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कहानी कहना ----कहानी सुनाना ---एक कला (भाग -५)

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

( नाच री कठपुतली)
(अपने इस लेख के पिछले चार भागों में मैनें कहानी सुनाने की कला और कहानी सुनाने या प्रस्तुत करने के विभिन्न तरीकों,माध्यमों के विषय में लिखा था।आज मैं कहानी सुनाने के एक और माध्यम कठपुतली के बारे में लिख रहा हूं।)
कहानी को आप श्रोताओं या बच्चों तक कठपुतलियों के माध्यम से भी
पहुंचा सकते । कठपुतलियों को भी कहानी सुनाने के माध्यमों में गिनाया भी जाता है।परन्तु मुझे लगता है कि यह एकदम अलग विधा और कला दोनों ही है। इसमें पहले आपको महारत हासिल करनी होगी बहुत सी कलाओं में।जैसे कठपुतलियां बनाने के लिये मूर्तिकला,पुस्तककला,कठपुतलियों के संचालन,संवाद बोलने की दक्षता में.लेकिन यह कला है सम्प्रेषण का एक सशक्त माध्यम । कठपुतलियों का इस्तेमाल सम्प्रेषण के लिये काफ़ी पहले से हो रहा है। हमारे देश में तो यह कला लगभग दो हजार वर्ष पुरानी है। पहले नाटकों को प्रस्तुत करने का एक मात्र माध्यम कठपुतलियां ही थीं।आज तो हमारे पास आधुनिक तकनीक वाले कई माध्यम रेडियो,टी वी,आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाली रंगशालायें,मंच सभी कुछ है। लेकिन पहले या तो लोक परंपराओं की नाट्य शैलियां थीं या फ़िर कठपुतलियां।
उत्तर प्रदेश में तो सबसे पहले कठपुतलियों के माध्यम का इस्तेमाल
शुरू हुआ था।शुरू में इनका इस्तेमाल प्राचीन काल के राजा महाराजाओं की कथाओं,धार्मिक,पौराणिक आख्यानों,और राजनैतिक व्यंग्यों को प्रस्तुत करने के लिये किया जाता था।उत्तर प्रदेश से धीरे धीरे इस कला का प्रसार दक्षिण भारत के साथ ही देश के अन्य भागों में भी हुआ।

कठपुतलियों के माध्यम से राजनैतिक व्यंग्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करने का प्रचलन यहां मुगल काल के पहले तक तो खूब था।लेकिन मुगलों के आने के साथ ही यह परंपरा बंद कर दी गयी। शायद मुगल शासकों को इस प्रकार से पुतलियों द्वारा दिखाया जाने वाला व्यंग्य पसंद नहीं आया।बाद में इन के माध्यम से राजाओं की वीरता की कहानियां,धार्मिक कहानियां,पौराणिक आख्यान आदि का प्रस्तुतीकरण होने लगा।पहले पुतलियों के कार्यक्रमों का मंचन मेलों,तीज त्योहारों के मौके पर ज्यादा होता था। इसके दर्शकों में बच्चे,बूढ़े,पुरूष,स्त्री सभी रहते थे।इसका इतना आकर्षण था कि मेलों ,त्योहारों के अवसर पर यह पता लगते ही कि कठपुतली का
कार्यक्रम होगा। दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ती थी।
कठपुतली की सबसे खास बात यह है कि इसमें कई कलाओं का सम्मिश्रण है।इसमें लेखन कला,नाट्यकला,चित्रकला,मूर्तिकला,काष्ठकला,वस्त्र निर्माण कला,रूप सज्जा,संगीत,नृत्य जैसी कई कलाओं का इस्तेमाल होता है। इसी लिये सम्भवतः बेजान होने के बाद भी ये कठपुतलियां जिस समय अपनी पूरी साज सज्जा के साथ मंच पर उपस्थित होती हैं तो दर्शक पूरी तरह उनके साथ बंध जाता है। चाहे वह बच्चा हो ,जवान या फ़िर बूढ़ा।
पुतलियों का स्वरूप और आकार प्रकार भी तकनीक के विकास के साथ ही बदलता गया।पहले जहां सिर्फ़ काठ की साधारण पुतलियां थीं।वहीं अब हाथ की दस्ताने वाली पुतलियां(ग्लब पपेट),छड़ वाली पुतलियां(राड पपेट्स),तार या धागे वाली पुतलियां तथा छाया पुतलियां इस्तेमाल की जाती हैं। इसके साथ ही इनके माध्यम से प्रस्तुत होने वाले कार्यक्रमों की तकनीक में भी काफ़ी बदलाव आ चुका है। पहले इनके प्रस्तुतीकरण में जहां कई व्यक्तियों का सहयोग जरूरी था(हर कठपुतली के संचालन,स्वर देनें आदिके लिये) वहीं अब संवाद,संगीत आदि पहले से रिकार्ड कर लिया जाता है।एक ही व्यक्ति एक साथ कई पुतलियों को भी संचालित कर लेता है।इसी लिये इनका प्रस्तुतीकरण भी पहले की अपेक्षा आसान हो गया है।
यद्यपि आज तो संचार के कई माध्यम हमारे आपके मनोरंजन और शिक्षा दोनों के लिये इस्तेमाल हो रहे हैं।लेकिन विशेषकर जब हम बच्चों की बात करते हैं तो उनकी कल्पनाशीलता,उनकी अभिरुचि,उनके मनोविज्ञान के अनुकूल विषयों को उन तक सम्प्रेषित करने का आज भी यह एक सशक्त माध्यम है। वैसे तो कक्षा में किसी भी विषय को पढ़ाते समय हम पुतलियों को माध्यम बना सकते हैं।लेकिन विशेष रूप से कहानी को पढ़ाने में इनका अच्छा उपयोग हो सकता है।
जब हम बच्चों को कोई ऐसी कहानी पढ़ा रहे हों जिसमें जानवर पात्र हों तो उनके संवादों को केवल बोल कर या,उनके क्रिया कलाप को केवल कुछ चित्रों के माध्यम से हम उतनी अच्छी तरह नहीं सम्प्रेषित कर सकेंगे । जितना कि इन कठपुतलियों के माध्यम से।आप खुद कल्पना करके देखिये कि एक शेर ,भालू या घोड़े की कठपुतली को कक्षा में बोलते देखकर बच्चों को कितना आनन्द आयेगा।इनके माध्यम से हम बच्चे की कल्पनाशीलता बढ़ाने के साथ ही उसके अन्दर कठपुतली नाटक में इस्तेमाल होने वाली सभी कलाओं के प्रति रुचि,आकर्षण और एक समाप्त होती जा रही कला को बचाने का जज्बा भी पैदा कर सकते हैं।
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हेमन्त कुमार

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