद थे मित्र मंडली का विस्तार और कुछ नये कामों की तलाश।लिट्रेसी
हाउस भी जाने का मन बहुत होता पर अपने दफ़्तर(निशातगंज)से दूरी और नया शहर होने के
कारण नहीं जा पा रहा था।
पर कहते हैं न जहां चाह
वहां राह्।मैं आफ़िस में एक दिन बैठा कुछ काम
कर ही रहा था कि तत्कालीन निदेशक महोदय ने मुझे बुलाया और कहा कि साक्षरता निकेतन
में कठपुतलियों पर आधारित दो दिनों की एक स्क्रिप्ट राइटिंग वर्कशाप है और उसमें
मुझे प्रतिभाग करने जाना है।मेरी खुशी का ठिकाना न रहा।और इस तरह से 1986 के
आस-पास ही मेरा साक्षरता निकेतन में आना जाना शुरू हो गया।उसी दौरान साक्षरता निकेतन
में श्री वीरेन्द्र मुलासी,डा0धरम सिंह,श्री लायक राम मानव,श्री दिनेश सिंह जी
जैसे क्रिएटिव महानुभावों से परिचय हुआ।शुरुआती दौर में हुआ यह परिचय आगे चल कर
प्रगाढ़ मित्रता में परिवर्तित हो गया।
तो इस तरह लखनऊ आने के साथ ही साक्षरता
निकेतन से हुआ जुड़ाव आज भी जारी है।इस दौरान मैं वहां कई क्रिएटिव राइटिंग
वर्कशाप्स,सेमिनार्स,संगोष्ठियों में कई-कई दिन के लिये जाने लगा।वहां से जुड़ी मेरी ढेरों
यादें हैं।कई तरह के अनुभव हैं।जिनको अगर कलमबद्ध करूं तो एक लम्बी संस्मरणात्मक
किताब बन सकती है।
उन्हीं में से कुछ घटनाओं को मैं यहां साझा करने की कोशिश कर रहा हूं।
0 सेवा और समर्पण का अद्भुत भाव : सबसे पहली बात तो ये कि वहां के हर अधिकारी और कर्मचारी
में आगन्तुक रचनाकारों के प्रति सम्मान,सेवा और समर्पण का जो भाव मौजूद है वैसा कम
ही संस्थानों में देखने को मिलता है।कोई भी वर्कशाप हो,किसी भी स्तर का प्रतिभागी
वहां आया हो उसको जितना सम्मान इस संस्थान में मिलता है उसे देख कर ही आश्चर्य
होता है क्या यहां के अधिकारी कर्मचारी इसी दुनिया के मनुष्य हैं या देव लोक के
प्राणी।चाहे प्रतिभागियों का स्वागत सत्कार हो,उनके जलपान,भोजन की बात हो या
उन्हें ठहराने की व्यवस्था---किसी भी प्रतिभागी को कभी कोई तकलीफ़ होती मैंने आज तक
नहीं देखी।कम से कम मैं तो ये बात दावे के साथ कह सकता हूं कि बतौर रचनाकार मुझे
जो सम्मान,जो सहृदयता वहां मिली कम ही जगह मिली है।प्रतिभागी के आने से लेकर वापस
जाने तक संस्थान के कर्मचारी,अधिकारी बराबर प्रतिभागी की सेवा में लगे रहते हैं।
शुरुआती दौर की एक वर्कशाप की एक
घटना मैं बताऊं।शायद पांच दिन की वर्कशाप थी।पहले दिन वर्कशाप समाप्त होने के बाद
मैं अपने मित्र श्री मधुकर जी के साथ जब निकलने को हुआ तो देखा श्री वीरेन्द्र
मुलासी,डा0धरम सिंह,श्री लायक राम मानव,श्री दिनेश सिंह कमरों से निकलकर हमें
स्कूटर स्टैण्ड तक छोड़ने आये हैं।मुझे बड़ा अश्चर्य हुआ।अगले दिन फ़िर जब हम निकले
तो फ़िर चारों लोग वहां मौजूद–और बाकायदा हाथ जोड़ कर।मुझसे रहा नहीं गया।मैंने
मुलासी जी से पूछ ही लिया कि भाई साहब ये रोज हम लोगों को स्टैण्ड तक छोड़ने आप अपने काम छोड़ कर क्यूं आते
हैं---क्या हम कोई मेहमान हैं?तो मुलासी जी ने जो जवाब दिया उसे सुनकर मेरे
भीतर साक्षरता निकेतन और वहां के लोगों के
प्रति एक अजीब सा श्रद्धा भाव जागृत हो गया जो आज भी बरकरार है---कि क्या आज भी
