आज के संदर्भ में कल
शनिवार, 4 सितंबर 2010
आज शिक्षक दिवस के शुभ अवसर पर सभी गुरुजनों को हार्दिक शुभकामनायें।आज मैं आदरणीय प्रताप सहगल जी की काफ़ी पहले लिखी गयी यह कविता प्रकाशित कर रहा हूं,क्योंकि यह आज भी उतनी ही सार्थक है जितनी 30 वर्षों पूर्व थी।
आज के संदर्भ में कल
सड़कों पर घूमते हुये एकलव्य
खोज रहे हैं द्रोण को
और द्रोण न जाने किन अन्धी गुफ़ाओं में
या यूतोपियाई योजनाओं में
खोया हुआ खामोश है।
लाखों एकलव्य अपनी अपनी पीड़ा ढोते हुये
प्रकाश किरणों को पकड़ने का करते हैं प्रयास
और रोशनी के किसी भी स्तूप को नोच लेते हैं
मिनियेचर ताजमहलों को
अपने हाथों में दबाये
समुद्र पार के देशों की ओर करते हुये संकेत
शान्ति यात्राओं में लौट आते हैं
विस्फ़ोटक पदार्थ से भरे हुये हाथों सहित
मेरे देश के एकलव्य
द्रोण की खोज में
और द्रोण न जाने किन दिशाओं में खो गया है।
कल आज में परिवर्तित
होने वाला है कल
चक्राकार घूमता हुआ ग्लोब
चपटियाता हुआ भी चक्रबद्ध रहेगा
आलोक स्तंभ बुझ जायेगा
किसी मनु की प्रतीक्षा में
और मेरे देश के एकलव्यों को
तब भी जरूरत होगी द्रोण की
और द्रोण न जाने किन अतल गहराइयों में सिमट जायेगा।
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कवि—प्रताप सहगल
11 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
बहुत अच्छी गहरी कविता .
सार्थक ...
इसके बारे में आपका कहना बिल्कुल सही है!
समाज को आईना दिखाती पोस्ट।
सार्थक कविता
सचमुच, आपकी पोस्ट बहुत बढ़िया है।
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इसकी चर्चा बाल चर्चा मंच पर भी है!
http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/09/16.html
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और मेरे देश के एकलव्यों को
तब भी जरूरत होगी द्रोण की
और द्रोण न जाने किन अतल गहराइयों में सिमट जायेगा।
wonderful post ! I agree with you at all points.
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सार्थक रचना है ... शायद देश के हालात तब भी वही थे जो आज हैं ...
thank you for your comment in my blog...
I came to visit your blog but I can't understand the writings...
anyway you have a very nice blog...
all the best and have a nice day!!!
आज भी सार्थक है ---आदरणीय प्रताप जी की यह कविता। उन्हें हार्दिक शुभकामनायें।
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