धरती पर ऐसी सज्जनता और सेवा भाव मौजूद है?उन्होंने कहा कि—“हेमन्त जी आप लोग
हमारे लिये सिर्फ़ मेहमान रचनाकार ही नहीं बल्कि देवतातुल्य हैं—और ये बात मैं नहीं
कह रहा – ये बात इस निकेतन की भूमि कहला रही मुझसे।इस भूमि ने ही हमें ऐसे संस्कार
दिये हैं।“मैं अवाक हो कर मुलासी जी का चेहरा देखता रह गया।
0रचनात्मक ऊर्जा निकेतन के कण कण
में विद्यमान :एक जो सबसे बड़ी बात साक्षरता
निकेतन की मुझे आकर्षित करती रही है वो है संस्थान की लोकेशन,परिसर और वहां का
मनोरम और प्राकृतिक वातावरण।शिक्षा से जुड़े अन्य कई संस्थानों में गया हूं लेकिन
इस संस्थान में प्रवेश करते ही दिल के अन्दर जो पवित्रता का भाव प्रवेश करता रहा
है वो अनुभूति मुझे किसी अन्य संस्थान परिसर में जाने पर आज तक नहीं हुयी।संस्थान
के प्रवेश द्वार की ग्रामीण परिवेश जैसी फ़ूस से की गयी सजावट,सामने दिखता
प्रार्थना भवन,दाहिनी तरफ़ बना कठपुतली विभाग,बायीं ओर बना जलपान गृह,और आगे बढ़ने
पर जनशिक्षण संस्थान भवन,स्टेट रिसोर्स सेण्टर का भवन---और इन सबके चारों ओर पेड़ों
की कतारें और फ़ूलों की क्यारियां सब कुछ आपको अभीभूत करता है।-----ऐसा लगता है
अदरणीया मैडम वेल्दी फ़िशर जी ने रचनाकारों के लिये असली भारत का गांवों का परिवेश यहां उठा कर रख दिया
हो।---और इन सबसे भी बढ़कर इस संस्थान की मेरी सबसे प्रिय जगह “टैगोर हाल”---जहां
बैठकर वर्कशाप की सामग्री तैयार करने के साथ ही मैंने अपनी “ओ मां”,
“कहां खो गया बचपन”, “कटघरे के
भीतर” जैसी अच्छी कविताएं और “अकेला चल चला चल” जैसी कहानी लिखी है।इस “टैगोर हाल”
के बारे में तो मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि आप रचनाकार नहीं भी हैं
और वहां जा कर एक दो घण्टे बैठ जायें तो निश्चित ही आपकी कलम से भी एकाध छोटी-मोटी
कहानी,कविता या गीत सादे पन्नों पर उतर ही आयेगी।
एक वर्कशाप में तो कमाल ही हो गया।सुबह से
ही हम लोग कुछ लिखने का मूड और माहौल बना नहीं पा रहे थे।डा0धरम सिंह जी मुझे और
श्री मधुकर जी को दो बार पान भी खिला चुके थे।और पूछ भी रहे थे कि, “भैया तुम पचे कुछ लिखिहौ कि खाली हियां
घूमै आये हो?” मैंने कहा कि “आप तो कहते थे कि यहां मोर आते हैं—मोर को बुलाइए और हमारी कलम चालू।” “ल्यो अबहीं
बुलाय देत हैं---“ अभी डा0धरम सिंह जी कह ही रहे थे कि एक मोर टैगोर हाल के दरवाजे
पर हाजिर।---थोड़ी देर वो सबको देखता रहा फ़िर कूद कर मेज पर।और बड़े आराम से दस
पन्द्रह मिनट वहां बैठा रहा।और सचमुच उसके आते ही हम लोगों का जबर्दस्त मूड बना
लिखने का।हमने शाम तक एक-एक साक्षरता गीत लिख दिया।
तो ऐसा सृजनात्मक ऊर्जा से भरपूर है
पूरे साक्षरता निकेतन का और खासकर टैगोर हाल का माहौल।ऐसे में भला कौन नहीं जाना
चाहेगा वहां।बल्कि मैं तो कई बार श्री वीरेन्द्र मुलासी जी से कहता भी था कि मुझे
यहां के हास्टल में एकाध कमरा दिलवा दीजिये मैं कुछ दिनों के लिये छुट्टी लेकर
यहीं आ जाऊं और ढेर सारी रचनायें लिख कर साथ ले जाऊं।
0मैडम वेल्दी फ़िशर का कमरा : इस संस्थान की जनक मैडम वेल्दी फ़िशर जी इसी परिसर में रहती
भी थीं।संस्थान के पीछे की तरफ़ उनका आवास बना है।मुझे इस बात का पता नहीं था।एक
वर्कशाप के बीच में किसी दिन श्री मुलासी जी ने सभी प्रतिभागियों से कहा कि आइये
चलिये आप लोगों को इस पूरे संस्थान की जनक वेल्दी फ़िशर जी का निवास दिखा दें।हम लोग चल पड़े।उनके निवास पर पहुंचने पर तो मैं दंग रह गया कि—इतनी दूर से
भारत आकर यहां साक्षरता की अलख जगाने के लिये अपना वतन छोड़ देने वाली ये
महिला—इतने साधारण ढंग से रहती थीं।–उनका बहुत छोटा सा निवास,उनका छोटा सा अध्ययन
कक्ष,कमरे सामान सभी कुछ उनकी सादगी,त्याग और समर्पण की भावना की गवाही देते
हैं।शायद मैडम वेल्दी फ़िशर जी का ही पूरा असर आज भी साक्षरता निकेतन के कण-कण में
बसा है तभी तो यहां के लोगों में भी आज वही मानवीय गुण विद्यमान हैं।
0कर्मठता,ईमानदारी और श्रद्धा की
भूमि: साक्षरता निकेतन के परिसर में जब
आप प्रवेश करते हैं तो सबसे सामने ही आपको प्रार्थना भवन दिखाई देता है।जब मैं
पहली बार वहां गया था तो मैंने डा0धरम सिंह जी से पूछा था कि क्या यहां कोई प्रार्थना
या सत्संग भी होता है ?तो डा0धरम सिंह ने मुझसे कहा कि कल सुबह आठ बजे तक आ जाओ तो
देखो यहां क्या क्या होता है।मैंने भी मजाक में ही कहा कि जब वर्कशाप दस बजे कि है
तो क्या मैं यहां आठ बजे घास छीलने आऊंगा?तो धरम सिंह जी ने उसी टोन में मुझसे कहा
कि हां हम लोग घास छीलते हैं तुम्हें भी छीलनी है घास तो आ ही जाओ कल जल्दी उठ के।
खैर अगले दिन मैं सुबह घर से जल्दी निकल
कर आठ बजे तक साक्षरता निकेतन पहुंच गया।और वहां हो रहे काम को देख कर तो मेरे
आश्चर्य का ठिकाना न रहा।वहां प्रार्थना भवन के सामने श्री मुलासी जी,डा0धरम
सिंह,श्री दिनेश जी,श्री लायक राम मानव और कई अन्य कर्मचारी अधिकारी इधर-उधर पड़े
तिनकों,कागज के कुछ टुकड़ों को इकट्ठा कर रहे थे।कुछ लोग खुरपियों से घास साफ़ कर
रहे थे।धरम सिंह के इशारे पर मैंने भी कुछ देर घास छीली।---फ़िर थोड़ी देर बाद सभी
लोग हाथ धोकर प्रार्थना सभा में पहुंचे और वहां बाकायदा प्रार्थना हुयी।---फ़िर सभी
लोग अपने अपने काम पर।
ये पूरा घटनाक्रम देखकर मुझे लगा कि मैं
किसी संस्थान में नहीं बल्कि किसी आश्रम में आया हूं।और यहां का हर कर्मचारी
अधिकारी एक सरल साधु है।सचमुच उसके बाद से मैं जितनी बार भी वहां गया मेरी श्रद्धा
साक्षरता निकेतन के लिये एक आश्रम जैसी ही बढ़ती गयी।और आज भी बरकरार है।
मुझे आज भी लगता है कि मुझे यदि
साक्षरता निकेतन परिसर में एक दो माह लगातार रहने का अवसर मिल जाये तो निश्चित रूप
से मैं दो महीनों में कुछ नया,अनोखा और अभूतपूर्व सृजन तो कर ही दूंगा।
मुझे यह भी लगता है कि इतने मनोरम
प्राकृतिक वाता्वरण में जिस परिकल्पना को साकार करने के लिये मैडम वेल्दी फ़िशर ने
आश्रम जैसे माहौल वाले इस संस्थान को जन्म दिया था-----उसे मेट्रो कल्चर की भेंट
नहीं चढ़ने देना चाहिये और इसे पूर्ण शासकीय संरक्षण देकर वेल्दी फ़िशर जी के सपनों
को साकार करना चाहिये।
0000
डा0हेमन्त कुमार
मोबाइल-09451250698
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